कहानी
- प्रतिभा अधिकारी
ट्रेन दिल्ली से काठगोदाम को रवाना हो गयी, मनिका ने तकिया लगा चादर ओढ़ ली, नींद कहाँ आने वाली है उसे अभी; अपने ननिहाल जा रही है वह ‘मुक्तेश्वर’. उसे मुक्तेश्वर की संकरी सड़कें और हरे-धानी लहराते खेत और बांज के वृक्ष दिखने लगे हैं अभी से, इस बार खूब मस्ती करेगी वह… सारे मामा-मौसी के बच्चे जो इक्कट्ठे हुए हैं वहाँ, शायद ये उसका नानी के घर मौज-मस्ती का आखिरी वर्ष हो. दिल्ली के एक प्रतिष्ठित इन्जीनियरिंग कॉलेज की तीसरे वर्ष की छात्रा है वह; चौथा साल प्रोजेक्ट बनाने और इंटरव्यू देने में गुजरेगा और फिर नौकरी-नौकरी और बस नौकरी! फिर कहाँ मिलने वाले हैं उसे ये दिन! मन ही मन मुस्कुरा रही है वह.
‘आजकल तू फेसबुक पर कुछ ज्यादा बैठने लगी है’ दीदी की इस आवाज ने उसकी नींद को आने से रोक दिया…. अचकचा कर उसने आँखे खोल दीं, दी यहाँ ट्रेन में भी पीछा नहीं छोड़ रही उसका. दीदी के पास रहकर तो वह पढ़ रही है दिल्ली में वह, वैसे दीदी तो पहले ही जा चुकी हैं मुक्तेश्वर… नींद अब ट्रेन की रफ़्तार के साथ उड़ चुकी थी…
उसे एक नींद का झोंका आने ही वाला था कि ‘आजकल तू फेसबुक पर कुछ ज्यादा बैठने लगी है’ दीदी की इस आवाज ने उसकी नींद को आने से रोक दिया…. अचकचा कर उसने आँखे खोल दीं, दी यहाँ ट्रेन में भी पीछा नहीं छोड़ रही उसका. दीदी के पास रहकर तो वह पढ़ रही है दिल्ली में वह, वैसे दीदी तो पहले ही जा चुकी हैं मुक्तेश्वर… नींद अब ट्रेन की रफ़्तार के साथ उड़ चुकी थी… अपने मुँह में चादर डाल वह फेसबुक के उस मित्र के बारे में सोचने लगी जिसने आजकल उसके दिल और दिमाग पर पूरी तरह कब्ज़ा किया है-राघवेन्द्र राठौर. पिछले डेढ़ साल से उसकी मित्र सूची में है- गौर-वर्ण, ऊँचा माथा और घनी मूंछे; कुल मिलाकर एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी…. हम्म… अबाउट हिम- यही कोई 29-30 साल का… ओएनजीसी में इन्जीनियर….. तब से नोटिस कर रही है उसे मनिका… सबसे अलग है वो, कोई भेड़चाल के पीछे भागने वाला नहीं… शालीन-सौम्य. बाह्य व्यक्तित्व कुछ दिन तो ठीक है; पर हमेशा मायने रखता है आंतरिक सौंदर्य; उसके शालीन व्यवहार की कायल हो गयी है वह.
जाने क्यों जब भी मनिका एफबी पर उसकी उपस्थिति का अनुभव करती है, मनिका को लगता है एक पॉजिटिव एनर्जी फ़ैल गयी है वातावरण में. मनिका को लगता है राघवेन्द्र उसका लिखा अवश्य पढ़ता है और वह भी वह भी मित्रों की वाल पर उसके विचारों को पढ़ उसकी फैन बन; उसे अनन्य मित्र मान बैठी है…. हम्म; …ऐसा तो कभी नहीं हुआ. उसके कॉलेज में आते ही अधिकतर छात्र उससे मित्रता करने को तत्पर दिखे.
