मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—25
- प्रकाश उप्रेती
आज- ईजा, मैं और परदेश. ईजा की हमेशा से इच्छा रही कि हम भी औरों के बच्चों की तरह पढ़-लिखकर भविष्य बनाएँ. तब हमारे गाँव के बच्चों का भविष्य शहरों में जाकर ही बनता था. ईजा के लिए मुझे शहर भेजना मजबूरी और जरूरी दोनों था. ईजा बातों-बातों में कई बार कहती थीं- “च्यलेल परदेश और चेलिलि सौरास जाणे होय” (बेटे ने परदेश और बेटी ने ससुराल जाना ही है)…
मुझे ईजा ने लड़की की तरह पाला था . ईजा मुझे फ्रॉक पहनाने से लेकर घास काटने तक साथ ले जाती थीं. मेरे बाल लंबे थे तो दो चोटी बनाकर ही खेलने भेजती थीं. रात को चूल्हे में रोटी बनाती तो मैं पास में बैठ जाता था. ईजा कहती थीं- “चुल हन लाकड़ लगा और आग ले फूंकने रहिए” (चूल्हे में लकड़ी लगाकर आग फूँकते रहना).रोटी बनाते हुए अंत में एक रोटी बनाने के लिए मुझे भी देती थीं. कहती थीं- “रोट बनाण सिख ले तो भो हैं परदेश पन भूख नि रहले” (रोटी बनाना सीख ले, कल को बाहर जाएगा तो भूखा नहीं रहेगा). रोटी बनाने की ट्रेनिंग ईजा ने खेल-खेल और परदेश के नाम पर 3-4 साल की उम्र से ही दे दी थी.
मैं कभी-कभी चूल्हे के पास ही किताब लेकर बैठ जाता था. ईजा को किताब में से कुछ-कुछ सुनाता रहता. ईजा बीच- बीच में हां, हां कहती रहती थीं. कभी तो चूल्हे के पास ही बोरे में सो जाता था. ईजा कहती रहती थीं- ‘सिए झन हां, खा बे स्यले’ (सोना मत, खाकर सोना) लेकिन पता नहीं क्यों नींद आ ही जाती थी. ईजा फिर अंतिम रोटी बनाने और खाना खिलाने के लिए उठाती थीं. कई बार तो रो-रो कर उठता था.
ईजा मुझे आज भी ‘परी’ ही कहती हैं. भाई- बहन ईजा को कहते थे- “हर समय म्यर परी, म्यर परी”. ईजा बस मुस्कुरा देती थीं . मैं ईजा के थोड़ा और करीब हो जाता था.
घर में छोटा था तो ईजा का लाडला भी था. ईजा को इधर-उधर से जो भी खाने की चीज मिलती वो मेरे लिए थोड़ा बचाकर रख देती थीं. कहती थीं- ‘म्यर परी खाल’. ईजा मुझे आज भी ‘परी’ ही कहती हैं. भाई- बहन ईजा को कहते थे- “हर समय म्यर परी, म्यर परी”. ईजा बस मुस्कुरा देती थीं . मैं ईजा के थोड़ा और करीब हो जाता था.
धीरे-धीरे वो दिन भी आ गया जब ईजा को छोड़कर परदेश आना था. ‘मुझे जाना है’ सोच कर ही ईजा का ‘हिया भर’ आता था. ईजा 4-5 दिन पहले से मेरे जाने की तैयारी में लग गईं थीं और उस दौरान उन्हें जो भी मिलता उसको कहती रहती थीं- “म्यर परी ले तिराइ हैं जामो, वो बिना घर चुम्म है जाल” (मेरा बेटा भी दिल्ली जा रहा है, उसके बिना घर शांत हो जाएगा). ईजा दुःखी थीं लेकिन मुझे दिल्ली देखने की ‘हौंस’ लगी हुई थी. मैं दिल्ली को लेकर तरह-तरह के सपने बुन रहा था. जैसे-जैसे मेरे दिल्ली आने के दिन नजदीक आते ईजा दुःखी और मैं खुश होता जा रहा था.
ईजा उस रात खाना खाते हुए मुझे समझाती रहीं कि- रोड़ भलि पार कये हां, गाड़ी देख लिए, को के ड्यलो तो झन खये, अपण भली रहे हां, मन लगे बे पढ़िए . मैं रुआँसा सा चेहरा लिए बस हूँ, हूँ.. ही कह पा रहा था.
दिल्ली जाने की पहली रात ईजा ने मेरे लिए लूण पीसकर अपनी धोती के एक हिस्से में बांध दिया. साथ ही कुछ-कुछ दाल, आम का अचार, दो किलो घी, उस समय जो भी सब्जी लगी थी वो, हल्दी, मिर्च, धनिया, दो बिस्किट के पैकेट, थोड़ा मिश्री और कुंज बांधकर रख दिए. यह सब ईजा ने एक झोले में अच्छे से पैक कर दिया था. सामान रखते हुए मुझे बार -बार कहती रहती थीं- “खा लिए हां, भूख झन रहिए हां”(खा लेना, भूखा मत रहना). मैं हां की मुद्रा में सर हिलाता रहता था.
