डॉ विजया सती दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज से हाल में ही सेवानिवृत्त हुई हैं। इससे पहले आप विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी – ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी – हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रहीं। साथ ही महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। विजया सती जी अब ‘हिमाँतर’ के लिए ‘देश-परदेश’ नाम से कॉलम लिखने जा रही हैं। इस कॉलम के जरिए आप घर बैठे परदेश की यात्रा का अनुभव करेंगे।
देश—परदेश भाग—1
- डॉ. विजया सती
जनवरी के कुछ बचे हुए अंतिम दिन थे, जब लोहड़ी-मकर-सक्रांति-छब्बीस जनवरी की धूम के बाद गजक-रेवड़ी की कुछ खुशबू अपने साथ लिए मैं यूरोप के सर्द इलाके बुदापैश्त पहुँची, जो हंगरी की राजधानी और यूरोप की प्रसिद्ध पर्यटन नगरी है.
यह अवसर ‘भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद’ के सौजन्य से मिला. बुदापैश्त के विख्यात ‘ओत्वोश लोरान्द विश्वविद्यालय’ के भारोपीय अध्ययन विभाग में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में प्रतिनियुक्ति पर मुझे भेजा गया था.
नए देश के नए शहर में प्रवेश करने से पहले ही यात्रा-क्रम में मास्को एयर पोर्ट पहुँचने पर यह घोषणा सुनी – ‘बाहर का तापमान माइनस सत्रह है और बर्फबारी जारी है !’ बुदापैश्त में प्रवेश करते ही देखा कि सभी जगह किनारे-किनारे पर समेटी गई बर्फ जमा है, तापमान भी शून्य से नीचे.
मुझे बताया गया कि वातानुकूलित फ़्लैट में मैं गर्म कपड़ों के बोझ को उतार कर नियत स्थान पर बनी खूँटी पर टांग दूं और सहज ह़ो जाऊं. फ़्लैट पूरी तरह सज्जित यानी ‘फुली फर्निश्ड’ था. गृह-स्वामिनी से घर की पूरी व्यवस्था को समझा. जल्दी ही इन्होंने भी विदा ली.
भारतीय दूतावास के सौजन्य से उपस्थित प्रथम सचिव महापात्र जी और सांस्कृतिक सचिव मोहन जी के सान्निध्य में उस फ़्लैट पर पहुँची जो विश्वविद्यालय ने मेरे रहने के लिए तय किया था. वहां भारोपीय अध्ययन विभाग की अध्यक्षा मारिया नेज्येशी फ़्लैट स्वामिनी श्रीमती मेरेंयी के साथ मौजूद थी. श्रीमती मेरेंयी के सिवा सभी हिन्दी में बात करते रहे. जल्दी ही दूतावास अधिकारियों ने हर तरह के सहयोग का आश्वासन देते हुए विदा ली.
अब आरम्भ हुआ नई जीवनचर्या का पहला पाठ. मुझे बताया गया कि वातानुकूलित फ़्लैट में मैं गर्म कपड़ों के बोझ को उतार कर नियत स्थान पर बनी खूँटी पर टांग दूं और सहज ह़ो जाऊं. फ़्लैट पूरी तरह सज्जित यानी ‘फुली फर्निश्ड’ था. गृह-स्वामिनी से घर की पूरी व्यवस्था को समझा. जल्दी ही इन्होंने भी विदा ली.
मारिया जी बहुत-सा घरेलू सामान यहाँ लेकर आई थी. यह भारत से आते हुए ही तय हुआ था कि मुझे तुरंत किस वस्तु की जरूरत होगी. वह सब मारिया जी के सौजन्य से यहाँ है – दूध, पानी की बोतल, तेल, चीनी, नमक, जाम, कुछ सब्जियां,.. आज के लिए सब सुविधा पूर्ण. कुछ आटा, दाल और चावल मेरे पास है जिससे परदेश में पहली रात भारतीय भोजन बनाना सम्भव हो सका.
अगले दिन दूतावास में सांस्कृतिक सचिव श्री मोहन जी के यहाँ दोपहर के भोजन का निमंत्रण था. मारिया जी के साथ उनकी कार से यात्रा की – यहाँ का कोई रास्ता अभी मैं नहीं जानती. विभाग के कुछ छात्र भी निमंत्रित थे. इनमें क्रिस्टीना मन्नू भंडारी की कहानियों पर शोध-पत्र लिख रही है, वह भारत जाने पर मन्नूजी से मिलकर आई है. पेतैर ‘मोहन राकेश की कहानियों में महिला पात्र’ विषय पर आगामी सत्र से अपना शोध पत्र लिखेगा. ओर्शी भारत से हिन्दी के अतिरिक्त संगीत और नृत्य भी सीख कर आई है. सभी हिन्दी में संवाद कर रहे हैं, पेतैर भारतीय परिधान कुर्ता-पजामा पहन कर आया है.