कुमाउनी दूधिया रंग, छरहरी स्वर्ण-सी काया, छोटी पर सुन्दर नाक और काले बड़े नैनों वाली मनिका मेहता; पर मनिका तटस्थ बनी रहती. शर्मीली-बुद्धिमान मनिका धीरे-धीरे कैम्पस के छात्रों के बीच ‘वैक्स स्टेच्यू ऑफ मैडम तुसाद’ के नाम से नवाजी जाने लगी. अपनी सहेलियों के बीच वह इन बातों पर खूब हँसती.
राघवेन्द्र से उसकी एफबी पर बस औपचारिक बातें ही हुई थी. संकोची-शर्मीले स्वाभाव की मनिका अचानक एक दिन अपना संकोच छोड़ बैठी थी; जब एक दिन राघवेन्द्र ने अपनी क्लीन शेव्ड प्रोफाइल पिक लगायी तो मनिका ने तुरंत मैसेज में प्रतिक्रिया दी थी- “राघवेन्द्र जी! आप पर मूँछे सूट करती हैं” …. मनिका के इस मैसेज का जवाब तो नहीं आया था पर राघवेन्द्र ने तुरंत अपना प्रोफाइल चित्र बदल दिया था और बाकी क्लीन शेव्ड चित्र भी हटा लिए थे… मनिका अपने लैपटॉप के इस ओर… यह देख मन ही मन मुस्कुराई थी… ओहो! महाशय ने कहना भी मान लिया है मेरा… कई बार मनिका को लगता कि सबके बारे में पूछे राघवेन्द्र से; उसके घर, माँ, भाई-बहन आदि सबकुछ पर वह राघवेन्द्र का गंभीर स्वभाव देख चुप कर जाती… और सचमुच राघवेन्द्र ने भी कभी उसके बारे में ज्यादा जानने की कोशिश नहीं की पर क्यों! तब भी वह राघवेन्द्र की ओर खींचती चली जा रही थी. ठीक ही तो कह रही है दीदी…
मनिका ने काले रंग का स्टोल निकाला और अपने धानी खादी के कुर्ते के ऊपर से डाल लिया, बिखरे बाल, नीली डेनिम की ओरिजनल कलर की जींस, धानी कुर्ते वाली वह बाईस साल की कन्या अचानक सोलह बरस की दिखने लगी. अपने घर आने के उल्लास ने उसे किशोरी बना दिया था.
इन दिनों अब मनिका के विवाह की भी बात सोचने लगे हैं घरवाले…. बस लड़की कॉलेज में गयी नहीं कि ‘वर’ की तलाश शुरू कर देते हैं माता-पिता. कुमाउनी में तो अधिक जल्दी रहती है सबको, कन्या को ब्याह कर दूसरे घर भेजने की. कह दिया है मनिका ने- वह अपनी पढ़ाई पूरी कर ही विवाह करेगी पर इस बार बड़े मामा भी पीछे पड़ गए हैं; इन-टाइम शादी हो जाय ठीक है… पढ़ाई-वढ़ाई तो बाद में भी करती रहेगी. विवाह की बात सुन मनिका के आँखों के आगे क्यों आ जाता हैं इस अनजान व्यक्ति का चेहरा , …क्या राघवेन्द्र भी ऐसा ही सोचता है मेरे बारे में?…… पता नहीं… क्यों मनिका महसूस करती दोनों के अधिक बातचीत ना होने पर भी उसके और राघवेन्द्र के बीच अनकहा संवाद चलता रहता है, क्या ये तरंगें हैं! स्वयं से ही प्रश्न करने लगती है वो. कई बार उसकी दी ने समझाया है उसे ये झूठ-मूठ की फेसबुक में टाइम बर्बाद मत कर.
ओह! सुबह होने वाली है…. अरे ये दीदी की एक आवाज ने मुझे कहाँ से कहाँ ला दिया, कहाँ खो गयी है वह!! बस; दो घंटे में काठगोदाम आ जायेगा… थोड़ा सो लेना चाहिए… मनिका नींद को बुलाने का असफल प्रयास करने लगी….
