पहाड़ और स्वयं के भीतरी तापमान को समझने में नाकाम रही बीजेपी

प्रकाश उप्रेती

पहाड़ों में गिरते तापमान के बीच चुनाव परिणामों ने हिमाचल के मौसम में गर्माहट पैदा कर दी है. इस बार के चुनाव परिणामों ने नब्बे के दशक से चले आ रहे पैटर्न को दोहराते हुए भी कई बड़े संकेत दिए हैं. इन संकेतों को “पाँच साल कांग्रेस और फिर पाँच साल बीजेपी” वाले फार्मूले से हटकर देखने की जरूरत हैं क्योंकि एक तरफ जहां बीजेपी राष्ट्रीय मुद्दों और चेहरों के साथ राज्य-दर-राज्य जीत रही है वहीं कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है. साथ ही इधर के कुछ वर्षों में बीजेपी ने जिस तरह से चुनाव लड़े हैं उसे देखकर भी इन परिणामों को सिर्फ पैटर्न के तौर पर नहीं देखा जा सकता है. बीजेपी निकाय से लेकर लोकसभा तक के चुनावों को पूरी ताकत से लड़ती है. हिमाचल में तो पाँच साल उसकी सरकार रही है और केंद्र में अनुराग ठाकुर जैसे बड़े कद के मंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष भी इसी प्रदेश से आते हैं. ऐसे में हिमाचल में बीजेपी के हाथ से सत्ता का जाना और कांग्रेस की 40 सीटों के साथ वापसी करना हाल के चुनावी नतीजों के हिसाब से बड़ी घटना है.

हिमाचल में वोटों का समीकरण देखा जाए तो, अपर हिमाचल (पहाड़ी क्षेत्र) में कांग्रेस की पकड़ और लोअर हिमाचल (मैदानी क्षेत्र) में बीजेपी की स्थिति हमेशा से बेहतर रही है. परंतु इस बार के चुनावों में यह समीकरण पहले जैसा नहीं रहा. इस बात के संकेत हिमाचल में हुए उपचुनावों से ही मिल रहे थे लेकिन बीजेपी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा.

हिमाचल के इन चुनावों में कांग्रेस की जीत के कारणों से पहले बीजेपी के हार के कारणों को समझना होगा क्योंकि उन्हीं कारणों ने कांग्रेस की जीत का आधार तैयार किया है. हिमाचल में वोटों का समीकरण देखा जाए तो, अपर हिमाचल (पहाड़ी क्षेत्र) में कांग्रेस की पकड़ और लोअर हिमाचल (मैदानी क्षेत्र) में बीजेपी की स्थिति हमेशा से बेहतर रही है. परंतु इस बार के चुनावों में यह समीकरण पहले जैसा नहीं रहा. इस बात के संकेत हिमाचल में हुए उपचुनावों से ही मिल रहे थे लेकिन बीजेपी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा. हिमाचल का यह चुनाव राष्ट्रीय बनाम क्षेत्रीय मुद्दों और नेताओं के इर्दगिर्द रहा. बीजेपी जहाँ प्रधानमंत्री मोदी के नाम तो वहीं कांग्रेस स्व. वीरभद्र सिंह के क्षेत्रीय कद और कार्यों को आगे कर चुनाव लड़ रही थी. हिमाचल की राजनीति को करीब से समझने वाले जानते हैं कि इस बार के चुनावों में कांग्रेस ने  इमोशनल कॉर्ड के तौर पर वीरभद्र सिंह के नाम को आगे करके ही चुनाव लड़ा. यह कांग्रेस की एक सोची समझी रणनीति थी. वह इस रणनीति में सफल भी हुई.

  हिमाचल की 68 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी का 25 सीटों पर सिमट जाना और कांग्रेस की 40 सीटें आने के पीछे बीजेपी की अंदरूनी खेमेबाजी की भी बड़ी भूमिका रही है. इन चुनावों में बीजेपी, कांग्रेस से 50 प्रतिशत ही लड़ रही थी बाकि का 50 प्रतिशत वह स्वयं से लड़ रही थी. हिमाचल बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी.पी. नड्डा का गृह राज्य है लेकिन वहाँ की राजनीति में वह कभी भी बड़ा फैक्टर नहीं रहे हैं. जैसा कि बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों का अपने गृह राज्यों में रहा है. इसके कारण हिमाचल में बीजेपी के कई गुट बन गए जिनमें एक घेरा मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का तो दूसरा प्रेम कुमार धूमल परिवार के इर्दगिर्द बनने लगा. इस गुटबाजी के कारण बीजेपी के लगभग 20-21 पुराने नेता बागी हो गए और उनमें से अधिकतर ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया. इसका सीधा असर बीजेपी के वोट शेयर पर पड़ा जिसका फायदा कई जगह कांग्रेस के प्रत्याशियों को मिला. बीजेपी की इस आपसी  गुटबाजी ने भी कांग्रेस लिए जमीन तैयार की थी. लोकल स्तर कांग्रेस ने इसका बड़ा प्रचार भी किया और जीत के मार्जन में उसको इसका फायदा भी मिला.

हिमाचल की पहली रैली में ही प्रियंका गांधी ने इस मुद्दे पर बोलते हुए कहा कि-“हमारी सरकार आएगी तो पहली कैबिनेट में पुरानी पेंशन स्कीम को लागू किया जाएगा”. कांग्रेस की इस घोषणा और बीजेपी को लेकर आक्रोश ने भी सत्ता परिवर्तन का नैरेटिव खड़ा करने में बड़ी मदद की.

