कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं…
- प्रकाश उप्रेती
इस किताब ने ‘भाषा में आदमी होने की तमीज़’ के रहस्य को खोल दिया. ‘काशी का अस्सी’ पढ़ते हुए हाईलाइटर ने दम तोड़ दिया. लाइन- दर- लाइन लाल- पीला करते हुए
कोई पेज खाली नहीं जा रहा था. भांग का दम लगाने के बाद एक खास ज़ोन में पहुँच जाने की अनुभूति से कम इसका सुरूर नहीं है. शुरू में ही एक टोन सेट हो जाता और फिर आप उसी रहस्य, रोमांस, और औघड़पन की दुनिया में चले जाते हैं. यह उस टापू की कथा है जो सबको लौ… पर टांगे रखता है और उसी अंदाज में कहता है- “जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में”.ज्योतिष
“धक्के देना और धक्के खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां देना और गालियां पाना औघड़ संस्कृति है. अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्तव्य.
इसके जनक संत कबीर रहे हैं और संस्थापक औघड़ कीनाराम. चंदौली के गांव से नगर आए एक आप्रवासी संत. अस्सीवासी उसी औघड़ संस्कृति की जायज-नाजायज औलादें हैं. गालियां इस संस्कृति की राष्ट्रभाषा है जिसमें प्यार और आशीर्वाद का लेना-देना होता है”
ज्योतिष
‘गुरु’ यहां की सर्वकालिक उपाधि और भों… के सम्मानित अभिवादन. पान दुनिया पर थूकने का साधन. बकैती यहाँ मनरेगा के समान है. काम देना जरूरी है अगर काम न हो तब भी पैसा देना जरूरी है. आप करो न करो, चुप रहो, रास्ता पूछ लो, गलती से सिर हिला दो, हूँ, हाँ कुछ भी कह दो, बस आदमी शुरू हो जाएगा.
चाय की दुकान, घाट और मुहल्ला यहाँ की शान हैं. घमंड यहाँ के लोग सिर्फ ज्ञान का करते हैं- “जुआ न होता तो गीता न आई होती”. बाकी सबको लौ…रखते हैं. नेतागिरी खून में है- “राजनीति बेरोजगारों के लिए रोजगार कार्यालय है, इम्प्लायमेंट ब्यूरो”. पंडिताई यहाँ डीएनए में शामिल है. भगवान एक ही हैं- महादेव. वही हर विपत्ति से निकाल पाते हैं. कसम खाने से लेकर गाली तक में वही साक्षी होते हैं.ज्योतिष
मुहल्ला अपने बारे में खुद कहता है कि “धक्के देना और धक्के खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां देना और गालियां पाना औघड़ संस्कृति है. अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्तव्य. इसके जनक संत कबीर रहे हैं और संस्थापक औघड़
कीनाराम. चंदौली के गांव से नगर आए एक आप्रवासी संत. अस्सीवासी उसी औघड़ संस्कृति की जायज-नाजायज औलादें हैं. गालियां इस संस्कृति की राष्ट्रभाषा है जिसमें प्यार और आशीर्वाद का लेना-देना होता है”. इसलिए देश- दुनिया की चर्चा यहाँ लाज़िमी है. विदेश से आया यहां हर व्यक्ति या तो अंगरेज- अंगरेजिन है या फिर गोरा- गोरी. अगर उसके देश का पता चल गया तो फिर उसको इतना ज्ञान पैल देंगे जितना उसको भी नहीं पता होगा. देखा भले ही तब का इलाहाबाद और आज का प्रयागराज न हो. ज्ञान यहाँ सुई से लेकर संबल तक और जानकारी रूस से लेकर अमेरिका तक रहती है. बीबीसी सुनना यहां का खास शग़ल है. बात- बात में उसको कोट करने से ऑथेंटिसिटी बढ़ती है.ज्योतिष
भाँग दिमागी ख़ुराक है. बिना लगाए न मंत्र फूटता है और न मूत्र निकलता है. इनका मानना है कि भाँग तो भारतीय संस्कृति का हिस्सा है- “गांजा-भांग की संस्कृति पर! जब से अस्सी पर
अँगरेज – अँगरेजिन आने शुरू हुए हैं तभी से मुहल्ले के लौंडे हेरोइन और ब्राउन सुगर, चरस के लती हो रहे हैं”. पर मुहल्ला और महादेव धीरे- धीरे इसी संस्कृति का शिकार हो रहे थे- “मादलेन की बस इतनी सी इच्छा है कि कमरे के साथ ही अटैच्ड लैट्रिन-बाथरूम हो! आपको क्या परेशानी हो रही है उस कोठरी को टॉयलेट बनाने में?अरे, कैसी बात कर रहा है
कन्नी ? वह कोठरी नहीं, महादेव जी का घर है! हम पूजा करते हैं रोज. गली से गुजरने वाले भी जल चढ़ाते हैं, फूल माला चढ़ाते हैं, कैसे बोल रहा है तू ?ज्योतिष
गुरु चलते- चलते चीजों को ढहते और बिकते देखता है. बाजार, मीडिया और नेता रौनक को बदल देते हैं. पान की जगह गुटका आ जाता है. अड़ी की जगह तड़ी. चाय
और महादेव खुद ही अपने को बचाए हैं. देखते- देखते दुनिया चव्वनी से डॉलर हो जाती है. परन्तु अब भी शायद- “जमाने को लौ…पर रखकर मस्ती से घूमने की मुद्रा ‘आइडेंटिटी कॉर्ड’ है इसका!”
ज्योतिष
…महादेवजी कोई रामलला तो हैं नहीं, कि वे जहां थे वहीं रहेंगे. वहां से टस-से-मस न होंगे, वह घुमंतू देवता हैं, उनके पास नदी है, आज यहां है, कल कहीं और चल देंगे.
कभी कैलाश पर, कभी काशी में! अपने मन के राजा! आज कमरे में हैं, कल छत पर जा बैठें तो? आप क्या कर लेंगे उनका? गलत हो तो कहिए”! धीरे- धीरे काशी की संस्कृति भी उसी में जा रही थी जिसमें वह सबको टांगे रखते थे.ज्योतिष
गुरु चलते- चलते चीजों को ढहते और बिकते देखता है. बाजार, मीडिया और नेता रौनक को बदल देते हैं. पान की जगह गुटका आ जाता है. अड़ी की जगह तड़ी. चाय और महादेव खुद
ही अपने को बचाए हैं. देखते- देखते दुनिया चव्वनी से डॉलर हो जाती है. परन्तु अब भी शायद- “जमाने को लौ…पर रखकर मस्ती से घूमने की मुद्रा ‘आइडेंटिटी कॉर्ड’ है इसका!”ज्योतिष
बहुत लोगों ने पढ़ी होगी जिन्होंने न पढ़ी
हो एक बार आजमाकर देखें किताब शर्तिया इलाज है.ज्योतिष
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय
में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)
आप को पढ़ना हमेशा सुखद अनुभव होता है ।
अजय सेतिया