पुण्यतिथि (8 जुलाई) पर विशेष
- डॉ. मोहन चन्द तिवारी
आज उत्तराखंड की लोक संस्कृति के पुरोधा वंशीधर पाठक जिज्ञासु जी की पुण्यतिथि है. जिज्ञासु जी ने कुमाऊं और गढ़वाल के लोक गायकों, लोक कवियों और साहित्यकारों को आकाशवाणी के मंच से जोड़ कर उन्हें प्रोत्साहित करने का जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया और आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले अपने लोकप्रिय कार्यक्रम ‘उत्तरायण’ के माध्यम से देशभर में पहाड़ की संस्कृति का लंबे समय तक प्रचार-प्रसार किया,उसके लिए उन्हें उत्तराखंड के लोग सदा याद रखेंगे.
जिज्ञासु जी को प्रारम्भ से ही कविताएं और कहानियां लिखने का बहुत शौक था. इसलिए इनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी. वर्ष 1962 में उनके मित्र जयदेव शर्मा ‘कमल’ ने उन्हें आकाशवाणी में विभागीय कलाकार के रूप में आवेदन करने को कहा. उस समय 1962 में चीनी हमले के बाद भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश के सीमांत जिलों के श्रोताओं के लिये ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम शुरू किया था.
वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी का जन्म अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट विकासखंड के कफड़ा गांव में 21फरवरी 1934 को हुआ. बचपन में ही वंशीधर अपने पिता के साथ देहरादून और उसके बाद शिमला चले गए.इसलिए उनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा भी वहीं पर हुई.उन्होंने कक्षा छह से हाईस्कूल तक की परीक्षा शिमला में उत्तीर्ण की. जिज्ञासु जी को प्रारम्भ से ही कविताएं और कहानियां लिखने का बहुत शौक था. इसलिए इनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी. वर्ष 1962 में उनके मित्र जयदेव शर्मा ‘कमल’ ने उन्हें आकाशवाणी में विभागीय कलाकार के रूप में आवेदन करने को कहा. उस समय 1962 में चीनी हमले के बाद भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश के सीमांत जिलों के श्रोताओं के लिये ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम शुरू किया था. वर्ष 1963 में वंशीधर पाठक जी की आकाशवाणी के ‘उत्तरायण’ में विभागीय कलाकार के रूप में नियुक्ति हो गई. इस कार्यक्रम को पहले जयदेव शर्मा ‘कमल’ और जीत जरधारी संचालित कर रहे थे. बाद में वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ और जीत जरधारी ने इसका संचालन किया. इनके संचालन के दौरान ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम तब पहाड़ के घर -घर में सबसे अधिक लोकप्रिय कार्यक्रम बन गया.
जिज्ञासु जी ने भारत-चीन युद्ध के समय उत्तराखंड के फौजियों की वीरता और यहां की लोक संस्कृति से जुड़ाव के लिए ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम का इतने सुंदर ढंग से संचालन किया कि पंद्रह मिनट तक चलने वाला आकाशवाणी का यह कार्यक्रम आगे चलकर इतना लोकप्रिय हुआ कि इसे एक घंटे तक प्रसारित किया जाने लगा. इस कार्यक्रम के माध्यम से कुमाऊं गढ़वाल के लोक गायकों,लोक कवियों और साहित्यकारों को विशेष प्रोत्साहन दिया गया.
इस कार्यक्रम के माध्यम से जहां एक ओर पहाड़ के कलाकारों और गीतकारों को मंच मिल सका, तो वहीं दूसरी ओर पहाड़ की लोक संस्कृति से जुड़े त्योहारों और मेले उत्सवों का सांस्कृतिक महत्त्व भी देश और दुनिया के सामने आने लगा. उस दौर में उत्तराखंड की बोलियों का कोई भी नया-पुराना कवि, लेखक, गायक, वादक, लोक-कलाकार नहीं बचा होगा जो ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम का मेहमान न बना हो और उसकी रचनाएं आकाशवाणी से प्रसारित नहीं हुई हों.