हिमाचल पहाड़ी राज्य है.वहाँ लगभग 2.25 लाख सरकारी कर्मचारी और 1.90 लाख के आस-पास पेंशनर हैं. सरकारी नौकरी में जाने का एक बड़ा लोभ रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली पेंशन है. जब से पुरानी पेंशन स्कीम खत्म हुई तब से यह तबका बीजेपी से नाराज चल रहा था. हिमाचल में पिछले कुछ वर्षों में जो आंदोलन हुए उनमें सरकारी कर्मचारियों का पेंशन आंदोलन एक बड़ा आंदोलन रहा है. सरकारी कर्मचारियों के इस आक्रोश को कांग्रेस ने अच्छे से भुनाया. हिमाचल की पहली रैली में ही प्रियंका गांधी ने इस मुद्दे पर बोलते हुए कहा कि-“हमारी सरकार आएगी तो पहली कैबिनेट में पुरानी पेंशन स्कीम को लागू किया जाएगा”. कांग्रेस की इस घोषणा और बीजेपी को लेकर आक्रोश ने भी सत्ता परिवर्तन का नैरेटिव खड़ा करने में बड़ी मदद की.

इस बार हिमाचल के चुनावों में बीजेपी, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के साथ आप भी मैदान में थी. चुनाव कैम्पेन के आरंभिक दौर में यह कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार हिमाचल में त्रिकोणीय मुकाबला होगा क्योंकि हिमाचल के बगल वाले राज्य पंजाब में आम अदामी पार्टी की सरकार बन चुकी थी और वह बहुत जोर-शोर से हिमाचल के चुनावों में उतरी थी. लेकिन जैसे-जैसे मौसमी पारा गिरता गया और चुनावी पारा बढ़ता गया वैसे-वैसे आम आदमी पार्टी सिमटती गई. आप ने हिमाचल की बजाय दिल्ली और गुजरात पर ज्यादा फोकस किया. हिमाचल के चुनावी मैदान से आम आदमी पार्टी का गायब होना भी कांग्रेस को फायदा पहुंचा गया. इस बात की तस्दीक हिमाचल के वोट शेयर (बीजेपी-43.00, कांग्रेस- 43.90 और आप-1.10) भी करते हैं. बीजेपी और कांग्रेस के बीच में .90 प्रतिशत का अंतर है. हिमाचल जैसे छोटे राज्य में जहाँ विधानसभा में जीत-हार का अंतर बहुत कम रहता है वहाँ पर आगर ‘आप’ का वोट शेयर थोड़ा भी बढ़ता तो उसका सीधा असर सीटों पर पड़ता. पिछले उत्तराखण्ड, गोवा और अभी गुजरात चुनावों के आंकड़ों को देखें तो उससे यह बात स्पष्ट होती है कि-जहाँ-जहाँ आप का वोट शेयर बड़ा है वहाँ कांग्रेस का वोट शेयर कम हुआ है.

हिमाचल के इन चुनावों से एक बात स्पष्ट होती है कि अगर स्थानीय मुद्दों को सही तरीके से उठाया जाए और जनता के बीच उनको पहुँचाया जाए तो स्थिति बदलती है. कांग्रेस ने इस बार यही किया. वह बिना बड़े ताम- झाम के जनसम्पर्क अभियान में जुटी रही और बीजेपी की नीतियों के खिलाफ माहौल बनाती रही. उसी माहौल का नतीजा चुनाव परिणामों के रूप हमें दिखाई दे रहा है.

हिमाचल में इस बार के चुनावों में जयराम ठाकुर की सराकर के खिलाफ बड़े स्तर पर आक्रोश नहीं था लेकिन जमीनी स्तर पर अलग -अलग क्षत्रों और समूह के बीच जो नाराजगी थी उसे कांग्रेस ने रणनीतिक तौर पर संगठित करने का प्रयास किया. वह चाहे किन्नौर में जल विद्युत परियोजनाओं के खिलाफ लंबे समय से चल रहे ‘नो मीन्स नो’ का आंदोलन हो या फिर जयराम ठाकुर द्वारा ‘सवर्ण आयोग’ की घोषणा के बाद अन्य तबकों में उपजा आक्रोश हो या सेब पैकिंग के सामान पर GST लगने से आक्रोशित सेब बागबानी के किसानों का आंदोलन. इस सब मुद्दों को कांग्रेस ने स्थानीय स्तर दमखम के साथ उठाया और बीजेपी सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में कामयाबी हासिल की. उसी का नतीजा यह चुनाव परिणाम हैं.

हिमाचल के इन चुनावों से एक बात स्पष्ट होती है कि अगर स्थानीय मुद्दों को सही तरीके से उठाया जाए और जनता के बीच उनको पहुँचाया जाए तो स्थिति बदलती है. कांग्रेस ने इस बार यही किया. वह बिना बड़े ताम- झाम के जनसम्पर्क अभियान में जुटी रही और बीजेपी की नीतियों के खिलाफ माहौल बनाती रही. उसी माहौल का नतीजा चुनाव परिणामों के रूप हमें दिखाई दे रहा है.

(डॉ. प्रकाश उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं हिमांतर पत्रिका के संपादक हैं और
पहाड़ के सवालों को लेकर हमेशा मुखर रहते हैं.)

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