मंजू दिल से… भाग-31
मंजू काला
लोकजीवन की सरिता सुख और दुःख के दो किनारों के बीच निरंतर बहती रहती है. यह सही है कि लोकोत्सव सुख के तट पर उगे हरे-भरे वृक्ष हैं, जो अपनी खुराक सुख-दुःख से बँधी जलराशि से ही लेते हैं, लेकिन यह भी असत्य नहीं है कि दुःख का किनारा टूट जाने पर सरिता की अस्मिता खत्म हो जाती है और फिर वृक्षों के उगने का सवाल ही नहीं उठता. मतलब यह है कि लोकोत्सवों का जन्म जीवन की उन घटनाओं से जुड़ा हुआ है, जो सुख-दुःख पर निर्भर न होकर उनकी उपयोगिता के महत्त्व से संबद्ध हैं. राम् नवमी और जन्माष्टमी राम और कृष्ण के महत्कार्यों और लोकादर्शों को सामने रखकर मनायी जाती हैं. महापुरुषों की जयंतियाँ मृतकों के प्रति श्रद्धा -सम्मान का नैवेद्य है. मृतकों या उनकी स्मृति से जुड़ी दुःख की अनुभूति धीरे-धीरे उनके कार्यों, आदर्शों और तज्जन्य यश पर केन्द्रित होकर सुखात्मक हो जाती है. फिर इस देश की संस्कृ ति में मृत्यु मोक्ष का द्वार माना गया है. जायसी ने भी ‘नाच-नाच जिउ दीजिय’ की परम्परा को स्वीकारा था.
कृषि-युग में फसल बोने, उसकी हरियाली, समृद्धि और घर आने तक की क्रियाओं को प्रधानता देने से विभिन्न लोकोत्सवों का उदय हुआ था इसी तरह ऋतु-परिवर्तन की घटनाएँ महत्त्वपूर्ण उत्सवों का आधार बनी थीं धीरे-धीरे धार्मिकता का वैशिष्ट¬ बढ़ा और उत्सवों में धार्मिक मूल्यों का प्रवेश हुआ. धार्मिक नेताओं और कार्यों को उत्सवों का प्रमुख आधार स्वीकारा गया. सामाजिक उत्सवों की परम्परा बहुत पुरानी है और आज भी पारिवारिक या सामाजिक घटनाओं को लोकोत्सवों की प्राणशक्ति माना जाता है. वर्तमान भावात्मक और राष्ट्रीय एकता के प्रमुख साधन ये उत्सव ही हैं.
लोकोत्सव मनाने की रीतियाँ भी विविधरूपा हैं. उपवास, अनुष्ठान, पूजन, बलिदान, सहभोज, क्रीड़ा, नृत्यगीत, काव्यकथा आदि द्वारा मनाना आज भी प्रचलित है.
वात्स्यायन के कामसूत्र के अनुसार उत्सवों के दो प्रकार थे-एक सार्वजनिक, जैसे-यक्षरात्रि, कौमुदी जागर, सुवसन्तक आदि और दूसरा स्थानीय, जैसे-नवपत्रिका, उदकक्ष्वेड़िका, एकशाल्मली, यवचतुर्थी, आलोल, चतुर्थी, मदनोत्सव, पुष्पावचायिका आदि. सार्वजनिक से आशय राष्ट्रव्यापी समानता से है, जबकि स्थानीय से आंचलिक भिन्नता प्रकट होती है. कुछ उत्सव देश भर में एकरूपता बनाये हुए थे, जबकि कुछ में स्थान के अनुरूप अन्तर रहता था. कभी कुछ उत्सव प्रमुख होकर राष्ट्रीय बन जाते थे और कभी वे गौण होकर विलुप्त हो जाते थे समय -समय पर उत्सवों के स्वरूप में परिवर्तन भी होता रहता था. उदकक्ष्वेड़िका जैसा स्थानीय उत्सव धीरे-धीरे होली के राष्ट्रीय उत्सव में कैसे परिवर्तित हो गया, उसका अपना एक अलग इतिहास है. हर लोकोत्सव का एक इतिहास है और हर युग के अपने खास लोकोत्सव रहे हैं. दोनों रूपों में किसी भी अंचल के लोकोत्सवों का इतिहास लिखा जा सकता है जो तत्कालीन लोकसंस्कृति का प्रामाणिक साक्ष्य उपस्थित करने में पूर्ण सक्षम है!