ईजा उस रात खाना खाते हुए मुझे समझाती रहीं कि- रोड़ भलि पार कये हां, गाड़ी देख लिए, को के ड्यलो तो झन खये, अपण भली रहे हां, मन लगे बे पढ़िए (रोड़ अच्छे से पार करना, गाड़ी देख लेना, कोई कुछ दे तो खाना मत, अच्छे से रहना, मन लगाकर पढ़ना). मैं रुआँसा सा चेहरा लिए बस हूँ, हूँ.. ही कह पा रहा था. उस रात ईजा मुझे हर सीख दे देना चाह रही थीं…
ईजा सुबह- सुबह 3 बजे उठ गईं . चाय बनाई, सर्दियों के दिन थे तो पानी गर्म किया, पूरी और आलू के गुटके बनाए. उसके बाद मुझे जगाया. मैंने भी उठकर चाय पी, दो पूरी और सब्जी खाई. ईजा ने तबतक मेरे रास्ते के लिए 6 पूरी, अचार और आलू के गुटके बांध दिए थे. बाहर अब भी अंधेरा था. चारों तरफ कोहरा लगा हुआ था. समय तकरीबन 4.30 हो रहा होगा. रोडवेज पकड़ने के लिए हमें किसी भी हालत में 5.30 बजे तक रोड़ में पहुंच जाना था.
ईजा ने मुझे पिठ्या लगाया और मेरे हाथ से 2 रुपए का सिक्का छुवा कर मंदिर पर रख दिया और बोलीं- ‘भगपति मेर च्यलेक रक्षा करिए’…
ईजा पूरे रास्ते मुझे क्या करना, क्या नहीं करना, कैसे रहना है, सब बताती जा रही थीं. मैं बस हूँ.. हूँ… कर रहा था. मुझे अंदर ही अंदर अब रोना आ रहा था लेकिन चुप था. इसलिए ईजा को हूँ, हां में ही जवाब दे रहा था.
हम अँधेरे में ही घर से निकल आए. आगे से सर पर बैग, हाथ में लाठी और कमर पर दरांती लिए ईजा थीं तो पीछे-पीछे मैं हाथ में टॉर्च और कंधे पर एक छोटा बैग लिए चल रहा था. अब चिड़ियों के चहकने की आवाज भी आने लगी थी. ईजा बोल रही थीं कि- “च्यला उजा हणी छो अब, फटफट आ नतर गाड़ी छुट जाली” (बेटा उजाला होने वाला है, जल्दी-जल्दी आ नहीं तो गाड़ी छूट जाएगी). मैं ईजा के पीछे लगभग दौड़ कर जा रहा था. ईजा पूरे रास्ते मुझे क्या करना, क्या नहीं करना, कैसे रहना है, सब बताती जा रही थीं. मैं बस हूँ.. हूँ… कर रहा था. मुझे अंदर ही अंदर अब रोना आ रहा था लेकिन चुप था. इसलिए ईजा को हूँ, हां में ही जवाब दे रहा था.
हम भागते-भागते रोड़ पर पहुँच गए. हमें रोड़ के नीचे नदी से आते हुए दो लड़के दिखाई दिए. वह रात से मछली पकड़ने के लिए लगाई फांस से मछली पकड़ने आए हुए थे. मैं उनको जानता था. मैंने उनसे पूछा ‘रोडवेज अभी गई कि नहीं’. उन्होंने बताया ‘दिल्ली- मासी’ तो गई लेकिन ‘दिल्ली- गनाई’ आने वाली है. मैं उनसे बात कर ही रहा था कि तब तक हॉर्न की आवाज सुनाई दे गई. ईजा ने कहा – “आ गे रे रोडवेज पार ऊ” (रोड़वेज आ गई, वो दिखाई दे रही है).
अब रोडवेज हमारे पास ही आ गई थी. ईजा ने बस को हाथ दिया और बस रुक गई. मैंने ईजा के पाँव छुए और बस में बैठ गया. बस चल दी लेकिन ईजा वहीं खड़ी रहीं. मैं खिड़की से सर बाहर निकालकर ईजा को देखकर हाथ हिला रहा था लेकिन ईजा एकटक मुझे देखे ही जा रही थीं. गाड़ी जबतक ओझल नहीं हुई ईजा खड़ी रहीं और मैं खिड़की से देखता रहा. इधर बस ओझल हुई और उधर ईजा. उसके बाद आंखों से गंगा-जमुना की तरह आँसू बहने लगे…
ईजा की आँखों से मैंने पहाड़ को देखा और उनकी साड़ी का किनारा पड़कर जंगल नापे हैं. ईजा अनवरत और अडिग साधना तो हैं न ! ईजा आज भी वहीं है और हम बहुत दूर निकल आए. ईजा तब भी मुझे रोड़ तक छोड़ने आती थीं और आज भी आती हैं…
बस जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी मैं ईजा के ख्याल में खो रहा था. ईजा वहाँ पहुंच गई होंगी.. ईजा अब वो कर रही होंगी… इसी सोच में बस आगे निकलती रही और ईजा पीछे छूटती रहीं…बहुत दूर…
ईजा की आँखों से मैंने पहाड़ को देखा और उनकी साड़ी का किनारा पड़कर जंगल नापे हैं. ईजा अनवरत और अडिग साधना तो हैं न ! ईजा आज भी वहीं है और हम बहुत दूर निकल आए. ईजा तब भी मुझे रोड़ तक छोड़ने आती थीं और आज भी आती हैं…
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)