उसके साथ से मैंने सीखा लिखना… और प्यार को भूलना…

रूसी साहित्यकार मारीना के व्यक्तित्व और कृतित्व को पूरे जीवनवृत्त के साथ अब किताब ‘मारीना’ में पढ़ा जा सकता है. पाठकों के लिए यह किताब हिन्दी में आई है. कवयित्री, लेखिका, स्तम्भकार और शिक्षा के सरोकारों से जुड़ी प्रतिभा कटियार ने एक अलग अंदाज़ में मारीना को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है. पाठक सहजता से बीते 130 साल की यात्रा कर लेता है. हालांकि मारीना का देहांत 1941 में because हो गया था. किताब आल्या के बहाने 1975 की यात्रा कर लेता है. आल्या मारीना की पहली संतान थी. फिर भी पाठक स्वंय प्रतिभा के लिखे बुकमार्क के ज़रिए किताब के अंत तक मौजूदा दौर से स्वयं को जोड़कर रखता है.

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मैं इसे महज जीवनी की किताब नहीं लिखना चाहूंगा. जीवनी विधा में लिखी गई अक्सर किताब में तथ्य अधिक होते हैं. व्यक्ति के बारे में लेखक जन्म से लेकर की मृत्यु की तथ्यात्मक यात्रा के साथ उसके बचपन, युवा because और प्रौढ़ता के बारे में लिखता है. उसकी उपलब्धियाँ दर्ज़ होती है. कह सकता हूँ कि सूचनात्मक जानकारी से इतर वहाँ संवेदनात्मक स्तर प्रायः कम होता है. लेकिन ‘मारीना’ इस लिहाज से अलग है. मारीना की लिखी कविताएँ हैं. मारीना से जुड़े पारिवारिक और सामाजिक मित्रों के पात्र इस किताब में चलते-फिरते नज़र आते हैं. मानवीय संवेगों के विविधता भी यहाँ खूब हैं. यह किताब कभी कहानी-सी विधा में यात्रा कराने लगती है. कभी लगता है कि पाठक उपन्यास में डूबा है तो कभी लगता है कि संस्मरणों की सड़क पर पाठक टहल रहा है. कई बार पाठक को लगने लगता है कि मारीना उसके काल की कवयित्री है.

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दिलचस्प बात यह है कि किताब की लेखिका प्रतिभा ने कई मोड़ों पर मुड़ते हुए पाठक के लिए किताब में इक्कीस बुकमार्क लिख छोड़ै हैं. अंतिम बुकमार्क में प्रतिभा लिखती हैं-‘आसमान घने काले बादलों से भरा था, लेकिन मौसम एकदम ठहरा हुआ. एक पत्ती भी नहीं हिल रही थी. उदास आंखों से मैं उन तमाम रास्तों को ताक रही थी, जहां से मारीना अक्सर अचानक आकर मुझे because चौंकाया करती थी. मैं दो कप चाय चढ़ाने रसोई में जाती हूं . . . लौट कर आती हूं बालकनी में, लेकिन वह अब तक नहीं आई है.

अचानक अपने कंधे पर कोई स्पर्श महसूस होता है…वह वहां नहीं थी, लेकिन वह वहीं कहीं थी. मैं दोनों कप चाय बारी-बारी से पीते हुए ज़िंदगी के कसाव से मुक्ति महसूस करती हूं….दूर कोई छाया किसी पगडंडी पर जाते हुए दिखती है….वही घुटनों तक स्कर्ट वही नील स्कार्फ वही कटे हुए बाल, वही चांदी का ब्रेसलेट सामने लीची के पेड़ पर बैठा पंछी अचानक पंख फड़फड़ा कर उड़ गया….स्ट्राबेरी की बेल पर लगे फूल मुस्करा रहे थे.’

