कैप्टन गुमान सिंह चिराल : प्रशिक्षण के समय बहाया पसीना युद्ध में खून को बचाता है!

Captain Guman Singh Chiral

प्रकाश चन्द्र पुनेठा, सिलपाटा, पिथौरागढ़

उत्तराखंड का सीमांत जिला पिथौरागढ़ के अन्तर्गत मुनस्यारी एक अति सुन्दर, रमणीय व प्राकृतिक सौन्दर्य युक्त विश्वप्रसिद्ध पर्यटक स्थल है, और तिब्बत की सीमा से लगा हुआ है. इसके अतिरिक्त मुनस्यारी परिश्रमी, बहादुर, शौर्यशाली, व साहसी लोगों की धरती है. मुनस्यारी के निकट, गोरी नदी के किनारे, मदकोट नामक सुन्दर कस्बा है. पिथौरागढ़ से मदकोट की दूरी लगभग 123 किलोमीटर है. मदकोट के दूर-दराज गांवों के नवयुवक भारतीय सेना का अभिन्न अंग बनने के अधिक लालायित रहते हैं. इस क्षेत्र के अधिकतर नवयुवक सत्रह वर्ष की आयु पूरी होते ही सेना में भर्ती होने को प्राथमिकता देते हैं. इसलिए कह सकते है कि मदकोट एक सैनिक बहुल क्षेत्र है.

मदकोट से लगभग 8 किलोमीटर दूर चैना गांव के कैप्टन गुमान सिंह चिराल का सैनिक जीवन वृतांत भी संघर्षमय रहा है. गुमान सिंह जब मात्र दो माह की शिशु अवस्था में थे तो इनके पिता हयात सिंह का निधन हो गया था. तब इनका पालन-पोषण इनके आमा-बूबू व ईजा ने किया था. गांव में इनके परिवार के पास कृषी योग्य लगभग 30 नाली भूमी थी.

पूर्व में हमारे पहाड़ में, प्रत्येक परिवार अपने घर के सदस्यों की उदरपूर्ती के लिए, अपने खेतों से अनाज का भरपूर उत्पादन कर लेता था. तथा खेतों की मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए खेत में गोबर डालते थे. गाय-भैंस-बैलों से गोबर मिल जाता था. जिस परिवार के पास अधिक खेत, उस परिवार के अधिक पशु धन पाया जाता था. गुमान सिंह के परिवार में, न खेती लायक जमीन कम थी, न पशु धन की.

प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर, स्वच्छ वातावरण में रहते हुए गुमान सिंह का बचपन व्यतीत हुआ. ग्रामीण वातावरण में रहते हुए गुमान सिंह ने कक्षा 6 तक की पढ़ाई गांव के निकट स्कूल से की. पिता के जीवित न रहने से ईजा तथा आमा-बूबू की छत्र छाया में गुमान सिंह का जीवन व्यतीत हो रहा था. गुमान सिंह का शरीर उम्र के साथ बड़ते हुए से हष्ट-पुष्ट हो रहा था. सत्रह वर्ष की आयु में गुमान सिंह एक बलिष्ट शरीर के स्वामी बन गए थे. बचपन से ही गुमान सिंह को सेना में भर्ती होने का शौक था. इस शौक के चलते हुए नवयुवक गुमान सिंह दिनांक 14 जनवरी सन् 1962 के दिन सेना की कुमाऊं रेजिमेनट में भर्ती हो गए.

प्रशिक्षण काल का समय बहुत अधिक कठोर परिश्रम का होता है. सेना में प्रशिक्षण प्राप्त करते समय प्रत्येक कार्य स्थल में अक्सर लिखा होता है,  “प्रशिक्षण के समय बहाया पसीना युद्ध में खून को बचाता है.” प्रशिक्षण काल के समय रंगरुटों को बहुत कठीन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है. गुमान सिंह अपने प्रशिक्षण काल को पूरा करने के पश्चात् भविष्य में जीवन की, नई आशाओं के साथ अरुणाचंल प्रदेश स्थित अपनी रेजिमेन्ट 6 कुमाऊं में पहुँचे हुए मात्र दो-तीन हुए थे कि पड़ौसी देश चीन ने एकाएक आक्रमण कर दिया.

