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मेरी फूलदेई मेरा बचपन 

मेरी फूलदेई मेरा बचपन 

उत्तराखंड हलचल, पर्यावरण, साहित्‍य-संस्कृति
प्रकाश चंद्र पहाड़ का जीवन, सुख- दुःख और हर्षोउल्लास सब समाया होता है। जीवन का उत्सव प्रकृति का उत्सव है और प्रकृति, जीवन का अविभाज्य अंग। इसलिए पहाड़ी जीवन के रंग में प्रकृति का रंग घुला होता है। बिना प्रकृति के न जीवन है न कोई उत्सव और त्यौहार। पहाड़ों की रौनक उसके जीवन में है। पहाड़ों का जीवन उसके आस-पास प्रकृति में बसा है। हर ऋतु में पहाड़ों की रौनक, मिज़ाज, खिलखिलाहट अद्भुत एवं रमणीय होती है। इसी में पहाड़ का जीवन, सुख- दुःख और हर्षोउल्लास सब समाया होता है। जीवन का उत्सव प्रकृति का उत्सव है और प्रकृति, जीवन का अविभाज्य अंग। इसलिए पहाड़ी जीवन के रंग में प्रकृति का रंग घुला होता है। बिना प्रकृति के न जीवन है न कोई उत्सव और त्यौहार। पहाड़ों में लंबी सर्दी और बर्फबारी के बाद वसंत के आगमन का संकेत पहाड़ों पर खिलने वाले लाल, हरे, पीले, सफेद, और बैंगनी फूलों से मिल जाता है। अब तक बर्फ की सफे...
बैराट खाई: जहां आज भी हैं राजा विराट के महल का खंडहर

बैराट खाई: जहां आज भी हैं राजा विराट के महल का खंडहर

इतिहास, उत्तराखंड हलचल, हिमालयी राज्य
मत्स्य देश यहां पांडवों ने बिताया था एक वर्ष का अज्ञातवास स्व. राजेंद्र सिंह राणा ‘नयन’ देहरादून जिले के पर्वतीय क्षेत्र जौनसार परगने में बैराट खाई नामक एक स्थान है। यह स्थान मसूरी-चकराता मार्ग पर मसूरी से 50 किमी., चकराता से 23 किमी. तथा हल्के वाहन मार्ग पर हरिपुर-कालसी से 30 किमी. की दूरी पर है। मसूरी-चकराता अथवा विकासनगर-लखवाड़ -चकराता मार्ग पर नियमित बस सेवा लखवाड़ से आगे नहीं है। मात्र इक्का-दुक्का जीपों या हल्के वाहन हरिपुर-कालसी होकर अथवा चकराता की ओर से चलते हैं। पर्यटकों को निजी अथवा टैक्सी आदि से जाना सुविधाजनक है। ठहरने और रात्रिविश्राम हेतु नागथात ही उपयुक्त स्थान है। बैराट खाई - नागथात से 4 किमी. आगे दोनों ओर बांज, बुराश आदि के सघन वन के मध्य से होते हुए एक सुरम्य घाटी में बैराट खाई नामक यह स्थान एक चतुष्पथ पर स्थित है। मसूरी-चकराता मार्ग से एक मार्ग हरिपुर-विकासनगर ...
बानर गीज गो…

बानर गीज गो…

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
नीलम पांडेय ‘नील’ रामनगर, भाभर के जंगलों में जड़ी बूटी खोजते हुए मेरी माकोट की आमा मालू की उझली हुई बेलों से कभी-कभी उसके फल भी तोड़ती थी। कहती थी मालू की झाल में बंदर और भालू रहते हैं क्योंकि इसके अंदर धूप, सर्दी, पानी का असर कम होता है। मालू का फल जो कि थोड़ा लंबे आकार की फली के रूप में होता है जिसको हम टाटा कहते थे। वे इसे घर ले आती थी, कहती थी इसके बीज को भूनकर खाने से, ये शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बहुत बढ़ाते हैं। घर आकर आमा उन लंबी आकार की फलियों को आग में खूब अच्छे से भूनती, भून जाने से फली दो फ़ाड़ में बंट जाती तो उसमें से जो बीज निकलते थे, वे बीज थोड़े आकार में बड़े और खाने में बहुत स्वादिष्ट होते थे. पहले के समय के लोग जब चप्पल नहीं होती थी तो पैरों में इन्हीं फलियों के दो फाड़ को मालू की टहनियों के कच्चे रेशे को रस्सी की तरह बटकर फलियों के दोनों फाड़ो में चप्पल की ...
अच्छी किस्म का बीज ने मिलने से काश्तकार लाचार

