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अब कहाँ होगी भेंट…

अब कहाँ होगी भेंट…

संस्मरण
हम याद करते हैं पहाड़ को… या हमारे भीतर बसा पहाड़ हमें पुकारता है बार-बार? नराई दोनों को लगती है न! तो मुझे भी जब तब ‘समझता’ है पहाड़ … बाटुइ लगाता है…. और फिर अनेक असम्बद्ध से दृश्य-बिम्ब उभरने लगते हैं आँखों में… उन्हीं बिम्बों में बचपन को खोजती मैं फिर-फिर पहुँच जाती हूँ अपने पहाड़… रेखा उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. हम यहां पर अपने पाठकों के लिए रेखा उप्रेती द्वारा लिखित ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ नाम की पूरी सीरिज प्रकाशित कर रहे हैं... ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ भाग—1 रेखा उप्रेती “धरु!! आब काँ होलि भेंट” आमा ने मेरे बाबूजी को अंग्वाल में लेते हुए कहा और फफक कर रो पड़ी. “तस नी कौ काखी, आब्बे…” बाबूजी के बोल रुँधे कंठ में विलीन हो गए. गर्मी की छुट्टियाँ ‘घर’ में बिताकर, दिल्ली वापस लौटने की घड़ी आती तो निश्व...
ईमानदार समीक्षा-साहित्य का सच्चा पाठक और लेखक

ईमानदार समीक्षा-साहित्य का सच्चा पाठक और लेखक

साहित्यिक-हलचल
ललित फुलारा एक जानकार काफी दिनों से अपनी किताब की समीक्षा लिखवाना चाहते थे. अक्सर सोशल मीडिया लेटर बॉक्स पर उनका संदेश आ टपकता. 'मैं उदार और भला आदमी हूं' यह जताने के लिए उनके संदेश पर हाथ जोड़ तीन-चार दिन बाद मेरी जवाबी चिट्ठी भी पहुंच जाती. यह सिलसिला काफी लंबे वक्त का है. इतना धैर्यवान व्यक्ति मैंने अभी तक नहीं देखा था. एक ही संदेश हर दूसरे दिन ईमोजी की संख्या बढ़ाकर मुझे मिलता और हर तीसरे-चौथे दिन विनम्रतापूर्ण नमस्कार वाली इमोजी की संख्या बढ़ाकर मेरा जवाब उन तक पहुंचता. बीच-बीच में कभी-कभार वो मैसेंजर से फोन भी कर लिया करते. एक शाम फिर दूरभाष. बड़े अधिकार भाव से बोले- 'कुछ ही शब्द लिखकर पोस्ट कर दीजिए.' मैंने उनको समझाना चाहा कि मैं किताब नहीं पढ़ता. और बिना पढ़े शेयर नहीं करता. न ही आदेश पर लिखता हूं और न ही विनती पर. इस पर उनका अधिकार भाव थोड़ा लचीला हुआ और बोले. 'मुझे लगता ...
कब लौटेगा पाई में लूण…