दरअसल, जिज्ञासु जी और जरधारी जी उन दिनों ‘उत्तरायण’ के संचालक ही नहीं बल्कि लखनऊ में उत्तराखंड की संस्कृति को सींचने वाले समर्पित रंगकर्मी कलाकार के रूप में भी प्रसिद्ध हो चुके थे. दुदबोलि के प्रति आत्मीयता से भरे इस जोड़ी के सौजन्य से दूरदराज की उपेक्षित और लोगों के भीतर छिपी पहाड़ की प्रतिभा को बाहर लाने का सुअवसर मिला. इस कार्यक्रम के माध्यम से जहां एक ओर पहाड़ के कलाकारों और गीतकारों को मंच मिल सका, तो वहीं दूसरी ओर पहाड़ की लोक संस्कृति से जुड़े त्योहारों और मेले उत्सवों का सांस्कृतिक महत्त्व भी देश और दुनिया के सामने आने लगा. उस दौर में उत्तराखंड की बोलियों का कोई भी नया-पुराना कवि, लेखक, गायक, वादक, लोक-कलाकार नहीं बचा होगा जो ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम का मेहमान न बना हो और उसकी रचनाएं आकाशवाणी से प्रसारित नहीं हुई हों.
“जिज्ञासु माने श्री बंशीधर पाठक जी”- इस शीर्षक से लिखे अपने संस्मरण में ज्ञान पंत जी पाठक जी के साथ अपने अनुभवों को साझा करते हुए लिखते हैं कि “तब के स्वतंत्र भारत जैसे प्रतिष्ठित पत्र में जब तीन चार महीने के अन्तराल में मेरी पाँच सात कुमाऊँनीं परिप्रेक्ष्य की कहानियाँ छपीं तो जिज्ञासु जी द्वारा मेरा संज्ञान लिया जाना स्वाभाविक था. उनकी आदत थी कि शहर के पहाड़ियों के घर घर जाकर वे आकाशवाणी के उत्तरायण हेतु गढ़वाली और कुमाऊँनीं कार्यक्रम के लिए लेखक, कवि और वार्ताकार ढूँढते ही नहीं थे बल्कि तैयार भी करते थे. न जाने कितनी सामान्य पढ़ी लिखी (और कई बार अनपढ़ भी) गृहणियों को भी समझा बुझा कर सीधे रिकार्डिंग करवा देते. रेडियो कान्ट्रेक्ट लेकर वे स्वयं घर घर देने जाते.”
वंशीधर जिस समय ‘उत्तरायण’ में आए तो उन्हें कुमाऊंनी बोलने का अभ्यास बहुत कम था. क्योंकि वह बहुत छोटी उम्र में ही पहाड़ के गांव से बाहर निकल गए थे.इसलिए उन्हें इस ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम को चलाने के लिए स्वयं भी कुमाऊंनी सीखनी पड़ी. जिज्ञासु जी ने लखनऊ में सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से भी उत्तराखंड के लोक संगीत और भाषा को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया.
जिज्ञासु जी लोक संस्कृति के अनूठे चितेरे रंगकर्मी और गीतकार थे.उन्होंने कई कुमाऊंनी संस्थाओं और पत्र-पत्रिकाओं की नींव डाली. स्वयं भी उन्होंने कई नाटक लिखे और उनमें अभिनय भी किया. जीत जरधारी और अन्य मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने ‘शिखर संगम’ संस्था की स्थापना की और इस संस्था के माध्यम से लखनऊ में पहली बार कुमाउनी-गढ़वाली नाटकों का मंचन होने लगा, जिनमें ललित मोहन थपलियाल का ‘खाडू लापता’, नंद कुमार उप्रेती का ‘मी यो गेयूं, मी यो सटक्यूं’, चारु चन्द्र पांडे की हास्य कविता ‘पुंतुरी’ कविता का नाट्य रूपांतरण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं.1978 में उन्होंने ‘आंखर’ नामक संस्था के माध्यम से कुमाउनी भाषा के नाटकों को प्रकाश में लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया.
लोक संस्कृति के इस महान् पुरोधा के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता.
स्वंतंत्र भारत के कुमाउनी साहित्यकारों में ब्रजेन्द्र लाल साह, चारुचंद्र पाण्डे, शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’, पार्वती उप्रेती,जयंती पन्त, गिरीश तिवाड़ी, वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’, डा.शेर सिंह बिष्ट, डा. नारायण दत्त पालीवाल, श्री हीरासिंह राणा, श्रीमती कबूतरी देवी श्री मथुरादत्त मठपाल,आदि अनेक नामों की एक लम्बी सूची गिनाई जा सकती है; जिन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा और समर्पित भावना से अपनी मातृभूमि उत्तराखंड और वहां बोली जाने वाली कुमाऊंनी,गढ़वाली और जौनसारी दुदबोलियों को न केवल साहित्य सर्जना और समालोचना की दृष्टि से उन्नत और समृद्ध किया बल्कि उनके प्रचार प्रसार के द्वारा इन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ जोड़ने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया.