उस समय हमारे देश की सेना के पास आधुनिक हथियार नहीं थे, न गोला बारुद और न युद्ध के लिए तैयारी. हमारे सैनिकों के पास .303 राईफल और मात्र पाँच राउंड उपलब्ध होते थे. जो पर्याप्त नही थे. फिर भी 6 कुमाऊं के सैनिक बहुत बहादुरी के साथ शत्रु देश चीन के साथ लड़े. लेकिन चीन के सैनिक संख्या बल में हमारी सेना के तुलना में बहुत अधिक थे, और आधुनिक हथियारों से सज्जित थे.

जब बिना किसी योजना के कोई कार्य करना पढ़ता है तो वह कार्य सुचारु रुप से नही हो पाता है, वह कार्य अनियंत्रित हो जाता है. हमारे देश की चीन के विरुद्ध युद्ध करने की किसी प्रकार की योजना नही थी, जब चीन ने अचानक आक्रमण कर दिया तो कुछ वीर सैनिक युद्ध भूमी में चीन की सेना का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए, कुछ सैनिक कैद हो गए और कुछ चीन की सेना की  गिरफ्त से बचने के लिए अनजान वालोंग के जंगल में अपने आप को छुपा लिए. अरुणांचल प्रदेश का अधिकांश क्षेत्र, घने जंगलों वाला पर्वतीय क्षेत्र है. हमारी सेना के जो जवान वालोंग के जंगल में छुप गए थे. उनके संम्मुख भोजन की समस्या उत्पन्न हो गई. क्योकि वह जवान अपने शरीर में पहने वस्त्रों व अपनी .303 राईफल, बिना गोलियों के, (गोलियां, आक्रमणकारी चीन के सेना के उपर झाौंक चुके थे) इसके अतिरिक्त और कुछ नही ले पाए थे. पेट भरने के  लिए न खाने को कुछ था, न पीने को पानी, न रहने को सिर के उपर छत थी.

जब भूख से बेहाल हो गए, तो इन भूखे प्यासे जवानों ने जंगल में पेड़ों की कोमल पत्तियों को, नरम मुलायम घास को, जंगली कंदमूल फलों को या जंगल में बसे गांव के आदिवासियों द्वारा खेतों में उत्पादित मंडुवा की बालियों को कच्चा खाकर अपनी भूख-प्यास मिटाई.

जंगल में गुमान सिंह भी इन भूखे-प्यासे जवानों के मध्य था. गुमान सिंह व उसके साथ के अन्य जवान, बहुत कष्ट व विपत्तियों को सहन करते हुए, लगभग सोलह दिन तक ब्रह्मपुत्र नदी के सहारे सुरक्षित दिशा में चलते रहे. मार्ग में जो कुछ खाने योग्य समझा, पेड़ों की पत्तियाँ हों, कोमल घास हो, कोई जंगली फल या मंडुवा की बालियों को खाते रहे और चलते रहे. जब 21 नवंबर, सन् 1962 के दिन  के दिन चीन ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा की, तब इन जवानों की सुध ली गई. हवाई जहाज के द्वारा इनको भोजन के पैकेट नीचे जंगल में गिराए गए, तब इनको खाने को मिल पाया. इन जवानों को आसाम के छबुआ में एकत्रित कर पुनस्र्थापित किया गया

चीन के साथ युद्ध हाने के समाचार के पश्चात् गांव में गुमान सिंह का परिवार बहुत अधिक चिन्तित था. उस समय संपर्क के साधन एकमात्र पत्र हुआ करते थे. मदकोट से डाक द्वारा प्रेषित किया गया पत्र एक माह पश्चात् अरुणांचल प्रदेश में पहुंचता था. गुमान सिंह के अरुणांचल प्रदेश अपनी रेजिमेनट में पहुंचते ही चीन ने आक्रमण कर दिया था. फिर वालोंग के बीहड़ जंगल में  अपने साथी सैनिकों के साथ गुमनाम रहा. शेष संसार के किसी भाग से इनका, कही से भी संपर्क नही था. परिवार वाले अति दुःखद तथा दुविधा की स्थिति में थे. युद्ध विराम के पश्चात् इन जवानों को अपनी रेजिमेन्ट में पुनस्र्थापित होने के पश्चात्, इनके परिवार वालों को इन जवानों की कुशलता के बारे में जानकारी हो पाई.

