फ़िल्म समीक्षा : एक खूबसूरत दर्दभरी कहानी है फिल्म ‘सरदार उधम सिंह’
- कमलेश चंद्र जोशी
माइकल ओडॉयर को गोली मारने के बाद उधम सिंह को ब्रिटिश जेल में जिस तरह की यातनाएँ दी गई उसके बारे में सोचकर भी किसी की रूह काँप जाए, लेकिन उधम सिंह मानो मौत का
कफन बाँधकर ही ओडॉयर को मारने ब्रिटेन गए थे. कुछ हमदर्द लोगों ने उधम सिंह से अपने इस कृत्य के लिए ब्रितानी हुकूमत से माफी माँगने की सलाह भी दी लेकिन भगत सिंह का यह अनुयायी उनसे इतना प्रभावित था कि उनके विचारों की पोटली साथ लेकर चलता था. कहता था उसे एक ग्रंथी ने बोला है “पुत्तर! जवानी रब का दिया हुआ तोहफा है. अब ये तेरे ऊपर है, तू इस तोहफे को ज़ाया करता है या इसको कोई मतलब देता है.”ज्योतिष
जिस तरह का नरसंहार उधम सिंह ने जलियाँवाला बाग में देखा और महसूस किया, उससे उसकी जवानी को मतलब मिल गया था और वह मतलब था किसी भी कीमत में जलियाँवाला बाग की घटना के लिए जनरल डायर का बचाव करने वाले और घटना को उचित ठहराने वाले माइकल ओडॉयर की मौत. उधम सिंह भेष बदलकर व
जाली पासपोर्ट की मदद से जैसे तैसे ब्रिटेन पहुँचे और 21 साल के लंबे इंतजार के बाद उन्हें ब्रिटिश कैक्सटन हॉल में जलियाँवाला बाग नरसंहार के बचाव में भाषण दे रहे ओडॉयर को मारने का मौका मिल ही गया.ज्योतिष
उधम सिंह चाहते तो ओडॉयर को ब्रिटेन में कभी भी किसी भी स्थान पर मार सकते थे लेकिन उन्होंने अंग्रेजों से खचाखच भरे कैक्सटन हॉल को ही चुना ताकि ओडॉयर कि
मौत की गूँज दुनिया भर को सुनाई दे और उधम सिंह के इस क्रांतिकारी कदम का इस्तकबाल पूरे भारत में हो और स्वाधीनता संग्राम के लिए लड़ रहे दूसरे क्रांतिकारियों में एक नई ऊर्जा का संचार हो सके. यूँ तो देश भर में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल कैदियों द्वारा अंग्रेजों से माफी माँगे जाने या न माँगे जाने जैसी बहस तेजी से चल रही है. कोई कुछ भी कहे लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों व साक्ष्यों को हम झुठला नहीं सकते.ज्योतिष
माफी माँगने का विकल्प तो उधम सिंह के पास भी था लेकिन भगत सिंह की तरह ही उन्होंने भी फाँसी के फंदे को ही चुना. उधम सिंह का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वीर उधम सिंह के नाम से दर्ज है लेकिन कम लिखे जाने के कारण उनकी लोकप्रियता भगत सिंह सरीखी नहीं रही. शूजित सरकार ने उधम
सिंह को लेकर “सरदार उधम” नाम से अपनी ड्रीम फिल्म बनाई है जिसमें उनकी क्रांतिकारी जिंदगी के तमाम पहलुओं को शानदार तरीके से फिल्माया गया है. एमेजॉन प्राइम के ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर रिलीज हुई इस फिल्म को देखने के बाद दर्शक उधम सिंह की जिंदगी के तमाम अनछुए पहलुओं से रूबरू हो सकेंगे. बॉलीवुड में अक्सर बायोपिक के नाम पर परोसी जाने वाली मसाला फिल्मों के इतर “सरदार उधम” एक ऐसी फिल्म है जो सधी हुई कहानी व असल घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है.ज्योतिष
फिल्म को देखकर लगता ही नहीं कि वह वर्तमान में चल रही है. अविक मुखोपाध्याय की सिनेमेटोग्राफी का कमाल यह है कि वह दर्शकों को ब्रितानी हुकूमत के उस दौर में खींचकर ले जाती है जब जलियाँवाला बाग जैसे नरसंहार को अंजाम दिया गया था. फिल्म का एक-एक फ्रेम इतना दमदार है कि वह किसी यथार्थ से कम नहीं लगता.