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रूस की इस कवयित्री मारीना को भारत के हिन्दी पट्टी के पाठकों के लिए लाने का क्या तुक है? उसकी ठोस और सार्थक वजहें भी किताब में हैं. उन्हें पढ़ना भी इस किताब की यात्रा पर चल पढ़ने के लिए ललक पैदा करते हैं. because डॉ॰ वरयाम सिंह और प्रतिभा के साथ मारिया राजुमोवस्की की बात पढ़ने से मारीना से जुड़ाव होने लगता है. आठ साल प्रतिभा ने इस किताब को तैयार करने में लगाया. लेकिन तब भी यह किताब आते-आते रह जाती. यह मारीना के प्रति प्रतिभा का लगाव ही था कि वह दोबारा से इस किताब को तैयार करने पर जुटी. दरअसल जिस लैपटॉप पर पाण्डुलिपि सामग्री थी, उस पर सहकर्मी की वजह से अक्समात कप से भरी चाय गिर गई. सब कुछ स्याह नहीं धब्बा-सा हो गया.

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फिर से शुरू करना कितना because मुश्किल होगा? मैं तो अपना लिखा हुआ दोबारा भी नहीं पढ़ता.

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बहरहाल…इस किताब के बहाने यह कहना ज़रूरी because होगा कि भाषा की जड़ता बेहद घातक है. एक झण्डा, एक भाषा, एक दल, एक विचार तानाशाही की ओर ले जाता है. इसी तरह साहित्य में भी बहुभाषा का प्रकाशन न होना भी घातक होगा.

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अलबत्ता, अपनी भाषा से प्रेम करना बड़ी बात है. because लेकिन दूसरों की भाषा सीखना उससे भी बड़ी बात है. हम हिन्दी पट्टी के लोग कशमीरी, मराठी, मलयालम, उर्दू भाषा के साहित्य को पढ़-समझ पा रहे हैं. कैसे? या तो हम इन भाषाओं को जानते हैं या फिर इन भाषाओं के साहित्य का हिन्दी में अनुवाद मिल जाता है. आज चीनी, रूसी, तुर्की, जर्मनी, स्पेनिश भाषाओं का साहित्य अनुवादकों के जरिए हमें हिन्दी में पढ़ने को मिल रहा है.

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युवा पीढ़ी विदेशी भाषाएँ सीख रही है. यह स्वागतयोग्य काम है. एक काम और है जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए. पढ़ने के लिए प्रेरित करना. परिचितों को अच्छी किताबें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना. मुझे इस because बार मेरे जन्मदिन पर सुनीता मलेठा जी ने बतौर उपहार मारीना डाक से भेजी. धन्यवाद कहना इस भावना के मर्म को कम करना ही माना जाएगा. प्रतिभा कटियार के इस नायाब काम की चारों ओर सराहना हो रही है. उनकी सोच को सलाम करना बनता है.

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किताब से कुछ अंश आप भी पढ़ सकते हैं. because किताब की तासीर का पता चल सकेगा.

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‘उसकी मां सात वर्ष की उम्र में आधी अनाथ हो गई थी. because उसका बचपन पिता और एक स्विस गवर्नेस के सान्निध्य में बीता. ऐसा बचपन जिसमें न खेलने के लिए जगह थी, न शरारतों के लिए. सिर्फ एक किताबी दुनिया ही आसपास थी. उनके आसपास कोई बच्चे भी नहीं होते थे. मारीना अपनी माँ के बारे में लिखती है मेरी माँ के बचपन की तरह ही उनकी युवावस्था भी थी. अकेला, उदास, सहमा हुआ, सब कुछ भीतर समेटकर रखने वाला ख़ामोश जीवन. उन्हें चांदनी रातों में अकेले घूमना, नदियों, झरनों और समंदर से बात करना अच्छा लगता था. एक बार जब वह चांदनी रात में समंदर से बातें कर रही थीं तो उनकी अंगूठी उंगली से फिसल कर समंदर में गिर गई. जिसे समंदर ने पूरे प्रेम के साथ स्वीकार किया.’