कब लौटेगा पाई में लूण…

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—3 प्रकाश उप्रेती आज बात- ‘पाई’ की. पहाड़ के हर घर की शान ‘पाई’ होती थी. पाई के बिना खाना बनने वाले गोठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पाई दरअसल लकड़ी की बनी वह चीज थी जिसमें पिसा हुआ लूण और चटनी रखते थे. मोटी लकड़ी को तराश कर उसको एक या दो खाँचों का बनाया जाता था. इन खाँचों में ही लूण और चटनी रखी जाती थी. इस पूरे ढाँचे को बोला जाता था-पाई. ईजा हमेशा पाई में लूण और चटनी पीसकर रख देती थीं. हमारे घर में एक बड़ी और दो छोटी पाई थीं. छोटी पाई पर हम बच्चों का अधिकार होता था. हम अपनी-अपनी पाई को छुपाकर रख देते थे. जो बडी पाई थी वह जूठी न हो इसलिए ईजा हमारी पाई में चटनी और नमक अलग से रख देती थीं. ईजा कहती थीं- "ये ले आपणी पाई हां धर ले" (अपनी पाई में (नमक, चटनी) रख ले). हम बड़ी उत्सुकता से रखकर पाई को फिर गोठ में कहीं छुपा देते थे ताकि कोई और न खा ले. ई...
जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—2 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'घनगुड़' की. पहाड़ों पर जाड़ों में जब बरसात का ज़ोर का गड़म- गड़ाका होता था तो ईजा कहती थीं "अब घनगुड़ पडील रे". मौसम के हिसाब से पहाड़ के जंगल आपको कुछ न कुछ देते रहते हैं. बारिश तो शहरों में भी होती है लेकिन घनगुड़ तो अपने पहाड़ में ही पड़ते हैं. घनगुड़ को मशरूम के परिवार की सब्जी के तौर पर देखा जाता था. इनका कुछ हिस्सा जमीन के अंदर और कुछ बाहर होता था. जहाँ पर मिट्टी ज्यादा गीली हो समझो वहीं पर बहुत सारे घनगुड. बारिश बंद होने के बाद शाम के समय हम अक्सर घनगुड़ टीपने जाते थे. ईजा बताती थीं- "पार भ्योव पन ज्यादे पड़ रह्नल" (सामने वाले जंगल में ज्यादा पड़े होंगे). हम वहीं पहुँच जाते थे. घनगुड़ हम कच्चे भी खाते थे और इनकी सब्जी भी बनती थी. ईजा कहती थीं- "घनगुड़क साग सामेणी तो शिकार फेल छू" (घनगुड़ की सब्जी के सामने तो मटन फेल है)... "सब...
जंगल जाते, किम्मु छक कर खाते

जंगल जाते, किम्मु छक कर खाते

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए 'लॉक डाउन' ने सभी को 'वर्क फ्राम होम' के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीवन क...
जहां धरती पर स्नान के लिए उतरती हैं परियां!

जहां धरती पर स्नान के लिए उतरती हैं परियां!

संस्मरण
मनोज इष्टवाल सरूताल : जहां खुले आसमान के नीचे स्नान के लिए एक दिन उतरते हैं यक्ष, गंदर्भ, देवगण, परियां व तारामंडल! ऋग्वेद के कर्मकांड मन्त्र के कन्यादान में लिखा है- “पुष्ठारक्षेत्रे मधुरम्य च वायु, छिदन्ति योगानि वृद्धन्ति आयु” बात लगभग 13 बर्ष पुरानी है. मैं बर्ष तब रवांई घाटी के भ्रमण पर था. बडकोट गंगनाली राजगढ़ी होते हुए मैं 10 जून 2005 को सरनौल गांव पहुंचा जहां आकर सड़क समाप्त हो जाती है. दरअसल मेरा मकसद ही ऐसे स्थानों की ढूंढ थी जहां अभी भी हमारा लोक समाज लोक संस्कृति अछूती थी. सच कहूं तो मुझे आमंत्रण भी मिला था कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय पुरोला की उन बेटियों का जिनके गांव पुरोला से लगभग 30 किमी. पैदल दूरी पर 8 गांव सर-बडियार थे. मुझे आश्चर्य यह था कि ये लोग आज भी क्या सचमुच 30 किमी. पैदल यात्रा तय करते हैं. बस दो दिन बाद सर गांव में जुटने वाला कालिग नाग मेला जो था. फि...
गिलोय : एक बहुउपयोगी बेल जिसके हैं सैकड़ों उपयोग