हमारी संस्कृति ऐसे ही तत्वों का संगम है , यही कारण है कि यहाँ की संस्कृति की धारा प्राचीन काल से आज तक प्रवाहित हो रही है. यहाँ का आध्यात्मवाद शरीर, मन और आत्मा की अतीत लोक कलाओं के माध्यम से आज भी परिदृश्य होती है यही कारण है कि , इतने उतार-चढ़ाव के बाद भी लोक कलाएं आज भी अपने स्वरूप को सहेजे हुए हैं, ऐसी ही एक संस्कृति बुन्देली है- जिसे ध्यप्रदेश अपने हृदय स्थल में समेटे हुए है. उत्तर में यमुना, दक्षिण में विन्ध्य प्लेटों की श्रेणियाँ, उत्तर पश्चिम में चम्बल, दक्षिण पूर्व में पन्ना और आजमगढ़ के बीच के क्षेत्रों को बुन्देलखण्ड कहा है.
लोक मान्यता थी कि जिस कन्या के हाथ में जितनी गहरी मेहँदी रचेगी उसे उतना ही सुन्दर वर मिलेगा, पहले बूंदेलखंडी गाँव – में बाल गोपाल चकरी, भौरा (लट्टू) चलाते थे, कोई बांसुरी की धुन छेड़ते मिल जाता था. वहीं बालिकाएँ लाख के कंगन और “चपेटों” से खेलते मिल जाती थीं.
बुंदेलखंडी जीवन शैली वैसे तो प्रकृति से सामंजस्य की अदभुत जीवन शैली है. यहां का हर त्यौहार, प्रकृति और लोक रंजन से जुड़ा है. पर अब शायद बुंदेलखंड की इस जीवन परम्परा को भी आधुनिकता का ग्रहण लग गया है सावन की कई परम्पराए जो कभी लोगों के प्रकृति प्रेम और आपसी समन्वय और प्रेम को दर्शाती थी अब सिर्फ किस्से कहानियो तक सिमट कर रह गई हैं.
वर्षा ऋतू में जब चारों और हरियाली व्याप्त हो ऐसे में किसका मन प्रफुल्लित ना होगा, ऐसे में बुंदेलखंड के घर – घर में ऊँचे वृक्ष की डाल पर झूले डाले जाते थे – और अब किसी भूले भटके गांव में ही ये झूले और झूलों पर झूलती बालाएं देखने को मिलती हैं. सावन मास बुंदेलखंड में उल्लास व उमंग का महीना- माना जाता था, गाँव – गाँव में महिलायें और बालिकाएँ गाँव में लगे मेहँदी के पेड़ से मेहँदी तोड़ कर लाती थीं, उसे पीस कर आपस में लगाती थीं, लोक मान्यता थी कि जिस कन्या के हाथ में जितनी गहरी मेहँदी रचेगी उसे उतना ही सुन्दर वर मिलेगा, पहले बूंदेलखंडी गाँव – में बाल गोपाल चकरी, भौरा (लट्टू) चलाते थे, कोई बांसुरी की धुन छेड़ते मिल जाता था. वहीं बालिकाएँ लाख के कंगन और “चपेटों” से खेलते मिल जाती थीं.अब मेहँदी के वृक्ष बचे नहीं तो बाजार से अपनी सामर्थ्य अनुसार बालिकाएँ मेहँदी ले आती हैं , ना ही वो घूमते लट्टू रहे और ना चपेटे के साथ हंसती खिलखिलाती बनिताएं. बुंदेलखंड के नगरीय इलाकों से तो परंपराएं काफी पहले ही लुप्त हो गईं थीं. यहाँ बूंदेली गावों की एक परंपरा का जिक्र करना चाहूंगी – जो 800 वर्षों से अधिक समय से चली आ रही है और जिसे “सावनी “के नाम से लोक जानता है!
इस परंपरा के अनुसार सावन माह की शुरुआत में लड़की अपने पीहर ( मायके ) आ जाती है. रक्षा बंधन का पर्व करीब आते ही वर पक्ष सोने-चांदी की लाखियां, बच्चों के लिए कपड़े, मिठाई के रूप में शक्कर से बनी खड़पुरी, खिलौने -जिनमें बांसुरी (अलगोजा), पुतरा (गुड्डा) , पुतरिया ( गुड़िया), चकरी, भौंरा ( लट्टू) , पपीरी ( सीटी ) एवं श्रृंगार सामग्री के अलावा लकड़ी के बने “सौंटा” जिन्हें रंगऊआ भी कहते हैं- विशेष तौर पर भेजे जाते हैं. सावनी में आए हुए खिलौने एवं अन्य सामग्री को घर के आंगन में तख्त या पलंग (बड़ी चारपाई ) पर सजा कर रख दिया जाता है जिसे देखने के लिए मोहल्ले व गाँव के लोगों को बुलाया जाता है. इन लोगों द्वारा यह आकलन भी किया जाता है कि ससुराल पक्ष से किस स्तर की “सावनी “आई है ताकि उसी के मुताबिक वर पक्ष की विदाई की जा सके!