पर हमारे देश की यह विडंबना रही है कि उत्तराखंड की प्रतिभा सदा राष्ट्र के काम आती रही किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें न तो उचित सम्मान मिल पाता है और न ही हमारी उत्तराखंड की राज्य सरकार उनके साहित्यिक योगदान को सम्मानित करने की दिशा में ही कोई प्रयास करती है. इस कारण उत्तराखंड का एक विपुल साहित्य आज भी समुचित मूल्यांकन की प्रतीक्षा में है. हजारों साहित्यकारों का अभी साहित्यिक मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ. वंशीधर पाठक जिज्ञासु पहाड़ की कला संस्कृति और गायकी को समर्पित आज एक ऐसे ही उपेक्षित उत्तराखंडी साहित्यकार और रंगकर्मी हैं, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व को उतना सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वे वास्तव में हकदार रहे थे.
इस सम्बंध में वंशीधर पाठक के सहयोगी रहे वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की श्रृंखला ‘ये चिराग जल रहे हैं’ की चौथी क़िस्त में ‘जिज्ञासु’ जी के बारे में एक दर्दभरा लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें इस महान् रंगकर्मी के अंतिम दिनों पर अत्यंत मार्मिक शैली में प्रकाश डाला गया है. वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी जी के उन उद्गारों को मैं यहां इसलिए भी साझा करना चाहता हूं ताकि लोग जान सकें कि हमारा पर्वतीय समाज कितना स्वार्थी और आत्म केंद्रित है कि जब तक व्यक्ति पद पर रहता है तब तक ही उसका गुणगान करता है.बाद में पदमुक्त होने के बाद खुद भी उससे मुक्त हो जाता है. जिज्ञासु जी अपने जीवन काल के दौरान ही इस अकेलेपन और उपेक्षा भाव की आत्मपीड़ा से व्यथित हो चुके थे और अपनी इस पीड़ा को उन्होंने अपने शिष्य तुल्य सहयोगी नवीन जोशी को व्यक्त किया था.नवीन जोशी इस सम्बंध में लिखते हैं – “रिटायर होने के बाद आकाशवाणी ने उनकी (जिज्ञासु जी की) क्षमता और अनुभव का कोई मोल नहीं लगाया और न ही यह श्रेय उन्हें दिया कि ‘उत्तरायण’ की लोकप्रियता और स्तर के पीछे डेढ़ पसलियों के इस व्यक्ति का भी कोई हाथ था. ‘उत्तरायण’ क्रमश: अपनी गति को प्राप्त होता रहा और जिज्ञासु उपनामधारी व्यक्ति के भीतर उसके पतन की पीड़ा ग्रंथियां बन कर जमा होती रहीं. उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटने वाली भीड़ नदारद हो चुकी थी. सुख-दुख बांटने के लिए नंद कुमार उप्रेती जैसे कुछेक दोस्त बचे थे लेकिन वे भी जल्दी साथ छोड़ गये. जब कभी मैं उनके पास जाता तो शिकायतों का पुलिंदा तैयार रहता- ‘कोई नहीं आता यार, अब. और मैं कहीं जा नहीं पाता. अब मैं पढ़ भी नहीं पाता.” (सन्दर्भ: नवीन जोशी जिज्ञासु : ‘ अचल ’ की परम्परा के वाहक, जनमत)
जब भी वंशीधर पाठक को ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम के लिए कुमाऊंनी-गढ़वाली वार्ताकार चाहिए होते, या कवि-गीतकार की जरूरत होती थी, तो उनकी तलाश के लिए वे लखनऊ के पहाड़ियों के घर-घर जाते. और एक शिष्य के रूप में उनके साथ नवीन जोशी भी सदा साथ रहते थे.