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पढ़ें- कला के प्रति संवेदनशीलता ही मनुष्यता को बचाएगी: जगमोहन बंगाणी

‘ईवान व्लादीमिरोविच ने अनस्तासिया की पढ़ाई की व्यवस्था घर पर ही की. वह एक जिम्मेदार पिता की भूमिका तो निभा रहे थे, लेकिन उन्हें बाल मनोविज्ञान का जरा भी भान न था. वे याल्टा से एक गवर्नेस व टीचर को बच्चों की देखभाल के because लिए यह सोच कर लाए कि बच्चे उनसे पहले से परिचित हैं, लेकिन ईवान व्लादीमिरोविच का यह फैसला बच्चों के लिए किसी कहर से कम नहीं था. वह एक जर्मन स्त्री थी. अनुशासन ही उसके लिए सबसे बड़ी चीज थी. उसके लिए लोगों की सुविधा, उनका मन, उनके जीने का ढंग, सब महत्त्वहीन था.’

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‘घर की डाइनिंग टेबल पर दिन में चार बार हाजिरी लाजिमी हो गई थी. सब बुत की तरह बैठे होते थे. जैसे कोई किसी को पहचानता न हो. कोई एक-दूसरे से बात तक नहीं करता था. सिर्फ चम्मचों के टकराने की आवाजें सुनाई देती थीं. प्लेट्स के टकराने की आवाजें. पानी गिरने की आवाजें और कुर्सियों के खिसकाने की आवाजें. जैसे घर में कोई जिंदा व्यक्ति रहता ही न हो.’

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‘अनस्तासिया को ज्यादा दिन घर में अकेला because नहीं रहना पड़ा, क्योंकि वसंत के मौसम में ईवान व्लादीमिरोविच मारीना को घर वापस ले आए. इसकी वजह यह थी कि स्कूल मारीना को रखना नहीं चाहता था.’

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‘जानती हो, जो वक़्त सबसे बुरा होता है वही वक्त सबसे अच्छा भी होता है. ठोकरें जीवन की सबसे बड़ी पाठशालाएं हैं. लोगों को लगता होगा मुझे स्कूल नहीं पसंद? लेकिन शायद स्कूलों को बच्चे नहीं पसंद. बच्चों की सबसे ख़ूबसूरत इच्छाओं को, उनकी सहजता, उनकी शरारतों, उनके अल्हड़पन को जिसकी मिसालें दी जाती हैं, उन्हें ही स्कूल कतरने में लगे रहते हैं. बनावटी व्यवहार, बनावटी विनम्रता, because बनावटी सीखना, दिखावे का संसार रचा जा रहा हो मानो… अनुशासन के नाम पर सभ्य और पढ़ा-लिखा होने के बदले यकीनन मुझे बिना पढ़ा-लिखा होना, समंदर की सहेली होना, जंगलों का दोस्त होना और आवारा कहलवाना ज्यादा पसंद है.’

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‘ये अच्छा या बुरा सब एक साथ ही होता है. जिस वक़्त माँ की सेहत का गिरना बुरा लग रहा था, उसी वक़्त समंदर के क़रीब जाना, जंगलों में फिरना अच्छा लग रहा था. जिस वक़्त रूस लौटना अच्छा लगना था, उसी वक़्त माँ की सेहत का और बिगड़ना खराब भी कोई लम्हा अपनी पूर्णता में कहां आता है जीवन में, उसके सीने में हमेशा एक चोर छुपा रहता है. सेंध लगाता रहता है. लम्हों के अहसासों में.’

