आधी आबादी

महिला दिवस: होली और पहाड़

महिला दिवस: होली और पहाड़

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जे .पी. मैठाणी पीपलकोटी के बाजार के अंतिम छोर पर बाड़ेपानी के धारे से तड़के सुबह पानी की बोतलें भरती औरतें, अपनी कमर पर स्येलू या सीमेंट के कट्टों से बनी टाईट रस्सियाँ बांधे औरतें ! उधर अगथला गाँव से पीठ पर बन्दूक की तरह सुयेटे लादी पहाड़ की औरतें , रोज अपने अपने हिस्से का पहाड़ नापने और कालपरी , जेठाणा, तमन गैर से और आगे भंडीर पाणी से ग्वाड या छुर्री तक घास लेने जाती मेरे गाँव की औरतें - हमारे हिस्से के पहाड़ की ताकत हैं होली के रंग की प्रतीक हैं और महिला दिवस की प्रेरणा भी हैं! रंगीन होली के रंगों की तरह ही पहाड़ के इस हिस्से की महिलाओं के सपने भी आशाओं और विश्वास से भरे और बेहद रंगीन है- गुलाबी- थोड़े जैसे सकीना की तरह नीले जैसे कैम्पानुला या सड़क किनारे के जैक्रेंडा की तरह पीले फ्यूंली या सिल्वर ओक की तरह, लाल जैसे - बुरांश या सेमल की तरह नारंगी या हनुमानी जैसे धोल...
प्रकृति व जीवन के नए सृजन का आधार है माहवारी

प्रकृति व जीवन के नए सृजन का आधार है माहवारी

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भावना मासीवाल  बचपन से पढ़ते और सुनते आ रहे हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है. स्वस्थ तन जो बीमारियों से कोसो दूर है और स्वस्थ मस्तिष्क जो जीवन के प्रति आशान्वित है. because स्वस्थ होना केवल तन का ही नहीं मस्तिष्क का भी अधिकार है. स्त्री के संदर्भ में स्वस्थ होना उसकी प्रोडक्टिविटी तक सीमित है. उससे अधिक स्वास्थ्य संबंधित शिक्षा उसे शायद ही कभी बचपन से अब तक मिली हो. बचपन जो अपने साथ बहुत सारे सपने संजोता है और उनमें जीता है. आज भी याद मुझे आज भी याद है 2002 अर्थात 18 साल पहले विद्यालय परिवेश में बारहवीं की विज्ञान की पुस्तक में रिप्रोडक्शन का एक अध्याय था और हमें कहा गया इसे आप सभी खुद पढ़ ले. because कन्या विद्यालय जैसे खुले परिवेश में पाठ का नहीं पढ़ाना उस विषय से संबंधित सामाजिक मनोविज्ञान को दिखाता है. गांधी स्त्री के बचपन की दुनिया फैंटेसी की होत...
ईज़ा शब्द अभिव्यक्ति की सीमा  से परे अनुभूति का रिश्ता  है  

ईज़ा शब्द अभिव्यक्ति की सीमा  से परे अनुभूति का रिश्ता  है  

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भुवन चंद्र पंत ईजा के संबोधन में जो लोकजीवन की सौंधी महक है, उसके समकक्ष माँ, मम्मी या मॉम में रिश्तों के तासीर की वह गर्माहट कहां? ईजा शब्द के संबोधन में एक ऐसी ग्रामीण because महिला की छवि स्वतः आँखों  के सम्मुख उभरकर आती है, जो त्याग की साक्षात् प्रतिमूर्ति है, जिसमें आत्मसुख का परित्याग कर खुद को परिवार के लिए समर्पित होने का त्याग एवं बलिदान है, बच्चों की परवरिश के लिए समयाभाव के बावजूद उनकी खुशियों के लिए कोई कसर न छोड़ने वाली ईजा का कोई सानी नहीं. हमारी थोड़ा बच्चों की शरारत पर because मीठी झि़ड़की देने और उसी क्षण शिबौऽऽ कहकर उसके सर पर हाथ फिराने और मुंह मलासने वाली ईजा, जंगल से लौटकर झटपट बिना पानी की घूँट पीये बच्चे को अपने दूध पर लगाने वाली ईजा, पीठ पर बच्चे को बांधकर खेतों में निराई-गुड़ाई करने वाली ईजा, धोती से सिर बांधकर आंगन में ओखल कूटती ईजा, सुबह सबेरे गागर सिर पर but ...
प्यारी दीदी, अपने गांव फिर आना

