जल-विज्ञान

हिमनदियों-गिरिस्रोतों का उद्गम स्थल उत्तराखंड झेल रहा है भीषण जल संकट

हिमनदियों-गिरिस्रोतों का उद्गम स्थल उत्तराखंड झेल रहा है भीषण जल संकट

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-30 डॉ. मोहन चंद तिवारी उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन-1 अत्यंत चिंता का विषय है कि विभिन्न नदियों because का उद्गम स्थल उत्तराखंड पीने के पानी के संकट से सालों से जूझ रहा है. गर्मियों के सीजन में हर साल पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों को भीषण जल संकट से गुजरना पड़ता है किन्तु उत्तराखंड राज्य का जल प्रबंधन इस समस्या के समाधान में नाकाम ही सिद्ध हुआ है. पढ़ें- भारत के विभिन्न क्षेत्रों में परंपरागत जल संचयन प्रणालियां पिछले वर्ष 9 जुलाई 2018 को जारी की गई भारत but सरकार की नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश इस समय इतिहास में जल संकट के सबसे भयावह दौर से गुजर रहा है. रिपोर्ट के अनुसार करीब 60 करोड़ लोग जबरदस्त जल संकट से जूझ रहे हैं, जबकि हर साल दो लाख लोग साफ पीने का पानी न मिलने से अपनी जान गंवा देते हैं.रिपोर्ट के अनुसार भारत में 70 प्रतिशत पानी दूषित है और पेयजल स्वच्...
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में परंपरागत जल संचयन प्रणालियां

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में परंपरागत जल संचयन प्रणालियां

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-29 डॉ. मोहन चंद तिवारी भारत में जलसंचयन और प्रबन्धन का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है. विभिन्न प्रांतों और प्रदेशों में परम्परागत जलसंचयन या ‘वाटर हारवेस्टिंग’ के नाम और तरीके अलग अलग रहे हैं किन्तु इन सबका उद्देश्य एक ही है वर्षाजल का संरक्षण और भूमिगत जल का संचयन और संवर्धन. उत्तराखंड में नौले, खाल,चाल, becauseराजस्थान में खड़ीन,कुंड और नाडी, महाराष्ट्र में बन्धारा और ताल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बन्धी, बिहार में आहर और पयेन, हिमाचल में कुहल, तमिलनाडु में एरी, केरल में सुरंगम, जम्मू क्षेत्र के कांडी इलाके के पोखर, कर्नाटक में कट्टा पानी को because सहेजने और एक से दूसरी जगह प्रवाहित करने के कुछ अति प्राचीन साधन थे, जो आज भी प्रचलन में हैं. इसी सम्बन्ध में प्रस्तुत है भारत के विभिन्न क्षेत्रों की परंपरागत जल प्रबंधन और जल संचयन से सम्बंधित प्रमुख जल प्रणाल...
चक्रपाणि मिश्र के अनुसार भारत के पांच भौगोलिक जलागम क्षेत्रों का पारिस्थिकी तंत्र 

चक्रपाणि मिश्र के अनुसार भारत के पांच भौगोलिक जलागम क्षेत्रों का पारिस्थिकी तंत्र 

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-28 डॉ. मोहन चंद तिवारी चक्रपाणि मिश्र ने ‘विश्ववल्लभ-वृक्षायुर्वेद’ में भारतवर्ष के विविध प्रदेशों को जलवैज्ञानिक धरातल पर विभिन्न वर्गों में विभक्त करके वहां की वानस्पतिक तथा भूगर्भीय विशेषताओं को पृथक् पृथक् रूप because से चिह्नित किया है जो वर्त्तमान सन्दर्भ में आधुनिक जलवैज्ञानिकों के लिए भी अत्यन्त प्रासंगिक है. चक्रपाणि के अनुसार जलवैज्ञानिक एवं भूवैज्ञानिक दृष्टि से भारत के पांच जलागम क्षेत्र इस प्रकार हैं- जलविज्ञान 1. ‘मरु देश’- जहां रेतीली मिट्टी है because और हाथी की सूंड के समान भूमि में जल की शिराएं हैं उसे ‘मरु प्रदेश’ कहते हैं. इस क्षेत्र में जलागम को प्रेरित करने वाली वृक्ष वनस्पतियों में पीलू (अखरोट) शमी, पलाश, बेल, करील, रोहिड़, अर्जुन, अमलतास और बेर के पेड़ मुख्य हैं. जलविज्ञान 2. ‘जांगल देश’ -मरुदेश की because अपेक्षा जांगल देश में जल की ...
चक्रपाणि मिश्र के अनुसार जलाशयों के विविध प्रकार