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‘हम दोस्त भर नहीं थे. हमारी उम्र का फासला भी बेकार की बात है. मैं उसकी सुंदरता से अभिभूत थी. वह मेरी झिझक और संकोच को तोड़ पाता था, जो अक्सर मैं सिर्फ कविता के सम्मुख तोड़ पाती हूं. हम दोस्त नहीं थे, because क्योंकि मुझे लगता था कि मुझे उससे प्यार था… और फिर दो बरस बाद उसकी मौत. नाद्या की उपस्थिति ने मुझे काफी कुछ दिया. उसके साथ से मैंने सीखा लिखना… और प्यार को भूलना…’

सैंतालीस साल में ही मारीना ने फांसी लगाकर because इस दुनिया को अलविदा कह दिया. इस पूरी किताब को पढ़ते हुए अजीब तरह की बेचैनी होती है. बारम्बार लगता है कि कुछ गलत होने वाला है. फिर चीज़ें संभलती है. हौसला और चुनौतियां चलती रहती हैं. साहस की मुलाकात बार-बार डर से होती है.

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‘बात बिगड़ती गई. डॉक्टरों ने स्पष्ट कहा कि मास्को becauseउन्हें तुरंत छोड़ देना चाहिए, क्योंकि यहां का बर्फीला मौसम उनके लिए नुक़सानदेह तय हुआ आंद्रेई को छोड़ कर पूरा परिवार मारीया के साथ इटली जाएगा.

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इस घटना के बारे में दोनों बहनों ने कुछ लिखा. अनस्तासिया लिखती है, अचानक उस ख़बर के साथ जब हमें पता चला कि हमें यह घर छोड़ना है, हमारा वह घर हमें कितना ख़ास लगने लगा था. because घर की हर दीवार, कोना, उसमें हमारा दौड़ना, लड़ना उसमें बिताए सारे पल आंखों के सामने नाचने लगे. घर के कोने-कोने से प्यार हो उठा. जुदाई का यह सिलसिला जो शुरू हुआ वह जिंदगी भर चलता ही because रहा. बार बार कहीं बसना, उखड़ना, ट्रेनों का सफर, सामान बटोरना, छोड़ना, स्मृतियों को सहेजना, मानो जिंदगी का कोई सिलसिला ही हो. यह जुदाई सिर्फ घर, शहर, देश तक ही सीमित नहीं रही, भावनात्मक संबंधों में भी यह सिलसिला जारी रहा. जिंदगी से, भी उखड़ते-जमते रहने का सिलसिला. इस सबके बीच ख़ुद को बचाये रखना हम सीखते रहे. सीखते रहे.’

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सैंतालीस साल में ही मारीना ने फांसी लगाकर because इस दुनिया को अलविदा कह दिया. इस पूरी किताब को पढ़ते हुए अजीब तरह की बेचैनी होती है. बारम्बार लगता है कि कुछ गलत होने वाला है. फिर चीज़ें संभलती है. हौसला और चुनौतियां चलती रहती हैं. साहस की मुलाकात बार-बार डर से होती है. चिन्ताओं से होती है. प्रतिभा बीच-बीच में बुकमार्क के जरिए जीवन के थपेड़ों में ठंडी हवा लेकर आती है.

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संभवतः किताब की यात्रा से गुजरते हुए आप भी सहमत होंगे. अलबत्ता मारीना की फोटो कहीं से अधिक उजली मिलती तो सोने पे सुहागा हो जाता. कवर का ले आउट बेहतर हो सकता था. लेखक का नाम चिप्पी सा देकर because अखर रहा है. मैं इस किताब को मारीना की मात्र ‘जीवनी’ नहीं कहना चाहूंगा. प्रुफ रह गए हैं. लेखिका ने अपनी बात में कह भी दिया है. भीतर के पन्नों का काग़ज़ बेहतरीन है. छपाई फोन्ट भी अच्छा है. कवर पेज के साथ भीतर के पन्ने भी गुणवत्तायुक्त हैं. बुक मार्क के लिए जो फोन्ट इस्तेमाल किया गया है वह आँखों को अधिक नहीं सुहाता. फोन्ट का आकार थोड़ा बड़ा होता तो पाठकों को पढ़ते-पढ़ते और भी सुकून मिलता.

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किताब: मारीना
लेखिका: प्रतिभा कटियार
मूल्य: 300
पेज: 272
प्रकाशक: संवाद प्रकाशन, मेरठ

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