ओत्वोश लोरांद (1848-1919) अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भौतिक विज्ञानी थे, उन्हीं के नाम पर विश्वविद्यालय को यह नाम 1950 में मिला. आज जिस विश्वविद्यालय में तीस हज़ार से भी अधिक छात्र पढ़ते हैं, उस विश्वविद्यालय में पहले केवल दो संकाय थे – धर्मशास्त्र और कला संकाय. फिर विधि संकाय बना. 1769 में यहां मेडिकल फैकल्टी बनी. अब इसमें सत्तर से अधिक संकाय और उनसे जुड़े कई संस्थान हैं.
जनवरी ३१ को भारतीय दूतावास में उपस्थिति दर्ज की. राजदूत महोदय हिन्दी प्रेमी साहित्यिक श्री गौरी शंकर गुप्ता जी हैं. तीस जनवरी को अवकाश होने के कारण आज दूतावास के सभी कर्मी राजदूत महोदय के कक्ष में उपस्थित हुए और भारत की ही तरह तीस जनवरी की सुबह रखा जाने वाला दो मिनट का स्मृति मौन रखा गया.
दूतावास की ओर से विभाग तक पहुंचाने की व्यवस्था थी, सो आराम से वहाँ पहुंची.
विश्वविद्यालय के कला और मानविकी खण्ड में भारोपीय अध्ययन विभाग में पहली मन्जिल पर मारिया जी और चार अन्य सहयोगियों के कक्ष हैं – डॉ देजो चबा, डॉ इत्जिश माते, डॉ गेर्गेई हिदास और डॉ किश चबा. ये सभी इसी विभाग के स्नातक हैं. डॉ माते ने इसी विश्वविद्यालय से पीएचडी किया है तथा शेष सभी ने ऑक्सफोर्ड से डीफिल किया है. इनसे मेरा पहला परिचय हुआ. अब यहीं मेरा भी एक कमरा है, बाहर नाम के साथ लिखा है – ‘इन्दियाई लेक्तोर’ यानी भारत से अतिथि प्रोफेसर.
फरवरी 2011
पहली फरवरी को मारिया जी के साथ हुई बैठक में विभाग में किए जाने वाले अध्ययन की रूपरेखा पर लंबी बातचीत हुई. मैंने जाना कि यहाँ विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए उपयोगी सामग्री और विषय मुक्त भाव से चुन लिए जाते हैं, कोई पाठ्य-पुस्तक नहीं है. हमने विभाग के पुस्तकालय में उपलब्ध पुस्तकों में से विद्यार्थियों के लिए सहायक पुस्तकों की सूची का चयन किया. मारिया जी ने एक सीडी और तीन ब्रोशर दिए जो विश्वविद्यालय के विषय में पूरी जानकारी देते हैं. उनसे मैं यह जान पाई कि ओत्वोश लोरांद विश्वविद्यालय, जिसे संक्षेप में ऐलते विश्वविद्यालय कहते हैं, बुदापैश्त का बड़ा और पुराना विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना 1635 में हुई.
ओत्वोश लोरांद (1848-1919) अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भौतिक विज्ञानी थे, उन्हीं के नाम पर विश्वविद्यालय को यह नाम 1950 में मिला. आज जिस विश्वविद्यालय में तीस हज़ार से भी अधिक छात्र पढ़ते हैं, उस विश्वविद्यालय में पहले केवल दो संकाय थे – धर्मशास्त्र और कला संकाय. फिर विधि संकाय बना. 1769 में यहां मेडिकल फैकल्टी बनी. अब इसमें सत्तर से अधिक संकाय और उनसे जुड़े कई संस्थान हैं.
इस विभाग की स्थापना 1873 में ही ह़ो गई थी. 1952 में इसका पुनर्गठन हुआ. 1956 में विभाग में इंडोलोजी औपचारिक विषय के रूप में परिचित किया गया. आज से साठ वर्ष पहले भारोपीय अध्ययन विभाग में समसामयिक भारतीय अध्ययन विशेषत: हिन्दी का अध्यापन आरम्भ हुआ.
कला संकाय और इंस्टीट्यूट ऑफ़ एंशियेंट एंड क्लासिकल स्टडीज़ के अंतर्गत आता है – डिपार्टमेंट ऑफ़ इंडो यूरोपियन स्टडीज़ अर्थात भारोपीय अध्ययन विभाग – जिसमें हिन्दी तथा संस्कृत भाषा पढाई जाती है.