काठगोदाम की चमकीली स्वच्छ सुबह नारंगी रंग बाल सूर्य के साथ सामने थी. स्टेशन में बिलकुल भी भीड़ नहीं थी कहाँ पुरानी दिल्ली का भीड़भरा रेलवे स्टेशन और कहाँ ये छोटा चमकता प्लेटफार्म. छोटे-छोटे दोनों बैग उठाये वह बाहर आ गयी. मनिका को टैक्सी मिल गयी ठंडी हवा सिहरन पैदा कर रही थी, लगता है स्टोल डालना पड़ेगा… मनिका ने काले रंग का स्टोल निकाला और अपने धानी खादी के कुर्ते के ऊपर से डाल लिया, बिखरे बाल, नीली डेनिम की ओरिजनल कलर की जींस, धानी कुर्ते वाली वह बाईस साल की कन्या अचानक सोलह बरस की दिखने लगी. अपने घर आने के उल्लास ने उसे किशोरी बना दिया था. टैक्सी पर चढने से पहले अचानक किसी को देख वह आश्चर्यचकित रह गयी; सामने राघवेन्द्र था, राघवेन्द्र ने भी उसे पहचान लिया- “हाय! मनिका; हाव् आर यू?” राघवेन्द्र बोला, …..’फाइन’, …. आप यहाँ! हर्ष के अतिरेक ने मनिका के कपोलों पर एक गुलाबी ब्रश चला दिया; मनिका ने अपने भाव छुपाते हुए पूछा था. “एक शादी में अपने होमटाउन नैनीताल जा रहा हूँ,” राघवेन्द्र बोला, ”और आप?” ; “मैं मुक्तेश्वर अपनी नानी के यहाँ”, मनिका का उत्तर था. “मीट माय वाइफ”, दो कदम दूर खड़ी साड़ी पहने युवती की ओर इशारा कर राघवेंद्र ने कहा, मनिका अवाक थी उसे एक जोर का झटका-सा लगा था. स्वयं को संयत कर उसने क्षीण आवाज में उस युवती को ‘हाय’ किया, उसे जैसे अनेक शूल चुभ गए. कुछ भी तो नहीं बचा था अब! एक-दूसरे को ‘बाय-बाय, सी यू’ कह कर सब अपने-अपने गंतव्य को रवाना हो गए, रास्ते भर मनिका का रोने जैसा मन था, क्यों भरोसा करने लगी थी वह स्वयं और राघवेन्द्र की मित्रता पर!
मुक्तेश्वर आ चुका था, बार- बार दी का फोन आता रहा “तू पहुँच तो गयी हैं ना ठीक से स्वेटर पहन लेना” वगैरह- वगैरह. मनिका के उतरते ही सारे भाई-बहन बाहर निकल आये… वातावरण में हर्ष- मिश्रित शोरगुल-सा तैर गया…. सभी बड़ों को प्रणाम कर मनिका “मेरे सिर में बहुत दर्द है” कह चुपचाप बिस्तर पर लेट गयी…., कहीं बुखार तो नहीं! ….कहीं ठण्ड तो नहीं लग गयी!! माँ, नानी सब स्पर्श कर पूछने लगी….