गिलोय : एक बहुउपयोगी बेल जिसके हैं सैकड़ों उपयोग

अभिनव पहल, हिमालयी राज्य
जे. पी. मैठाणी सेहत के लिए अमृत है गिलोय! गिलोय- गिलोय को अंग्रेजी में टिनोस्पोरा कोरडीफ़ोलिया, गढ़वाली में गिले और मराठी में गुड़ची बोलते हैं. संस्कृत में गिलोय का नाम अमृता है. यह एक बेल है और आंशिक परजीवी के रूप में दूसरे पेड़ों पर लिपट कर बढ़ती है. लेकिन गिलोय को क्यारियों और गमलों में भी उगाया जा सकता है. गिलोय की बेल को मकान या चारदीवारी पर पिलर और तारों के सपोर्ट से भी आगे बढ़ाया जा सकता है. यह बेहद सरलता से उगाई जाने वाली बेल है. जिसको उगाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत और खाद-पानी की आवश्यकता नहीं होती. आयुर्वेदिक विशेषज्ञों का मानना है कि उत्तराखण्ड में 800-1000 मीटर से ऊपर नीम के पौधे जाड़ों में बच नहीं पाते हैं. लेकिन पहाड़ों में 1600 मीटर की ऊँचाई तक सड़क किनारे बकैण जिसको गढ़वाल में डैकण भी कहते हैं देखा गया है, इसलिए डैकण के पेड़ों पर भी गिलोय को विकसित किया जा सकता है. नीम और डैक...
यमुना घाटी: जल संस्कृति की अनूठी परम्परा

यमुना घाटी: जल संस्कृति की अनूठी परम्परा

उत्तराखंड हलचल, साहित्‍य-संस्कृति
यमुना—टौंस घाटी की अपनी एक जल संस्कृति है. यहां लोग स्रोतों से निकलने वाले पानी को देवताओं की देन मानते है. इन नदी—घाटियों में जल स्रोतों के कई कुंड स्थापित हैं.​ विभिन्न गांवों में उपस्थित इन पानी के कुंडों की अपनी—अपनी कहानी है. इस घाटी के लोग इन कुंडों से निकलने वाले जल को बहुत ही पवित्रत मानते हैं और उनकी बखूबी देखरेख करते हैं. जल संस्कृति में आज हम ऐसे ही कुंडों से आपको रू—ब—रू करवा रहे हैं. यमुना घाटी के ऐसे ही कुछ जल कुंडों बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ प​त्रकार प्रेम पंचोली— जल संस्कृति भाग—2 कमलेश्वर महादेव कमलेश्वर नामक स्थान का इस क्षेत्र में बड़ा महत्व है लोग शिवरात्री के दिन उक्त स्थान पर व्रत पूजने पंहुचते है श्रद्धालुओं का इतना अटूट विश्वास होता है कि यहां नंगे पांव पंहुचते है जबकि इस स्थान पर जाने के लिए तीन किमी पैदल मार्ग है. यहां पानी के दो धारे है तथा एक कुण्ड भी है...
जौनसार के गौरव वीर केसरी चंद की शहादत की याद

जौनसार के गौरव वीर केसरी चंद की शहादत की याद

इतिहास, उत्तराखंड हलचल
चारु तिवारी वीर केसरी चंद के शहादत दिवस (3 मई) पर विशेष जौनसार. उत्तराखंड के ऐतिहासिक थाती का महत्वपूर्ण क्षेत्र. विशिष्ट सांस्कृतिक वैभव की भूमि. जीवंत और उन्मुक्त जीवन शैली से परिपूर्ण समाज. यहां की लोक-कथाओं और लोक-गाथाओं में बसी है यहां की सौंधी खुशबू. लोक-गीत, नृत्यों और मेले-ठेलों में देख सकते हैं लोक का बिंब. यहीं चकरौता के पास है, रामताल गार्डन (चौलीथात). यहां प्रतिवर्ष 3 मई को एक मेला लगता है- 'वीर केसरी चंद मेला.' अपने एक अमर सपूत को याद करने के लिये. जौनसारी लोकगीत-नृत्य 'हारूल' के माध्यम से इस अमर सेनानी की शहादत का जिक्र होता है. बहुत सम्मान के साथ. गरिमा के साथ- सूपा लाहती पीठी है ताउंखे आई गोई केसरीचंदा जापान की चीठी हे जापान की चीठी आई आपूं बांच केसरी है. जिस अमर शहीद के सम्मान में यह लोकगीत गाया जाता है, उनका नाम है- अमर शहीद केसरी चंद. जौनसार बावर का वह सपूत जिस...