इस विभाग की स्थापना 1873 में ही ह़ो गई थी. 1952 में इसका पुनर्गठन हुआ. 1956 में विभाग में इंडोलोजी औपचारिक विषय के रूप में परिचित किया गया. आज से साठ वर्ष पहले भारोपीय अध्ययन विभाग में समसामयिक भारतीय अध्ययन विशेषत: हिन्दी का अध्यापन आरम्भ हुआ.
भारतीय साहित्य के हंगेरियन अनुवाद की समृद्ध परम्परा बहुत लम्बे समय से यहाँ विद्यमान रही. पंचतंत्र, हितोपदेश, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवतगीता, कालिदास की रचनाएं तथा भारतीय धर्म, दर्शन और कला पर बहुत सी सामग्री अनुवाद के रूप में यहाँ बहुत पहले से उपलब्ध है, भले ही वे अनुवाद अन्य भाषाओं के ग्रंथों से किए गए हों. रवीन्द्र नाथ ठाकुर 1926 में यहाँ आए, उनके आने से पहले ही उनकी कविताओं का अनुवाद यहाँ हो चुका था.
विभाग में बीस से अधिक छात्र-छात्राएं बी.ए. स्तर पर हिन्दी का अध्ययन कर रहे थे. एक छात्र एम.ए. हिन्दी में था. पहले विभाग में डिप्लोमा इन इंडोलोजी कोर्स था, वह एम.ए. के समकक्ष था. 2006-07 से बी.ए.और एम.ए, (हिन्दी,संस्कृत) कोर्स आ गया.
फरवरी 2011 : मेरी कक्षाएं
हिन्दी के प्रति एक विशेष दृष्टि और समझ रखने वाले इस परिवेश में हिन्दी पढ़ाना मेरे लिए जीवन का एक सर्वथा नया अनुभव बन गया. भारत में साहित्य के उस विद्यार्थी को हिन्दी पढ़ाना एक अलग अनुभव है जिसकी मातृभाषा हिन्दी है. पर जो विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी सीखते हैं, उनके साथ अनुभव बदल जाता है. उन्हें हम केवल अपनी भाषा ही नहीं सिखाते बल्कि उनसे अपने देश की संस्कृति, रीति-रिवाज़, रहन-सहन और मूल्यों-मान्यताओं की बात भी सहज ही करते हैं. यहाँ भाषा केवल शाब्दिक संवाद न रह कर एक दूसरे के देश के भौगोलिक विस्तार, खान-पान, पहनावा, त्यौहारों,पर्वों मान्यताओं और परम्पराओं को जानने का साधन बन जाती है..
किसी शायर ने कहा है – “बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी”. ठीक उसी अंदाज़ में यहां भाषा शिक्षण होता है. कभी किसी एक शब्द विशेष से ही माहौल निर्मित हो जाता है. कक्षा में एक प्रिय संवाद की स्थिति सदा बनी रहती है. हम उनके बारे में और वो हमारे बारे में जानते चलते हैं.
जैसे एक दिन हमने त्यौहारों की बात की, होली दिवाली के साथ ईद की चर्चा भी हुई. ईद की बात हो और ईदगाह कहानी का ज़िक्र न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? ईदगाह कहानी के माध्यम से न केवल एक भारतीय कहानीकार प्रेमचंद का परिचय इन विदेशी छात्र-छात्राओं को मिला, बल्कि अगली कड़ी के रूप में भारत के साम्प्रदायिक सद्भाव का ज़िक्र भी हुआ. इस कहानी में एक सम्प्रदाय विशेष द्वारा मनाए जाने वाले त्यौहार के बारे में घर-बाहर की हलचल के बारीक ब्यौरे जिस तरह से दिए गए हैं, वे दुनिया के किसी भी कोने की मानवीय संवेदना को छूने में समर्थ हैं.
कक्षा में कथाकार प्रेमचंद की बात हुई, उनकी कहानियों-उपन्यासों की चर्चा हुई. फिर यह प्रसंग उठा कि प्रेमचंद की ही तरह का लेखन करने वाले हंगरी के किसी लेखक के बारे में वे भी बताएं. तब हमने हंगरी के प्रसिद्ध लेखकों मोरित्ज़ जिग्मोंद और कालमान मिक्साथ के विषय में जाना.