प्यारी दीदी, अपने गांव फिर आना

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष डॉ. अरुण कुकसाल आज के विशेष दिवस पर दीदी की याद आना स्वाभाविक है- ‘‘प्रसिद्ध इतिहासविद् डाॅ. शिव प्रसाद डबराल ने ‘उत्तराखंड के भोटांतिक’ पुस्तक में लिखा है कि यदि प्रत्येक शौका अपने संघर्षशील, व्यापारिक और घुमक्कड़ी जीवन की मात्र एक महत्वपूर्ण घटना भी अपने गमग्या (पशु) की पीठ पर लिख कर छोड़ देता तो इससे जो साहित्य विकसित होता वह साहस, संयम, संघर्ष और सफलता की दृष्टि से पूरे विश्व में अद्धितीय होता’’ (‘यादें’ किताब की भूमिका में-डाॅ. आर.एस.टोलिया) ‘गाना’ (गंगोत्री गर्ब्याल) ने अपने गांव गर्ब्याग की स्कूल से कक्षा 4 पास किया है। गांव क्या पूरे इलाके भर में दर्जा 4 से ऊपर कोई स्कूल नहीं है। उसकी जिद् है कि वह आगे की पढ़ाई के लिए अपनी अध्यापिका दीदियों रन्दा और येगा के पास अल्मोड़ा जायेगी। गर्ब्याग से अल्मोड़ा खतरनाक उतराई-चढ़ाई, जंगल-जानवर, नदी-नालों क...
स्मृतियों के उस पार…एक थी सुरेखा…

स्मृतियों के उस पार…एक थी सुरेखा…

आधी आबादी
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष सुनीता भट्ट पैन्यूली वर्तमान के वक्ष पर यदि मैं किसी ऐसी स्मृति का शिलालेख दर्ज़ करूं जहां किसी स्त्री का दर्द है,संघर्ष है परिवार और समाज के साथ विरोध है ,एकाकीपन है,आंसू हैं और सबसे अहम अपने मान-सम्मान के संरक्षण हेतु दु:साहस है सामाजिक परंपराओं को तोड़ने का, साथ ही पूरे दलगत समाज से टक्कर लेने का तो मुझे यह गुमान बना रहेगा कि मैंने हाशिये पर पड़ी उस स्त्री के स्याह पक्ष को उभारा है जिस की स्थिर सोच ने सहसा गतिमान होकर ठान ली स्त्री स्वायत्ता, आत्मगौरव और जीवन जीने की स्वैच्छिकता को सामाजिक पायदान पर स्वीकार्यता दिलाने की। एक स्त्री का आदर्श आचरण परिवार और समाज की उन्नति का आधार है किंतु यदि स्त्री समाज और परिवार के विकास की धूरी है तो समाज और परिवार को भी स्त्री मन और उसके स्वभाव की तह तक पहुंच कर उसके अस्तित्व को अंगीकार करना होगा। आज अंतरर...
ये तो  पापा की परी है…

ये तो पापा की परी है…

आधी आबादी
विश्व बेटी दिवस पर विशेष डॉ. दीपा चौहान राणा यूँ  तो बेटी हर किसी कीbecauseलाडली होती है, पर क्या आप जानते हैं कि एक बेटी अपने पिता की जान होती है. आज बेटियों के लिए बेहद खास दिन है, क्योंकि आज डॉटर्स-डे यानी विश्‍व बेटी दिवस है. दुनिया भर में यह दिन अलग-अलग महीनों में मनाया जाता है, लेकिन भारत में यह दिन सितंबर के आखिरी रविवार को मनाया जाता है. सप्तेश्वर बेटियां आज भले ही किसी भी so क्षेत्र में पीछे नहीं हैं. हर क्षेत्र में हैं वो तरक्की कर रही हैं, लेकिन आज भी समाज में कई जगह उन्हें कमतर आंका जाता है. इसे देखते हुए कुछ देश की सरकार ने मिलकर समानता को बढ़ावा देने के लिए यह कदम उठाया. जिससे लोग जागरूक हो और इस बात को समझे कि हर इंसान बराबर है. सप्तेश्वर सप्तेश्वर यूं तो बेटी हर किसी की butलाडली होती है, पर क्या आप जानते हैं कि बेटी और पिता के बीच खास बॉन्डिंग क्यों होती ...
लड़ना होगा और आगे बढ़ना होगा

लड़ना होगा और आगे बढ़ना होगा

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भावना मसीवाल एक ओर देश कोरोना महामारी से जुझ रहा है, दूसरी ओर अपराध की बढ़ती जघन्य से जघन्य घटनाएँ आपको भीतर तक उद्वेलित कर देती हैं. हम अपने आसपास कितने सुरक्षित हैं इसका अंदाजा लूटपाट, हत्या और यौन शोषण की बढ़ती घटनाओं से लगाया जा सकता है. जिसमें बुजुर्ग से लेकर बच्चें तक असुरक्षित है. यह असुरक्षा घर से बाहर ही नहीं बल्कि घर के भीतर भी बढ़ी है. नेशनल क्राइम ब्यूरो रिपोर्ट के अनुसार पॉक्सो कानून के तहत 2017 में 32,608 और 2018 में 39,827 बाल यौन शोषण के मामले दर्ज हुए थे. इनके अतिरिक्त बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं जिन्हें परिवार सामाजिक सम्मान की आड़ में दर्ज ही नहीं कराता है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिदिन 109 बच्चे यौन शोषण से शोषित होते हैं. 2018 में 21,605 बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाएँ दर्ज हैं, जिसमें 21,401 लड़कियाँ व 204 लडकें हैं. यह आकड़ा बताता है...
पर्यावरण आंदोलन और पहाड़ी महिलाएं