Captain Guman Singh Chiral with wife
Captain Guman Singh Chiral with wife

गुमान सिंह अपने परिवार के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए अपने सैनिक कर्मों का निर्वहन बहुत उचित प्रकार से कर रहे थे. सेना में रहते हुए सैनिकों को, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक की, अनगिनत यात्राएं करनी पढ़ती हैं. यह यात्राएं सेना में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए, किसी प्रतियोगिता में प्रतिभाग करने के लिए, स्थानान्तरण होने पर, अवकाश के मध्य अपने घर आने-जाने पर, किसी आपदा के आने पर बचाव हेतु या किसी वाह्य देश के आक्रमण करने की स्थिति में करनी पढ़ती हैं. तिब्बत की सीमा से लगे सीमांत जिले पिथौरागढ़ के मदकोट के दूरस्थ गांव चैना रहने वाले सीधे-सरल प्रकृति के गुमान सिंह हमारे देश के पूर्व में स्थित देश बर्मा की सीमा से सटे  नागालैंड राज्य में अपनी रेजिमेंट के साथ रहे. सर्वविदित है कि नागालैंड राज्य आतंकवाद से ग्रस्त है. गुमान सिंह नागालैंड में निर्भीक होकर आतंकवादियों का सामना करते हुए अपने सैनिक कर्म करते रहे.

6 कुमाऊं रेजिमेन्ट के नागालैंड में रहते हुए आतंकवादियों की गतिविधियाँ लगभग शून्य हो गई थी. 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट का नागालैंड में कार्यकाल वीरता पूर्ण तथा शौर्यशाली रहा. नागालैंड के पश्चात्  रेजिमेंट मेरठ आ गई थी. 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट का मेरठ में शांतिकालीन प्रवास था. रेजिमेंट के जवानों ने सोचा, कुछ समय मेरठ में आराम के साथ समय व्यतीत करगें. लकिन अचानक ही पाकिस्तान ने सितंबर में युद्ध आरंभ कर दिया. 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट ने तुरंत अमृतसर के निकट अटारी की ओर कूच किया. अटारी भारतीय क्षेत्र का  अंतिम गांव है, उसके पश्चात् पाकिस्तान की सीमा लगती है. गुमान सिंह व उनकी 6 कुमाऊं रेजिमेंट ने, पाकिस्तानी सेना का मुंह तोड़ उत्तर देते हुए इच्छोगिल नहर पार कर, पाकिस्तानी गांव डोगराई तक, अपने अधिकार में ले लिया था.

Captain Guman Singh Chiral
Captain Guman Singh Chiral

पाकिस्तान का एक मात्र उद्देश्य था, भारत की पश्चिमी सीमा गुजरात, राजस्थान, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में एक साथ आक्रमण करके, भारत की सेना का ध्यान भटकाना और कश्मीर घाटी को अपने अधिकार में लेना. लेकिन पाकिस्तान की यह सोच, एक बहुत भयंकर भूल थी. पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी. हमारे देश भारत की सेना ने पाकिस्तान की सेना को परास्त करते हुए, उसके बहुत बड़े क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया था. यहाँ तक की भारत की सेना लाहौर से मात्र 13 किलोमीटर दूर रह गई थी. हमारे देश की सेना बड़ी तीव्र गति से आगे बड़ रही थी, लेकिन तभी दोनों देशों के मध्य युद्धविराम की घोषणा कर दी गई.

6 कुमाऊं रेजिमेन्ट के नौजवान सैनिक गुमान सिंह ने पाकिस्तान के साथ हुए इस युद्ध में अपने युद्ध कौशल का बहुत उत्तम प्रर्दशन किया था. इसके पश्चात् गुमान सिंह अपनी रेजिमेन्ट के साथ हिमांचल प्रदेश में यौल कैम्प आ गए थे. गुमान सिंह ने अपने पाँच वर्ष के अल्प सैनिक जीवन में दो युद्धों का सामना कर चुके थे. इन युद्धों से वह और अधिक परिपक्व सैनिक बन चुके थे.