अच्छी किस्म का बीज ने मिलने से काश्तकार लाचार

उत्तराखंड हलचल, समसामयिक
डा० राजेंद्र कुकसाल जिन सपनों को लेकर पहाड़ी राज्य की स्थापना की गई थी, वे सपने आज भी सपने बन कर रह गये है उत्तराखंड राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में, नगदी फसल के रूप में अदरक का उत्पादन कई दशकों से किया जा रहा है। विभागीय आकड़ों के अनुसार 4876 हैक्टियर में अदरक की कास्त की जाती है, जिससे 47120 मैट्रिक टन का उत्पादन होता है।  अदरक की उन्नत किस्मों के बीज प्राप्त करने के मुख्य स्रोत हैं- 1-आई.आई.एस.आर प्रयोगिक क्षेत्र, केरल । 2-कृषि एवं तकनीकी वि० वि० पोट्टांगी उडीसा। 3- डॉ. यशवंत सिंघ परमार युनिवर्सिटी ऑफ़ हॉर्टिकल्चर एंड फोरेस्ट्री, नौणी सोलन, हिमाचल प्रदेश उद्यान विभाग विगत 20 - 30 बर्षो से 10 से 15 करोड़ रुपए का अदरक बीज उत्तर पूर्वी राज्यों से दलालों के माध्यम से मंगाता आ रहा है, यह बीज कृषकों को न तो समय पर मिलता है और न ही इस बीज से अच्छी उपज प्राप्त होती है किन्तु उद्...
एक लंबे संघर्ष की कहानी है “माऊंटेन विलेज स्टे-धराली हाईट्स”

एक लंबे संघर्ष की कहानी है “माऊंटेन विलेज स्टे-धराली हाईट्स”

अभिनव पहल, उत्तराखंड हलचल, साहित्‍य-संस्कृति
विनय केडी समय कि उपलब्धता के अनुसार छोटी—छोटी यात्राएं बनाते हुए जानकारियां एकत्रित करने के काम को जारी रखा। और इन सभी यात्राओं से यह समझ में आ गया था कि आध्यात्मिक पर्यटन के साथ—साथ ग्रामीण पर्यटन की संभावनाओं पर भी काम करना होगा अन्यथा हासिल शून्य ही रहेगा।  18 अप्रैल वर्ष 2009 में आध्यात्मिक पर्यटन हेतु उत्तराखंड टेंपल्स प्रोजेक्ट की शुरुआत की। पेशे से फ़ोटोग्राफ़र और अपने करीबी मित्र मुकेश के साथ उस दौरान मैने उत्तराखंड के पौड़ी और टिहरी जनपद के कई मंदिरों का भ्रमण किया। हमें दिन भर सुदूर गावों में मंदिरों की जानकारी और फ़ोटोग्राफ़्स एकत्र करने के बाद रात्रि विश्राम हेतु शाम होते किसी बड़े कस्बे में लौटना होता था, जो अपने आप में बड़ा मुश्किल काम होता था। और उस दौरान मैने महसूस किया कि आध्यात्मिक पर्यटन की परिकल्पना बिना ग्रामीण पर्यटन के अधूरी है क्योंकि पहाड़ के गावों में अच्छे रात्रि...
वो बकरी वाली…

वो बकरी वाली…

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति, साहित्यिक-हलचल
अनीता मैठाणी उसका रंग तांबे जैसा था। बाल भी लगभग तांबे जैसे रंगीन थे। पर वे बाल कम, बरगद के पेड़ से झूलती जटाएं ज्यादा लगते थे। हां, साधु बाबाओं की जटाओं की तरह आपस में लिपटे, डोरी जैसे। सिर के ऊपरी हिस्से पर एक सूती कपड़े की पगड़ी—सी हमेशा बंधी रहती थी। चेहरे से उम्र का कोई अंदाजा नहीं लगा पाता था। झुर्री नहीं थी चेहरे पर, पर सूरज की ताप से तपकर चेहरा इतना जर्द पड़ गया था कि उम्र कोई 60-70 बरस जान पड़ती थी। उसका हफ्ते में दो दिन हमारे घर के पास से होकर गुजरना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उसके आने का नियत समय होता दोपहर से थोड़ी देर बाद और शाम होने से कुछ पहले। कोई कहता वो बहुत दूर से आती है, पर कहां से कोई नहीं जानता। आंखों की चंचलता और शरीर की चपलता 7-8 बरस के बच्चे की सी थी। पहनावा पठानिया सूट- मैरून या भूरे रंग का। कपड़े का झोला हमेशा कांधे से झूलता हुआ। हाथ में बेंत का एक पतला सोंटा- ...
चाय बनाने की नौकरी से सीईओ तक का सफर

चाय बनाने की नौकरी से सीईओ तक का सफर

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण
नरेश नौटियाल मन की बात भाग-1 15 जूलाई, 2002 से शुरू हुआ सफर आज भी जारी है। मै सन् 2002 मे बड़कोट डिग्री कालेज बी० ए० द्वितीय वर्ष की पढ़ाई रेगुलर कर रहा था। कालेज के दिनों की बात ही निराली होती है, दोस्तों के साथ खूब मौज—मस्ती, हंसी—मजाक, कालेज के दिनों के चुनावों मे जोश, रणनीति, कमरे—कमरे में वोट मागने जाना और पौंटी गांव का वो दस दिन का NSS का कैम्प। कैम्प के दौरान आपसी तालमेल से रात और दिन का खाना भी डिग्री कालेज के लड़के व लड़कियां मिलजुलकर बनाती थी। सांस्कृतिक प्रोग्राम मे भाग लेना और सहपाठियों के साथ ढेरसारी बातें करना बहुत अच्छा लगता था। देहरादून में नौकरी के साथ—साथ घूमना—फिरना भी मिल जाएगा और खूब ऐश करूंगा। पढ़ाई भी साथ—साथ होती रहेगी। लेकिन जब काम करना शुरू किया तो मौजमस्ती तो दूर, अपने सोचने के लिए भी टाइम नहीं मिल पाता था। एक काम खत्म नहीं हुआ, दूसरा शुरू एक दिन...
हर दिल अजीज थी वह