पर्यावरण आंदोलन और पहाड़ी महिलाएं

आधी आबादी
भावना मसीवाल पहाड़ का जीवन देखने में हमें जितना शांत और खूबसूरत लगता है, अपने भीतर वह बहुत सी हलचलों और दबावों को समेटे है. यह दबाव एक ओर प्रकृति का प्रकोप है जो भूकंप और बाढ़ के रूप में देखा जाता है तो दूसरी ओर पहाड़ पर बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप है जो केदारनाथ, बद्रीनाथ और रूद्रप्रयाग के विध्वंस का जीवंत उदाहरण है. पहाड़ के जीवन को जिसने न केवल प्रभावित किया बल्कि पहाड़ को मैदानों और शहरो की तरफ पलायन को मजबूर किया. यह पलायन केवल एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे पहाड़ी समाज का रहा. पहाड़ी समाज पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित है मगर भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने प्रकृति प्रदत्त उनकी यह जीविका छीन ली है. आज पलायन बढ़ रहा है. कारण आर्थिक बेरोजगारी है जिसका परिणाम सबसे अधिक महिलाओं के जीवन पर रहा. उत्तराखंड में आज भी महिलाएं अकेली पहाड़ पर रहने को मजबूर हैं और पुरुष शहर जाकर कमाने को. पहाड़ के बारे में कहा जाता ह...
स्‍त्री श्रम का बढ़ता अवमूल्‍यन

स्‍त्री श्रम का बढ़ता अवमूल्‍यन

आधी आबादी
भावना मासीवाल  कोविड-19 महामारी का सबसे ज्यादा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ा है. इसके कारण वैश्विक स्तर पर देश की सीमाओं से लेकर व्यापार तक को कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया, जिसका सीधा प्रभाव देश की आर्थिक स्थिति पर देखने को मिल रहा है. अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. उत्पादन की कमी के कारण रोजगार सीमित हो रहे हैं और श्रम का तेजी से अवमूल्यन हो रहा है. देश को इससे उबारने के लिए लगातार इस पर चर्चा व बहस जारी है. अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए नए विकल्पों की तलाश की जा रही है जिससे कि इस महामारी के समय में विश्वव्यापी बंदी के कारण जब आम आदमी की आर्थिक स्थिति बदतर हो चली है तो उसमें उसे कुछ राहत मिल सके, इस पर लगातार विचार किया जा रहा है. अर्थव्यवस्था व जी.डी.पी की वृद्धि में रोजगार और श्रम का विशेष महत्व होता है. किंतु रोजगार की कमी और श्रम के अवमूल्यन के कारण जी.डी.पी ...
महिलायें, पीरियड्स और क्वारंटीन

महिलायें, पीरियड्स और क्वारंटीन

आधी आबादी
डॉ. दीपशिखा जोशी वैसे तो लगभग हमारे देश के हर हिस्से में महिलाओं को माहवारी के दिनों में अछूत माना जाता है, मगर पहाड़ी इलाक़ों में ख़ासकर बात करूँगी उत्तराखण्ड के बहुत जगहों पर इस प्रथा का बहुत सख़्ती से पालन होता है. बहुत से लोग जो अब शहरों में रहते हैं या जिनका कभी पहाड़ों से वास्ता ना रहा हो शायद विश्वास ना करें कि अभी भी या कभी इतना कठिन जीवन जीती हैं या जीती थी महिलायें! क्वारंटीन, आइसोलेशन शब्द हम में से बहुत से लोगों ने अब इस कोरोना काल में सुने होगें, मगर वो पहाड़ी महिला आज भी माहवारी के उन कठिन दिनों में रहती है पूरे 4 से 7 दिन बिलकुल अलग-थलग, उसे कोई छू नहीं सकता, अगर कोई छू लें तो गौ-मूत्र से उसकी शुद्धि की जाती है. उस महिला को इन दिनों केवल रसोई या पूजा-घर ही नहीं घर के बाक़ी हिस्सों में जाने की भी मनाही होती है. उसे मिलता है एक अलग स्थान, घर का कोई कोना, अधिकांशतया गाय को...