हमारे देश को भविष्य में अपनी सीमाओं की रक्षा के प्रति सतर्क व सावधान रहने की आवश्यकता महसूस हुई. सेना को शक्तिशाली व आधुनिक हथियारों से सज्जित होना आवश्यक समझा गया. इसी कड़ी में सेना में अनेक नई रेजिमेंटों का गठन किया गया. रानीखेत में कुमाऊं रेजिमेंट की एक नई 12 कुमाऊं रेजिमेंट का गठन किया गया. गुमान सिंह सन् 1966 में 6 कुमाऊं रेजिमेंट से 12 कुमाऊं रेजिमेंट में स्थानांतरित होकर चले गए. 12 कुमाऊं रेजिमेंट का यह सौभाग्य था कि गुमान सिंह जैसा आज्ञाकारी और कुशल सैनिक उनको मिल गया था.

12 कुमाऊं रेजिमेंट रानीखेत में उच्च प्रकार से स्थापित होकर देश के अनेक क्षेत्रों में गई और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए प्रत्येक स्तर में श्रेष्ठ प्रर्दशन किया. सेना की रेजिमेंटों को देश की सीमा में रक्षा के लिए तैनात रहना पढ़ता है. सीमा की रक्षा के साथ ही देश में विभिन्न प्रकार की जलवायु का सामना करने के लिए और विभिन्न प्रकार की धरातलीय प्राकृतिक बनावटों के मध्य रहने का अभ्यस्त होने के लिए वहाँ रहना पढ़ता है. सन् 1971 में जब 12 कुमाऊं रेजिमेंट नागालैंड में थी, उस समय पाकिस्तान ने अचानक हमारे देश के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया. 12 कुमाऊं रेजिमेंट अपने ब्रिगेड के साथ त्रिपुरा में उस समय के पूर्वी पाकिस्तान सीमा के निकट आ गई थी.

गुमान सिंह अपनी रेजिमेंट के आर.सी.एल. गन के विशेषज्ञ माने जाते थे. पाकिस्तान के साथ युद्ध आरंभ होने की आकंाशा के कारण गुमान सिंह को बंम्बई आर.सी.एल. गनों को लाने के लिए भेजा गया. बंबई से बड़ी कुशलता के साथ वह गनों के लेकर आए. तब तक पाकिस्तान के साथ युद्ध आरंभ हो चुका था. गुमान सिंह ने अपनी आर.सी.एल. गनों के द्वारा अचूक निशाने लगाकर पाकिस्तानी सेना के बड़े-बड़े बंकरों का विध्वंस किया. पाकिस्तान की सेना को पछाड़ते हुए 12 कुमाऊं रेजिमेंट पूर्वी पाकिस्तान के कोमिल्ला तक पहुँच गई थी. कोमिल्ला में 12 कुमाऊं रेजिमेंट ने ढाका की दिशा में जाने के लिए रणनीति तैयार की, वह अपने विजय अभियान को और अधिक आक्रमक बनाते हुए आगे बड़ते गई. 

12 कुमाऊं रेजिमेंट ने 6 दिसंबर को एंलोंटगंज में आक्रमण किया. पाकिस्तान की सेना को अत्यधिक जान-माल का नुकशान हुआ. पाकिस्तान के अनेक तोप, टैंक, गाड़ियाँ व जवान हताहत हुए और 12 कुमाऊं रेजिमेंट के चार जवान और एक जे. सी. ओ. नायब सूबेदार शंकर दत्त वीर गति को प्राप्त हुए. नायब सूबेदार शंकर दत्त को मरणोपरांत वीर चक्र अन्य चार जवानों को सेना मेडल से पुरस्कृत  किया गया. 12 कुमाऊं रेजिमेंट को एंलोंटगंज में विजय मिलने के के पश्चात् उनका विजय अभियान पूरी तैयारी के साथ और आगे अग्रसर हो गया. पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों का मुख्य केन्द्र दाउदकांदी शहर था. दाउदकांदी सेना मुख्यालय से ही पाकिस्तानी सेना को दिशा-निर्देश मिलते थे. अतः 12 कुमाऊं रेजिमेंट ने दाउदकांदी में स्थित पाकिस्तानी मुख्यालय को नष्ट करने का संकल्प लिया गया.