हर दिल अजीज थी वह

आधी आबादी, संस्मरण, साहित्यिक-हलचल
अनीता मैठाणी  ये उन दिनों की बात है जब हम बाॅम्बे में नेवी नगर, कोलाबा में रहते थे। तब मुम्बई को बाॅम्बे या बम्बई कहा जाता था। श्यामली के आने की आहट उसके पांव में पड़े बड़े-बड़े घुंघरूओं वाले पाजेब से पिछली बिल्डिंग से ही सुनाई दे जाती थी। उसका आना आमने-सामने की बिल्डिंग में रहने वाली स्त्रियों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। श्यामली हर दिल अजीज थी, उसको देख कर लगता ग़म उसे छूकर भी नहीं गुजरा। आंखों में कोस देकर लगाया गया काला मोटा काजल, सुतवा नाक में चांदी का फूलदार लौंग, गले में चांदी का मोटा कंठहार, हाथों में बाजूबंद-कड़े और पांव में चांदी के पाजेब। टखनों से थोड़ा ऊंचे कभी काले तो कभी गहरे नीले छींटदार लहंगा चोली पहने और पांव में काले प्लास्टिक के जूते पहने महीने दो महीने में किसी भी एक दिन प्रकट हो जाती थी श्यामली। उसके आने की ख़बर उड़ती-उड़ती सब तक पहुंच जाती। और देखते ही देखत...
रवाँई यात्रा – भाग—3  (अंतिम किस्त )

रवाँई यात्रा – भाग—3  (अंतिम किस्त )

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
भार्गव चन्दोला, देहरादून महोत्सव के अंतिम दिन सुबह आंख खुली तो ठंड का अहसास रजाई से बाहर आकर ही हुआ। नौगांव फारेस्ट गेस्ट हाउस के बाहर आये तो देखा चारों तरफ से बांज देवदार के पेड़ों के बीच सुनसान जगह पर गेस्ट हाउस बना है, आसपास का दृश्य बेहद रूमानी था मगर बांज बुरांश देवदार के बीच चीड़ के पेड़ देखकर अफ़सोस हुआ न जाने कौन व क्यों चीड़ की प्रजाति को उत्तराखंड लेकर आया होगा? चीड़ के पेड़ इतने घातक हैं कि ये बांज, बुरांस, आंवला, देवदार, चारापति, खेती सबकुछ निगलता जा रहा है। गर्मी के दिनों में इसके कारण जंगल के जंगल, पशु—पक्षी आग में स्वाह हो जाते हैं। चीड़ को रोकने के ठोस उपाय किये जाने चाहिए वर्ना हम बांज बुरांश देवदार को पूरी तरह से खो देंगे, खैर आसपास के खूबसूरत नज़ारे को मोबाईल कैमरे में कैद कर हम गेस्ट हाउस से नौगांव बाजार की तरफ निकल पड़े। आशीष जी ने एक जिम्मेदार लोकसेवक की तरह जब जब भी मै...
रवाँई यात्रा – भाग-2

रवाँई यात्रा – भाग-2

Uncategorized, उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति, हिमालयी राज्य
भार्गव चंदोला 28, 29, 30 दिसंबर, 2019 उत्तरकाशी जनपद की रवांई घाटी के नौगांव में तृतीय #रवाँई_लोक_महोत्सव अगली सुबह आंख खुली तो बाहर चिड़ियों की चहकने की आवाज रजाई के अंदर कानों तक गूंजने लगी, सर्दी की ठिठुरन इतनी थी की मूहं से रजाई हटाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कुछ समय बिता तो दरवाजे के बाहर से आवाज आई, चाय—चाय, मनोज भाई ने दरवाजा खोला तो बाहर Nimmi Kukreti Rashtrawadi हाथ में चाय लिए खड़ी थी। प्रायः मैं चाय से दूरी रखता हूँ, मगर रवाँई की उस ठिठुरन में ऐसा करना संभव न था। मैंने निम्मी से आग्रह किया, निम्मी गुनगुना पानी पिला देती तो फिर चाय का स्वाद भी लेने का आनंद बढ़ जायेगा। निम्मी झट से गुनगुना पानी भी ले आई, निम्मी के हाथ से बनी चाय में गांव की गाय के दूध का स्वाद था, निम्मी ने सभी साथियों को बहुत आत्मियता के साथ चाय पिलाकर सुबह खुशनुमा बना दी थी। बिस्तर छोड़कर बाहर आये तो बाहर क...