- डॉ. अरुण कुकसाल
‘बाबा जी (पिताजी) की आंखों में आंसू भर आये थे. मैंने नियुक्ति पत्र उनके हाथौं में दिया तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया. वह बहुत कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे. सिर्फ़ मेरे सिर पर हाथ फेरते रहे… मैं उसी विभाग में प्रवक्ता बन गया था जिसमें मेरे बाबा जी चपरासी थे.’
गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर परिसर से अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए परम आदरणीय प्रोफेसर राजा राम नौटियाल की आत्म संस्मराणत्मक पुस्तक ‘चेतना के स्वर’ का यह एक अंश है. प्रो. नौटियाल के पिता स्व. पंडित अमरदेव नौटियाल के जीवन संघर्षों पर यह पुस्तक केन्द्रित है. जीवन की विषम परिस्थितियों के चक्रव्यूह को तोड़ते हुए अपने सपनों के चरम को छूने की सशक्त कहानी है यह पुस्तक. किताब का हर वाक्य जीवन के कठोर धरातल से उपजा हुआ है. बेहतर जीवन के लिए अनवरत मेहनत और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था की बदौलत अमरदेव अपने अमर प्रयासों को फलीभूत करते हैं. उनका दृढ़ मत था कि ‘जिसके मन-मस्तिष्क में काम करने का जुनून न हो, जिसका मन ईश्वर चिंतन में न लगता हो और जिसके जेब में पैसे न हो उस व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है.’
जीवन की मुश्किलों को ‘परे हट’ कहने की हिम्मत दिलाती यह पुस्तक सफल जीवन जीने के कई गूढ़-मंत्र देती है.
पुस्तक बताती है कि पिता-पुत्र के आर्दश और आत्मीय संबंध जब व्यवहारिक जीवन में जीवंत होते हैं तो राम को राजा बना कर ही चैन लेते हैं. और राजाराम अपने परिवार और संपूर्ण समाज के आदर्श एवं प्रेरणा के श्रोत्र बन जाते हैं. यह पुस्तक एक साधारण व्यक्ति में छुपी असाधारण इच्छा शक्ति को सार्वजनिक करती है. अतीत कितना ही क्रूर क्यों न हो उसको याद करने और उससे सबक लेने का मन हर किसी का ही होता है. ‘गरीबी के वे दिन, स्वर्णिम थे…..कुछ अच्छी बातें हैं जो सिर्फ़ गरीबी में ही विकसित होती हैं… हार मानना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं था.’
यह पुस्तक नयी नौजवान पीढ़ी की ओर मुखातिब होकर संदेश देती है कि वे आज की चमक-दमक वाली जीवन शैली में जीते हुए अपने बुजुर्गो के त्याग को न भूलें. ‘मैं दुकान पर पहुंचा, तो गांव के ही दुकानदार श्री बहुगुणा ने सामान उधार देने से मना कर दिया और कहा कि पहले पिछला हिसाब चुकता करो फिर आगे उधार मिलेगा. मैं अपना मुंह लेकर घर लौट आया.’ आज धन-धान्य से भरपूर कई लोगों के जीवन में यह प्रसंग आया होगा.
प्रो. नौटियाल की यह किताब 20वीं सदी के पहाड़ी जन-जीवन को बयां करती है. विशेषकर श्रीनगर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में आये बदलावों की क्रमोन्नति की तस्वीर इसमें है.
प्रो. राजाराम नौटियाल विद्वत्ता, समाजसेवा और सादगी के साथ हम-सबके मन-मस्तिष्क में राज करते हैं. उनकी कवितायें और कहानियां साहित्य जगत में लोकप्रिय हुयी हैं. अपने पिता के माध्यम से उन्होंने सामान्य परिवार में पिता की भूमिका को बखूबी व्यक्त किया है. पिता-पुत्र में ऐसी आपसी समरसता, सामांजस्यता और समझदारी का संयोग होना आनंद प्रदान करती है. यह आनंद आप भी ले. इसके लिए यह किताब जरूर पढ़ें.
(लेखक एवं प्रशिक्षक चामी गांव (असवालस्यूं) पौड़ी (गढ़वाल))