योजना के अनुसार 12 कुमाऊं रेजिमेंट ने दाउदकांदी को अपने फायरींग रैन्ज में ले लिया था. आर. सी. एल. टुकड़ी के कमांडर गुमान सिंह थे. उन्होंने अपने दिशा-निर्देश में, आर. सी. एल. गनों से फायर करवा कर पाकिस्तानियों के बंकर, पिलबाँक्स व अनेक महत्वपूर्ण स्थानों को तहस-नहस कर दिया था. गुमान सिंह के द्वारा आर. सी. एल. गनों का कराया गया फायर कभी व्यर्थ नही गया, हमेशा उनका पिशाना अचूक रहता था. गुमान सिंह द्वारा आर. सी. एल. गनों का फायर करने का अर्थ होता था, शत्रु की बरबादी. दाउदकांदी में पाकिस्तान की सेना को बहुत अधिक जान-माल का नुकशान हो चुका था. बाद में भारतीय सेना की तोपों ने गरजकर दाउदकांदी में आग के गोले बरसाने आरंभ कर दिए. इसके पश्चात् दाउदकांदी शहर पूरा बरबाद हो गया था.

Sena Medal

12 कुमाऊं रेजिमेंट की ब्रेबो कम्पनी ने पूरे दाउदकांदी को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया. इस वीरतापूर्ण कार्य को करने के उपरांत ब्रेबो कम्पनी के कम्पनी कमांडर को वीर चक्र तथा सैंकन्ड-इन-कमांड को मैंनसनडिस्पैच दिया गया. इसके पश्चात् 12 कुमाऊं रेजिमेंट जल और वायु मार्ग से होते हुए ढाका के निकट नारायणगंज पहुंच गई. पाकिस्तान की सेना की भारत की सेना के हाथों करारी हार हुई.

सर्वविदित है कि सन् 1971 के युद्ध में हमारा देश भारत विशाल रुप से विजयी रहा, पाकिस्तान के 90,000 से अधिक सैनिकों ने भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण किया था. गुमान सिंह अपनी रेजिमेंट के साथ पाकिस्तानी कैदियों, उनके हथियारों तथा गोला-बारुद की सुरक्षा में तैनात रहे. गुमान सिंह इस मध्य अपने सैन्य कर्म करते हुए बहुत अधिक व्यस्त रहे, इतने अधिक व्यस्त रहे कि दो वर्ष तक वह अपने घर, अपने परिवार से मिलने अवकाश तक नही जा पाए. युद्ध समाप्त होने के पश्चात् अन्य सैन्यकर्म करने के बाद गुमान सिंह अपने परिवार के पास अवकाश पर पहुँचे.

गुमान सिंह एक अनुशासित, कर्मठ और आज्ञाकारी सैनिक होने से समय-समय में सिपाही से लेकर सूबेदार, आर्डनरी कैप्टन के पद में उन्नति पाते रहे. सन् 1984 में उड़ी में एल.ओ.सी के निकट गुमान सिंह सूबेदार के पद में रहते हुए एक पोस्ट में तैनात थे. इस पोस्ट में पाकिस्तान की सात पोस्टों से फायर आता था. सीमा पार से फायरिंग में गुमान सिंह व एक जवान जयभान सिंह घायल हो गए थे. जिस कारण चिकित्सा के लिए श्रीनगर के एम.एच. में लगभग दो माह से अधिक समय तक रहे. स्वस्थ हाने के पश्चात् जवान जयभान सिंह को सेना मेडल व गुमान सिंह को कमन्डेशन कार्ड दिया गया. गुमान सिंह ने बहुत लगन के साथ अपना सेना सेवा का शेष समय बहुत स्वाभिमान के साथ व्यतीत किया. और जनवरी सन् 1990 में कैप्टन गुमान सिंह चिराल, सेवामुक्त होकर अपने घर आ गए.

संदर्भः कैप्टन गुमान सिंह चिराल वर्तमान में, इस समय वह मदकोट कस्बे में अपने परिवार के साथ स्वस्थ और वह सुखी जीवन व्यतीत कर रहे है. 87 वर्ष आयु और लम्बी-चैड़ी कद-काठी के कैप्टन गुमान सिंह लगभग जोश और आत्मविश्वास से भरपूर है. अपने सैनिक जीवन के संस्मरण कैप्टन गुमान सिंह चिराल ने लेखक को स्वयं सुनायें.

(लेखक सेना के सूबेदार पद से सेवानिवृत्त हैं. एक कुमाउनी काव्य संग्रह बाखली व हिंदी कहानी संग्रह गलोबंध, सैनिक जीवन पर आधारित ‘सिलपाटा से सियाचिन तक’ प्रकाशित. कई राष्ट्रीय पत्र—पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित.)

 

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