भाषा के माध्यम से देश को जानना और देश से साहित्य तक जाने का यह पथ भावना पूर्ण था. सबसे बड़ी बात यह थी कि यह सब सहज ही होता चला गया, कोई रूपरेखा नहीं थी, कोई पाठ्य-पुस्तक नहीं थी.
मेरी कक्षाएं : मार्च 2011
बुदापैश्त में साहित्य के स्थान पर सरल संवादों के माध्यम से अपनी भाषा को नए सिरे से पहचानना विशिष्ट था.
एक दिन कक्षा में लोककथाओं की बात हुई. दोनों ही देशों की लोककथाएं राजा-रानी के साथ-साथ प्राय: किसी लकड़हारे की बात भी करती हैं. यह समानता भी मिली कि जो लकड़हारा बहुत गरीब था, वह मन का अच्छा होने के कारण अमीर बना और सुख से रहने लगा. फिर यह समानता भी मिली कि जो पात्र बुरा था, वह मन का अच्छा न होने के कारण अमीर से गरीब हुआ और उसने दुःख में दिन काटे.
जब बात लकड़हारे की हुई तो फिर दोनों देशों में तरह-तरह के काम करने वाले कारीगरों की बात भी हुई. हमारी बातचीत में सब आ बैठे – वह कुम्हार जो मिट्टी के बर्तन बनाता है, वह लोहार जो लोहा पीटता है, फिर आए जनाब हलवाई और उनकी बनाई मिठाई, उस बढ़ई की भी चर्चा हुई जिसकी बनाई कुर्सी पर हम बैठे थे ! तो इस तरह बहुत दिन से भूले हुए इतने सारे कारीगर हमारी स्मृति में आए और इनके माध्यम से भारत साकार हुआ, मेरे लिए सुखद अनुभव इसलिए भी था क्योंकि मैं अपने देश से बहुत दूर थी, जहां इतना हुनर है, पर सर्वथा उपेक्षित.
मार्च 2011 : मेरी कक्षाएं
आने वाले समय की कक्षाओं में धीरे-धीरे यह जानना बहुत रोचक लगता रहा कि हंगेरियन भाषा के कुछ शब्द न केवल उच्चारण बल्कि अर्थ की दृष्टि से भी हिन्दी के बहुत निकट हैं. जैसे उनका कुथ्या हमारा कुत्ता है, उनका त्सुकोर हमारा शक्कर है. वे जिसे येब कहते हैं वह हमारी जेब है. जो हमारा थाल है, वह इनका ताल है, इनका नेम हमारा नहीं है. अर्थ और उच्चारण की यह निकटता विद्यार्थियों को भी आह्लादित करती. दो देश कितनी सरलता से एक-दूसरे निकट आ गए !
बुदापैश्त में हिन्दी का अध्यापन शुरू करने से पहले ही चार फरवरी को भारतीय दूतावास के सांस्कृतिक केन्द्र में विभाग द्वारा “विश्व हिन्दी दिवस” आयोजित किया गया. उस अवसर पर प्रस्तुत मेरी कविता की पंक्तियां भाषा की उस ताकत को ही दर्शा रही थी, जो मनुष्य को मनुष्य और समाज से सहज ही जोड़ देती है :
पहले ही दिन से महसूस नहीं हुआ
कि अपने देश और परिवेश से
इतनी दूर चली आई हूं !
शायद यह भाषा ही थी
कि मैं सहज भाव से
इस देश और परिवेश से जुड़ गई.
मारिया में मीरा की झलक
क्रिस्तीना में कृष्णा
और ओरशी …मुझे उर्वशी ही तो लगी.
शायद नहीं यह सचमुच भाषा ही थी
जिसने मुझे पहले ही दिन से
अकेला नहीं होने दिया !
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज की सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर (हिन्दी) हैं। साथ ही विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी – ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी – हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रही हैं। कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं।)
यह हमारे लिए अत्यन्त हर्ष का विषय है कि madam Dr Vijay Sati अब हिमंतार के लिए देश परदेश नाम से कालम लिखने जा रही है ।
यह व्यक्ति की सोच , आत्मगौरव, सम्मान एवं पहचान से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास सिद्ध होगा ।
मेरे विचार से राजभाषा हिंदी से प्रेम करना भी देशभक्ति की अभिव्यक्ति हैं।
मैं ऐसी कामना करता हूं कि यह प्रयास समस्त भारतीयों को एक सूत्र में बांधने में सक्षम रहे
राजेन्द्र दुग्गल
चीफ इंजीनियर ईस्ट दिल्ली कॉर्पोरेशन
हार्दिक धन्यवाद !
आपके सुंदर विचारों के साथ हूं मैं !
आभार