फिल्म दर्शकों को ऐसे बाँध के रखती है मानो दर्शक खुद उन दृश्यों में मौजूद हों. रॉलेट एक्ट के खिलाफ प्रदर्शनकारियों का जलियाँवाला बाग में इकट्ठा होना, जनरल डायर का गोली चलाने का आदेश देना और उसके बाद लाशों के ढेर से जिंदा लोगों को उधम सिंह का चुन-चुन कर अस्पताल तक ले जाना ऐसे दृश्य हैं जिन्हें देखकर दर्शकों की न सिर्फ आँखें नम होती है बल्कि भीतरखाने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश भी पैदा होता है.ज्योतिष
उधम सिंह के रूप में विकी कौशल के अभिनय ने पूरा न्याय किया है. अपनी मासूमियत से लेकर ब्रितानी सरकार की क्रूरता के प्रति अपने आक्रोश को उन्होंने दमदार तरीके से पर्दे पर
उतारा है. विकी कौशल ने उधम सिंह को फिल्मी पर्दे पर जीवंत रूप में पेश किया है. उधम सिंह की प्रेमिका बनी बनीता संधू का रोल भले ही छोटा हो लेकिन एक गूँगी लड़की के किरदार में उन्होंने उधम सिंह के प्रति अपने निश्छल प्रेम को जिस तरह निभाया है वह काबिले तारीफ है. भगत सिंह के छोटे से किरदार में अमोल पाराशर खूब नजर आते हैं खासकर उस सीन में जब वह सुखदेव व राजगुरू के साथ फाँसी के तख़्त की ओर बढ़ते हैं.ज्योतिष
पाठकों को शायद
जानकारी न हो लेकिन उत्तराखंड का एक जिला ‘उधम सिंह नगर’ सन 1995 से ही शहीद उधम सिंह के नाम पर है जिसे उनकी शहादत की याद में नैनीताल जिले से अलग कर के बनाया गया था.
ज्योतिष
फिल्म थोड़ी लंबी जरूर है लेकिन जिस तरह के दृश्य फिल्म में दिखाए गये हैं उन्हें देखकर फिल्म का लंबा होना बिल्कुल खलता नहीं है. शुबेंदु भट्टाचार्य व रितेश शाह का शानदार
स्क्रीनप्ले फिल्म को एक नये तरीके से पेश करता है. शूजित सरकार हमेशा से अलग तरह की फिल्में बनाने के लिए जाने जाते रहे हैं. इससे पहले भी मद्रास कैफे व पीकू जैसी लीग से हटकर बनी उनकी फिल्में दर्शकों का दिल जीत चुकी हैं.ज्योतिष
शहीद उधम सिंह पर बनाई उनकी यह नायाब फिल्म न सिर्फ दर्शकों तक उधम सिंह के उस किस्से को लेकर जाएगी जो आम नागरिकों से अछूता रह गया है बल्कि उनकी शहादत को
वर्तमान में वह स्थान भी देगी जो खाली सा महसूस होता है. पाठकों को शायद जानकारी न हो लेकिन उत्तराखंड का एक जिला ‘उधम सिंह नगर’ सन 1995 से ही शहीद उधम सिंह के नाम पर है जिसे उनकी शहादत की याद में नैनीताल जिले से अलग कर के बनाया गया था.ज्योतिष
(लेखक एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय में शोधार्थी है)