सावनी लेकर आए व्यक्तियों की जमकर खातिरदारी की जाती है. दरअसल, यह परंपरा एक तरह के दोनों पक्षों में घनिष्ठता के साथ सामाजिक व पारिवारिक ताने-बाने को मजबूती प्रदान करती है. इस परंपरा के माध्यम से वर-वधू पक्षों के मध्य न सिर्फ आपसी प्रेम बढ़ता है बल्कि इस प्रथा से यह बल मिलता है कि वर पक्ष का, वधू पक्ष से केवल लेने मात्र का नहीं बल्कि देने का भी रिश्ता है.
बुंदेलखंड में रस्मों के साथ हंसी खुशी के बहाने भी ढूंढ लिए जाते हैं. ठीक इसी तरह सावनी के खिलौने एक तरफ और चिक्क बाबा एक तरफ, “बुंदेलखंड से बाहर के लोगों ने शायद “चिक्क बाबा “खिलौने का नाम ही नहीं सुना होगा.” चिक्क बाबा” को “डब्बा का बब्बा “भी कहते हैं. यह चौकोर पतली लकड़ी से बना होता है और इसके बीचों -बीच मोटे स्प्रिंग का लाल , पीला ,चौंगा ( पेटीकोट ) टाइप का पहनाकर ऊपरी हिस्से पर चेहरा, सफेद दाढ़ी लगाकर ऊपर से चौकोर तख्ती से बंद कर दिया जाता है , जब उसे खोलते हैं तब चिक्क की आवाज के साथ बब्बा तेजी से ऊपर आ जाता था. यह बब्बा ‘समधी ‘का प्रतीक होता है जिसे खासतौर पर ‘समधन’ के लिए भेजा जाता है.
ससुराल पक्ष से भेजी गई राखी को बहन अपने भाइयों की कलाई में बांध कर “खड़पुरी “खिलाकर उनका मुंह मीठा करातीं हैं. सावनी लेकर आए व्यक्तियों की जमकर खातिरदारी की जाती है. दरअसल, यह परंपरा एक तरह के दोनों पक्षों में घनिष्ठता के साथ सामाजिक व पारिवारिक ताने-बाने को मजबूती प्रदान करती है. इस परंपरा के माध्यम से वर-वधू पक्षों के मध्य न सिर्फ आपसी प्रेम बढ़ता है बल्कि इस प्रथा से यह बल मिलता है कि वर पक्ष का, वधू पक्ष से केवल लेने मात्र का नहीं बल्कि देने का भी रिश्ता है.
आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम सब प्रकृति से अलग हो गए हैं. गाँव के घरो में लगे पेड़ कट गए, गाँव में लगे कुछेक वृक्ष किसी ना किसी की बपौती हो गए, उस पर उनके घर के लोगों के अलावा दूसरा कोई जा नहीं सकता. इस तरह से झूला की परम्परा समाप्त हो गई. “लट्टू” और “चकरी” पहले गाँव का बढ़ई बना दिया करता था फिर ये बाजार में मिलने लगे, अब ये बाजार में भी नहीं मिलते. बांसुरी की तान बांस से बनी बांसुरी से ही आ सकती है, उसका स्थान प्लास्टिक ने ले लिया है.
कहते हैं की महोबा के राजा परमाल ने अपने पुत्र की ससुराल में सावन के महीने में खिलौने, कपडे़, राखियाँ, मिठाई और उपहार भेजे थे तभी से सावनी की परम्परा बुंदेलखंड में शुरु हो गई थी. बाजारवाद के चलते सावनी की प्रथा भी बाजारवाद की चपेट में आ रही है. बच्चों के चेहरे पर मुस्कान व महिलाओं की बेसब्री बढ़ाने वाली इस परंपरा के बदले में लोग सावनी के बदले सीधे नकद रुपए भी भेजने लगे हैं. इसके पीछे व्यस्तता का बहाना बनाया जाता है. हालांकि, गांवों व कस्बों में अभी भी सावनी भेजने का रिवाज बदस्तूर जारी है.
लोकजीवन की इन परम्पराओ की समाप्ति के पीछे का जो मुख्य कारण है- वह है, आधुनिकता. आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम सब प्रकृति से अलग हो गए हैं. गाँव के घरो में लगे पेड़ कट गए, गाँव में लगे कुछेक वृक्ष किसी ना किसी की बपौती हो गए , उस पर उनके घर के लोगों के अलावा दूसरा कोई जा नहीं सकता. इस तरह से झूला की परम्परा समाप्त हो गई. “लट्टू “और” चकरी” पहले गाँव का बढ़ई बना दिया करता था फिर ये बाजार में मिलने लगे, अब ये बाजार में भी नहीं मिलते. बांसुरी की तान बांस से बनी बांसुरी से ही आ सकती है, उसका स्थान प्लास्टिक ने ले लिया है. “चपेटा “जरूर खेला जाता है पर बहुत कम -क्योंकि लोगों को अब टीवी से ही फुर्सत नहीं मिलती!
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)