चक्रपाणि मिश्र के अनुसार जलाशयों के विविध प्रकार

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-27 डॉ. मोहन चंद तिवारी चक्रपाणि मिश्र ने ‘विश्वल्लभवृक्षायुर्वेद’ नामक अपने ग्रन्थ में कूप,वापी,सरोवर, तालाब‚ कुण्ड‚ महातड़ाग आदि अनेक जलाश्रय निकायों की निर्माण पद्धति तथा उनके विविध प्रकारों का वर्णन किया है,जो वर्त्तमान सन्दर्भ में परंपरागत जलनिकायों के जलवैज्ञानिक स्वरूप को जानने और समझने की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है. यहां बताना चाहेंगे कि राजस्थान की मरुभूमि के इतिहास पुरुष और 16वीं शताब्दी में हुए महाराणा प्रताप के समकालीन पं.चक्रपाणि मिश्र ने अपने अनुभवों और प्राचीन भारत के जलविज्ञान के ग्रन्थों का अवगाहन करके अपनी कृति ‘विश्वल्लभवृक्षायुर्वेद’ में हजारों वर्षों से चलन में आ रहे परंपरागत जलाश्रयों के बारे में अपना सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत किया है. जलविज्ञान इसलिए प्राचीन भारतीय परम्परागत जलविज्ञान के संदर्भ में चक्रपाणि मिश्र द्वारा रचित यह ‘विश्ववल्...
चक्रपाणि मिश्र के भूमिगत जलान्वेषण के वैज्ञानिक सिद्धांत

चक्रपाणि मिश्र के भूमिगत जलान्वेषण के वैज्ञानिक सिद्धांत

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-26 डॉ. मोहन चंद तिवारी आचार्य वराहमिहिर की तरह चक्रपाणि मिश्र का भी भूमिगत जलान्वेषण के क्षेत्र में  महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है,जो वर्त्तमान सन्दर्भ में भी अत्यन्त प्रासंगिक है. चक्रपाणि मिश्र ने भारतवर्ष के विविध क्षेत्रों because और प्रदेशों की पर्यावरण और भूवैज्ञानिक पारिस्थिकी के सन्दर्भ में देश की भौगोलिक पारिस्थिकी को जलवैज्ञानिक धरातल पर पांच वर्गों में विभक्त किया है और प्रत्येक क्षेत्र की वानस्पतिक तथा भूगर्भीय विशेषताओं को अलग अलग लक्षणों से परिभाषित भी किया है. प्राचीन भारत के परंपरागत जल संसाधनों के सैद्धांतिक  स्वरूप को जानने के लिए भी चक्रपाणि मिश्र का 'विश्ववल्लभवृक्षायुर्वेद’ नामक ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है. 'विश्ववल्लभवृक्षायुर्वेद’ में जलवैज्ञानिक सिद्धांत सोलहवीं शताब्दी में महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) के समकालीन रहे ज्योतिर्विद पं.चक्र...
वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता

वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-25 डॉ. मोहन चंद तिवारी पिछले लेख में बताया गया है कि वराहमिहिर के भूगर्भीय जलान्वेषण के सिद्धांत आधुनिक विज्ञान और टैक्नौलौजी के इस युग में भी अत्यंत प्रासंगिक और उपयोगी हैं, जिनकी सहायता से because आज भी पूरे देश की जलसंकट की समस्या का हल निकाला जा सकता है तथा अकालपीड़ित और सूखाग्रस्त इलाकों में भी हरित क्रांति लाई जा सकती है. इस लेख में वराहमिहिर के जलवैज्ञानिक सिद्धांतों की प्रासंगिकता और वर्त्तमान सन्दर्भ में उनकी उपयोगिता के निम्नलिखित विचार बिंदु विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- जलविज्ञान 1. सर्वप्रथम, वराहमिहिर so का जलविज्ञान के क्षेत्र में मौलिक योगदान यह है कि उन्होंने विश्व के जलवैज्ञानिकों को इस सत्य से अवगत कराया कि भूमि के अन्दर भी सैकड़ों ऐसी जल की शिराएं सक्रिय रहती हैं जिनके कारण कृत्रिम प्रकार के बनाए गए जलाशयों में पूरे वर्ष भूमिगत जल का भंडारण ह...
वराहमिहिर का जलान्वेषण विज्ञान आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर

वराहमिहिर का जलान्वेषण विज्ञान आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-24 डॉ. मोहन चंद तिवारी भारतीय जलविज्ञान की पिछली पोस्टों में बताया जा चुका है कि वराहमिहिर के भूमिगत जलान्वेषण विज्ञान द्वारा वृक्ष- वनस्पतियों,भूमि के उदर में रहने वाले जीव-जन्तुओं की निशानदेही और भूमिगत शिलाओं या चट्ठानों के लक्षणों और संकेतों के आधार पर भूमिगत जल को कैसे खोजा जा सकता है? आज इस पोस्ट के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया because जा रहा है कि वर्त्तमान विज्ञान और टैक्नौलौजी के इस युग में भी वराहमिहिर के जलवैज्ञानिक सिद्धांत कितने प्रासंगिक और उपयोगी हैं? जिनकी सहायता से आज भी पूरे देश की जलसंकट की समस्या का हल निकाला जा सकता है तथा अकालपीड़ित और सूखाग्रस्त इलाकों में भी हरित क्रांति लाई जा सकती है. जलविज्ञान अब देश विदेश के आधुनिक भूवैज्ञानिकों ने भी वराहमिहिर के इन फार्मूलों की वैज्ञानिक धरातल पर जांच पड़ताल और अनुसंधान का कार्य प्रारम्भ कर द...
जलाशय निर्माण में वास्तु संरचना और ग्रह-नक्षत्रों की भूमिका

