बुदापैश्त डायरी-14
- डॉ. विजया सती
ग़म-ए-ज़िदगी तेरी राह में, शब-ए-आरज़ू तेरी चाह में
………………………..जो बिछड़ गया वो मिला नहीं !
बुदापैश्त
शान्दोर कोरोशी चोमा के लिए हम यही कह सकते हैं!
बुदापैश्त जाकर इन्हें जानना संभव हुआ क्योंकि हंगेरियन इंडोलोजी के इतिहास में कोरोशी चोमा का काम मील का पत्थर माना जाता है.बुदापैश्त
ट्रांससिल्वानिया, (अब रोमानिया में) के कोरोश
गाँव में जन्मे चोमा ने अध्ययन के दौरान बहुत सी भाषाओं पर अच्छा अधिकार पाया, इनमें मुख्य थीं- ग्रीक और लैटिन, हिब्रू, फ्रेंच, जर्मन और रोमानियन भी. चोमा ने तुर्की और अरबी भाषा भी सीखी. अपने भारत प्रवास में चोमा ने संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं पर भी अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयास किया.बुदापैश्त
एक समय उनकी दिलचस्पी हंगेरियन लोगों के मूल स्थान की खोज में हुई. भाषिक संबंधों के आधार पर इस
काम को अंजाम देने के विचार से वे एशिया की यात्रा पर निकल पड़े.बुदापैश्त
1822 में लाहौर, अमृतसर और जम्मू होते
हुए कश्मीर की यात्रा की. वे सुबाथू पहुंचे जहां उन्हें ब्रिटिश अधिकारी विलियम मूर क्रॉफ्ट मिले. मूर क्रॉफ्ट से उन्हें तिब्बत पर पहली पुस्तक मिली और तिब्बती भाषा के अध्ययन के लिए प्रेरणा भी.चोमा ने आशा की कि वे तिब्बती
साहित्य में हंगेरियन प्राचीन इतिहास की जानकारी पा सकेंगे – इसलिए कठिन स्थितियों में रहकर उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी.बुदापैश्त
वे एक गाँव में छोटी सी झोंपड़ी में रहते
थे, किताबों से घिरे. एक गरीब विद्यार्थी की तरह, वे जहां पहुंचे वहीं के निवासियों की तरह जीवन शैली को अपनाने की कोशिश की.बुदापैश्त
चोमा ने बताया कि किस
तरह वे एक शोधार्थी के रूप में हंगेरियन लोगों और भाषा के मूल को जानने निकले थे, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण हमेशा दूसरों की मदद पर निर्भर रहे और संभवत: इसी कारण तिब्बती अध्ययन की ओर प्रवृत हुए.
बुदापैश्त
चोमा ने महाव्युत्पत्ति नामक
संस्कृत-तिब्बती शब्दकोश पर विचार प्रकाशित किए. 1834 में उन्होंने तिब्बती भाषा का पहला व्याकरण और तिब्बती-अंग्रेज़ी शब्दकोश प्रकाशित किया.बुदापैश्त
इसकी भूमिका में चोमा ने बताया कि
किस तरह वे एक शोधार्थी के रूप में हंगेरियन लोगों और भाषा के मूल को जानने निकले थे, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण हमेशा दूसरों की मदद पर निर्भर रहे और संभवत: इसी कारण तिब्बती अध्ययन की ओर प्रवृत हुए.बुदापैश्त
1842 में वे तिब्बती राजधानी ल्हासा पहुंचे. अपना लक्ष्य पाने की आकांक्षा से वे दार्जिलिंग आ गए. लेकिन यहीं वे बीमार हुए, कई दिनों तक बुखार में रहे. यात्रा करते हुए, जंगलों में भटकते हुए मलेरिया की जो बीमारी उन्हें मिली थी, उसी से उनका निधन दार्जिलिंग में हो गया.
बुदापैश्त
आज भी दार्जिलिंग में वह स्मृति-स्तूप मौजूद
है जो प्रत्येक हंगरी निवासी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने को प्रेरित करता है …..ग़म-ए-ज़िदगी की राह में इस तरह बिछड़े शांदोर कोरोशी चोमा.. किन्तु उनका नाम अमर है !
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के
हिन्दू कॉलेज की सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर (हिन्दी) हैं। साथ ही विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी – ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी – हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रही हैं.कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं.)