लोक पर्व-त्योहार

अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

लोक पर्व-त्योहार, संस्मरण
हम लोग बचपन में जिस त्योहार का बेसब्री से इंतजार करते थे वह दिवाली या होली नहीं बल्कि ‘घुघुतिया’ था। प्रकाश चंद्र भारत की विविधता के कई आयाम हैं इसमें बोली से लेकर रीति-रिवाज़, त्योहार, खान-पान, पहनावा और इन सबसे मिलकर बनने वाली जीवन पद्धति। इस जीवन पद्धति में लोककथाओं व लोक आस्था का बड़ा महत्व है। हर प्रदेश की अपनी लोक कथाएं हैं जिनका अपना एक संदर्भ है। इन लोक कथाओं और उनसे संबंधित त्योहारों के कारण ही आज भी ग्रामीण समाज में सामूहिकता का बोध बचा हुआ है। उसके उलट महानगरों में लगभग सामूहिकता का लोप हो चुका है। इस कारण से ही महानगरों में पलने और पढ़ने वाली पीढ़ी के लिए त्योहारों का महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। त्योहार अब उत्सव से ज्यादा ‘इवेंट’ में तब्दील हो रहे हैं। ऐसे समय उन त्योहारों को फिर से याद करना समय के चक्र के साथ बचपन में लौटने जैसा है। हम लोग बचपन में जिस त्योहार क...