डॉ विजया सती दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज से हाल में ही सेवानिवृत्त हुई हैं। इससे पहले आप विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी – ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी – हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रहीं। साथ ही महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। विजया सती जी अब ‘हिमाँतर’ के लिए ‘देश-परदेश’ नाम से कॉलम लिखने जा रही हैं। इस कॉलम के जरिए आप घर बैठे परदेश की यात्रा का अनुभव करेंगे।
देश—परदेश भाग—2
- डॉ. विजया सती
यूरोप के केन्द्र में जागते हुए से इस देश हंगरी की राजधानी बुदापैश्त में पहुंचे दो महीने से अधिक हो गए. इतना समय बीत जाने तक भी, अभी बहुत कुछ नया, अनपहचाना, अनजाना, अपरिचित सा ही लगता.
अप्रैल के अंत और वसंत के आरम्भ में मौसम कई करवटें लेने लगा. कभी तेज धूप, कभी सर्द हवा और कभी हल्की बारिश होने लगती. अब बर्फ से सूखे पेड़ों पर हरियाली आने लगी. फूल भी अनेक रंगों में मुस्कुराने लगे. सुबह पंछियों का स्वर भी कानों में पड़ता, ठीक है कि वह “खग कुल कुल सा बोल रहा” की समता नहीं कर पाता था. इक्का-दुक्का पंछी ही देख पाई थी अब तक.
दो सर्द महीने बीतते न बीतते, धीरे-धीरे सब कुछ इतना अनजाना-अनपहचाना सा न रहा. अनुभव होता कि वैसी ही तो सड़कें हैं, जैसी अपने देश में, वैसा ही लोगों का आना-जाना, वैसे ही सामानों से बाज़ार पटे हैं. और हाँ, भाषा भी अब उतनी पराई नहीं लगती. पहला ही शब्द बहुत सकारात्मक कानों में पड़ा. मेट्रो स्टेशन से बाहर आते समय एस्केलेटर पर साथ खड़ी सुन्दर लड़की दोहराती चली जा रही थी – इगेन इगेन इगेन. विभाग आते ही पहला काम किया – सोतार यानी शब्दकोश देख कर अर्थ जाना. इगेन का अर्थ था – हां. शुरुआत अच्छी है, मन ने संतुष्ट हो कर कहा.
इस शहर के बीच दुना नदी बहती है. यह डैन्यूब है – पर ट ड ढ जैसी कठोर ध्वनियां यहाँ नहीं हैं. इसलिए यह तो दुना है. जैसे छुट्टी नहीं छुत्ती, डैनियल नहीं दानियल. तो दुना के एक ओर है मैदानी इलाका पैश्त. दूसरी ओर है छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा इलाका बुदा. पैश्त में अधिकांश फ्लैट्स हैं, अधिक आबादी भी है. बुदा में फलों के पेड़ और घास के लॉन सहित बंगले हैं – अपेक्षाकृत शांत-एकांत.
दुना पर कई पुल हैं – मारगित पुल, एलिजाबेथ पुल, पेतोफी पुल.
लेकिन नहीं, पुल केवल दुना पर ही नहीं है. यहाँ मेरे लिए भाषा भी एक पुल है. इस भाषाई पुल से होकर मैं अपने विद्यार्थियों तक पहुँच पा रही हूँ. और वे भी मुझ तक आ रहे हैं. मैं उनका कहा समझ पाती हूं, अपना कहा समझा पाती हूँ. यह भाषा का पुल एक बहुत बड़ी नियामत है. इसमें ‘अपना कहा आप ही समझे तो क्या समझे’ की पीड़ा नहीं है. यह पुल बहुत जीवंत है. संवादों की हलचल से भरा.
इस कक्षा में हमने भारत के परिवेश की बात की – पेड़- पौधे, नदी-पहाड़, समुद्र और शहर. और फिर हंगरी के पेड़-पौधों नदियों-पहाड़ों,समुद्र और शहरों को भी जान लिया. हिन्दी भाषा में पाठ्य पुस्तक तैयार हो गई – बुदापैश्त दर्शन !