सारे घर में शोरगुल मचाने वाली मनिका इतनी देर से बिस्तरे में है. दीदी ने कमरे में आकर पूछा, “क्या हुआ मनिका? तू उदास क्यों लग रही है मुझे?”, ‘दीदी! सिसकियाँ ले-लेकर मनिका ने बताया था…..’ वो मैंने आपको राघवेन्द्र के बारे में बताया था ना दी; ….. राघवेन्द्र मैरीड है; आज मिला था वह मुझे दीदी’ यह कह वह रोने लगी थी, मैंने कहा था ना तुझसे! इन फेसबुक मित्रों के चक्कर में मत पड़’, फिर दीदी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी…’ उसने तुझसे कोई वादा किया था?, वो तुझे बेवकूफ बनाता रहा और तू बनती गयी… क्या वो ये सब कुछ तुझे पहले नहीं बता सकता था!” नहीं-नहीं दीदी…ऐसा कुछ भी नहीं है… उससे मेरी इतनी बातें ही कहाँ हुई थी; मुझे ही गलतफहमी हो गयी थी… मैं ही बिना कुछ सोचे-समझे चाहने लगी थी उसे.” अब चौकने की बारी दीदी की थी, “तुझसे कोई ज्यादा बात नहीं हुई थी… तो बेवकूफ!, पागल लड़की! क्यों इतना दुखी है उसके बारे में सोचकर”. अब दीदी के स्वर में पुचकार नहीं बल्कि करारी फटकार थी… “ये सिर्फ तेरा इल्यूजन था…. चल उठ अब”.
फेसबुक से एलर्जी हो गयी है उसे अब… बिलकुल भी दुखी नहीं होना चाहती वो अब, अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहना चाहती है वो; वापस दिल्ली आकर दोस्त उसे फेसबुक में आने को कहते, आखिर एक दिन उसने बेमन से अपना एकाउंट खोला, मैसेज बॉक्स में कई मैसेज थे. क्या पता कोई जरुरी हो; ये सोच उसने मैसेज बॉक्स खोला, वो चौंक गयी… राघवेन्द्र के दो मैसेज!!
छुट्टियाँ कब बीत गयी पता ही नहीं चला बस; इस बार हरे खेत, चेरी के पेड़ों पर चहकती चिडियाँ, सामने श्वेत हिमालय और ठंडी प्राणवायु ना जाने क्यों; कुछ भी अच्छा नहीं लगा था मनिका को.
फेसबुक से एलर्जी हो गयी है उसे अब… बिलकुल भी दुखी नहीं होना चाहती वो अब, अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहना चाहती है वो; वापस दिल्ली आकर दोस्त उसे फेसबुक में आने को कहते, आखिर एक दिन उसने बेमन से अपना एकाउंट खोला, मैसेज बॉक्स में कई मैसेज थे. क्या पता कोई जरुरी हो; ये सोच उसने मैसेज बॉक्स खोला, वो चौंक गयी… राघवेन्द्र के दो मैसेज!!
- ‘हाय! मनिका, …कैसी हो? …क्या मैं तुमसे बात कर सकता हूँ? …अपना फोन नं. तुम्हें भेज रहा हूँ…. कैसा लगा मेरा सरप्राइज? …जिनसे तुम्हें मिलाया था ना! वो मेरी भाभी हैं, वैसे मेरी माँ आजकल मेरे लिए दुल्हन ढूंढ रही हैं.
- ‘हाय! मनिका तुम बहुत दिन से नहीं दिखी, तुमसे मेरी अधिक बातें नहीं हुई हैं… पर मैं एक बार तुमसे मिलना चाहता हूँ, मैं जैसा तुम्हारे लिए फील करता हूँ; क्या तुम भी वैसे ही सोचती हो मेरे लिए?
मनिका को लगा उसे खुशी के मारे हार्ट -अटैक आ जायेगा; इडियट! वह बुदबुदाई…. उसके आँखों से अविरल आँसू बह निकले, सामने कवर पेज पर लगे बुराँश के पेड़ पर अचानक से बेमौसम अनेक चटख रानी रंग के बुराँश खिल उठे…
(लेखिका कौसानी, उत्तराखंड की मूल निवासी हैं. वर्तमान में प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में रह रही हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेखक प्रकाशित. ‘हिमालय से ऐल्प्स‘ तक यात्रा संस्मरण प्रकाशाधीन. पठन-पाठन, लेखन, बाग़वानी एवं भ्रमण आदि का शौक)