जलाशय निर्माण में वास्तु संरचना और ग्रह-नक्षत्रों की भूमिका

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-23 डॉ. मोहन चंद तिवारी हमारे देश के प्राचीन जल वैज्ञानिकों ने because वास्तुशास्त्र की दृष्टि से भी जलाशय निर्माण के सम्बन्ध में विशेष मान्यताएं स्थापित की हैं. हालांकि इस सम्बंध में प्राचीन आचार्यों और वास्तु शास्त्र के विद्वानों के अलग अलग मत और सिद्धांत हैं. मूल अवधारणा यह है कि जिस स्थान पर जल के देवता या जल के सहयोगी देवों का पद या स्थान होता है उसी स्थान पर नौला, कूप, वापी, तालाब आदि जलाशयों का निर्माण शुभ माना गया है. जलविज्ञान जल के सहयोगी देव हैं-पर्जन्य,आपः, so आपवत्स, वरुण, दिति,अदिति, इंद्र, सोम, भल्लाट इत्यादि देवगण. टोडरमल के 'वास्तु सौख्यम्' नामक ग्रंथ  के अनुसार अग्निकोण में यदि जल की स्थापना की जाए तो वह अग्नि भय को देने वाला होगा. दक्षिण में यदि जलाशय हो तो becauseशत्रुभय होता है. नैर्ऋत्य में स्त्री विवाद को उत्पन्न करता है. पश्चिम में स्त...
“बृहत्संहिता में जलाशय निर्माण की पारम्परिक तकनीक”

“बृहत्संहिता में जलाशय निर्माण की पारम्परिक तकनीक”

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-22 डॉ. मोहन चंद तिवारी पिछले लेखों में बताया गया है कि एक पर्यावरणवादी जलवैज्ञानिक के रूप में आचार्य वराहमिहिर द्वारा किस प्रकार से वृक्ष-वनस्पतियों की निशानदेही करते हुए, जलाशय के उत्खनन because स्थानों को चिह्नित करने के वैज्ञानिक तरीके आविष्कृत किए गए और उत्खनन के दौरान भूमिगत जल को ऊपर उठाने वाले जीवजंतुओं के बारे में भी उनके द्वारा महत्त्वपूर्ण जानकारियां दी गईं. जलविज्ञान जलविज्ञान के एक प्रायोगिक और प्रोफेशनल उत्खननकर्त्ता के रूप में वराहमिहिर ने भूगर्भीय कठोर शिलाओं के भेदन की जिन रासायनिक विधियों का निरूपण किया है,वे वर्त्तमान जलसंकट के because इस दौर में परम्परागत जलस्रोतों के लुप्त होने की प्रक्रिया और उनको पुनर्जीवित करने की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.यानी हम जब इन नौलों और जल संस्थानों को पुनर्जीवित करने का संकल्प ले रहे हैं तो हमारे लिए...
“बृहत्संहिता में शिलाभेदन के रासायनिक फार्मूले”

“बृहत्संहिता में शिलाभेदन के रासायनिक फार्मूले”

जल-विज्ञान
असगोली की ग्राउंड रिपोर्ट सहित  "जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने से भी बड़ा काम है,because उनकी सड़क माफियों के अत्याचार से रक्षा करना." भारत की जल संस्कृति-21 डॉ. मोहन चंद तिवारी हम जब प्राचीन काल की गुफाओं अजन्ता, so ऐलोरा,मंदिरों,कुओं और विशाल जलाशयों आदि को देखते हैं तो आश्चर्य होता है कि आखिर कैसे इन विशाल गुफाओं की भूमिगत विशाल शिलाओं को खंड-खंड करके इतनी सुंदरता के साथ इनका निर्माण किया गया होगा? केवल छैनीं, कुदाल और हथौड़ों के उपकरणों से तो इनका निर्माण सम्भव नहीं लगता है. इसी सन्दर्भ में जब अपने प्राचीन ग्रन्थों में विवेचित भारत की रासायनिक विधियों का अन्वेषण करते हैं तो वराहमिहिर की बृहत्संहिता उनमें से रासायनिक शिलाविज्ञान का मुख्य ग्रन्थ सिद्ध होता है. जानकारी बृहत्संहिता में जल वैज्ञानिक आचार्य वराहमिहिर द्वारा अनेक ऐसे उपाय और विधियां बताई गई हैं,जिनसे जलाशय या कूप उत...