विदेश में हिन्दी का संग–साथ
दूर देश में सारी जीवन्तता हिन्दी भाषा की ही देन थी – बिन हिन्दी सब सून !
विभाग में एक कक्षा थी – देश परिचय. भाषा के साथ भारतीय रहन-सहन, रीति-रिवाज़, खान-पान, पहरावे, नृत्य-संगीत-कलाओं के परिचय की कक्षा. इस कक्षा ने मुझे उस देश के बारे में यही सब जान लेने का सुखद अनुभव दिया जहां मैं अतिथि थी. इस कक्षा में हमने भारत के परिवेश की बात की – पेड़- पौधे, नदी-पहाड़, समुद्र और शहर. और फिर हंगरी के पेड़-पौधों नदियों-पहाड़ों,समुद्र और शहरों को भी जान लिया. हिन्दी भाषा में पाठ्य पुस्तक तैयार हो गई – बुदापैश्त दर्शन ! वे गंगा और हिमालय के बारे में जानते और मैं तीसा नदी और कार्पाथ पर्वत श्रृंखलाओं के बारे में. वे बनारस की सैर करते और मुझे ले जाते कला की नगरी पेच.
यह समस्त संवाद भारोपीय अध्ययन विभाग की भित्ति-पत्रिका ‘प्रयास’ (htpp://elteprayashi.blogspot.hu) के ग्रीष्म,वसंत, शरद अंकों की आधार-सामग्री बन जाता – एक पंथ दो ही काज क्यों – यहाँ तो तीन काज होते !
अपने विभाग में जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह थी छात्र-छात्राओं के समक्ष हिन्दी साहित्य की रचनाओं के परिचय और पाठ की योजना. उन्हें प्रेमचंद की कहानियां ठाकुर का कुआं और ईदगाह, प्रसाद की छोटा जादूगर, शैलेश मटियानी की रची कहानी ‘उसने तो नहीं कहा था’, असगर वजाहत के आत्मकथ्य का ‘तख्ती’ शीर्षक भाग और गांधी जी आत्मकथा से ‘आखिर पहुँच ही गया विलायत’ जैसे अंश पढ़ाए गए. उदय प्रकाश की तीन कहानियां – अपराध, नेल कटर और टेपचू हमने चुनी, छात्रों ने उनका आशु अनुवाद किया – कहानियों के सूक्ष्म ब्यौरों से वे बहुत प्रभावित हुए.
भारतीय जीवन मूल्य से उनकी पहचान का यह एक नया पथ था जो इस कहानी के आँगन से होकर निकला. ईदगाह कहानी ने उनके मन के तारों को ऐसा झंकृत किया कि उसकी परिणति विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर कहानी के मंचन में हुई.
छात्रों के सम्मुख भारत की छवि को साकार करना और उनकी तमाम जिज्ञासाओं का उत्तर देना भी हमारा लक्ष्य होता. कई तरह के सवाल हमारे सामने आते. जैसे खाप पंचायत के सन्दर्भ में यह प्रश्न सामने आया – क्या भारत में प्यार करने पर मार भी दिया जाता है? ‘ठाकुर का कुआं’ कहानी के सन्दर्भ में यह जिज्ञासा उठी कि गंगी इतनी बदनसीब क्यों है कि ठाकुर के कुँए से पानी भी न भर सके?
जैनेन्द्र की कहानी ‘पत्नी’ को लेकर छात्र बहुत व्यग्र थे – वे हरपल नायिका सुनंदा के इस मनोभाव को समझना चाहते थे कि कैसे एक ही समय में सुनंदा अपने पति पर क्रोध भी कर रही है और उसी पति के प्रति समर्पित भी है ! भारतीय जीवन मूल्य से उनकी पहचान का यह एक नया पथ था जो इस कहानी के आँगन से होकर निकला. ईदगाह कहानी ने उनके मन के तारों को ऐसा झंकृत किया कि उसकी परिणति विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर कहानी के मंचन में हुई.
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज की सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर (हिन्दी) हैं। साथ ही विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी – ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी – हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रही हैं। कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं।)