यह है हमारे उत्तराखंड के एक समर्पित साहित्यकार और रंगकर्मी की आपबीती का सच. पद समाप्त होते ही उसकी मूल्यवत्ता और गुणवत्ता भी समाप्त हो जाती है.मैंने दिल्ली में भी कुमाऊंनी और गढ़वाली साहित्य और संस्कृति को पहचान दिलाने वाले लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों डा. नारायण दत्त पालीवाल,डा.गोविंद चातक, श्री कुलानन्द भारतीय, श्री हीरा सिंह राणा,आदि अनेक साहित्यकार विद्वानों के बारे में ऐसे ही कटु सत्य का अनुभव किया है.जब तक ये लोग पद पर रहे तभी तक छुटभैय्ये साहित्यकार उनके इर्द गिर्द चक्कर काटते रहे परन्तु जब वे लाभ देने की स्थिति में नहीं रहे तो इन्होंने भी उनसे किनारा कर लिया और समाज ने भी उन्हें भुला दिया. पर शिष्य और पत्रकार एक ऐसा प्राणी होता है जो अपने गुरु को और साहित्य और समाज को दिशा देने वाले साहित्यकारों को कभी नहीं भुलाता, जन्मदिन और पुण्यतिथि पर उनके योगदान का संज्ञान अवश्य लेता ही है.
पत्रकार नवीन जोशी ने भी गुरुतुल्य जिज्ञासु जी के बारे में शिष्यभाव से अपने संस्मरण लिखते हुए कहा है कि वंशीधर पाठक जी का लोक संस्कृति का उत्थान किसी स्कूल या आश्रम खोल कर या कोई कक्षा या लेक्चर देकर नहीं चलाया गया था, बल्कि लखनऊ के पहाड़ियों के घरों तक जाने वाली सड़कें और फुटपाथ उनकी अनोखी दीक्षा के स्थान होते थे. जब भी उन्हें ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम के लिए कुमाऊंनी-गढ़वाली वार्ताकार चाहिए होते, या कवि-गीतकार की जरूरत होती थी, तो उनकी तलाश के लिए वे लखनऊ के पहाड़ियों के घर-घर जाते. और एक शिष्य के रूप में उनके साथ नवीन जोशी भी सदा साथ रहते थे.
फूलदेई पर वार्ता लिखनी हो तो शांता पाण्डे के ड्राइंग रूम में यह गीत गुनगुनाया जाता – ‘लाओ चेलियो, कुकुड़ी का फूल… फूल टिपी तौ बोकिये ले खै छौ…’. पाठक जी कभी लिपे-पुते ऐपण डले छापरी को सिर पर धरे बच्चों की टोली के देहरी पूजन, गुड़-चावल पाने की किसी कविता को ठीक करते या फिर दुदबोलि के शब्दों को उनमें जोड़ देते.
‘द्वाराहाट में ‘स्याल्दे-बिखौती’ का मेला लगने वाला हो तो उसकी चिंता जिज्ञासु जी को सदा रहती थी कि इस पर आकाशवाणी के कुमाऊंनी कार्यक्रम में वार्ता कौन लिखेगा? और इसी तलाश में दोनों गुरु-शिष्य (वंशीधर और नवीन जोशी) की जोड़ी गौरी दत्त लोहनी जी के घर पहुंच जाती.और घर पर ही उस छोटी-सी बैठक में चाय की चुस्कियों के साथ साथ सारा द्वाराहाट का कौतिक,वहां के लोकगीत और ध्वज-निशाण सब साक्षात रूप से अवतरित हो जाते थे. फूलदेई पर वार्ता लिखनी हो तो शांता पाण्डे के ड्राइंग रूम में यह गीत गुनगुनाया जाता – ‘लाओ चेलियो, कुकुड़ी का फूल… फूल टिपी तौ बोकिये ले खै छौ…’. पाठक जी कभी लिपे-पुते ऐपण डले छापरी को सिर पर धरे बच्चों की टोली के देहरी पूजन, गुड़-चावल पाने की किसी कविता को ठीक करते या फिर दुदबोलि के शब्दों को उनमें जोड़ देते. पाठक जी की कोशिश रहती की ‘उत्तरायण’ का हर कार्यक्रम अपनी माटी की सुगंध को बिखेरता रहे इसलिए उनमें दुदबोलि के मुहावरे और लोकोक्तियां वे अपनी ओर से डाल दिया करते थे.
वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी की रचनाओं में, उन्होंने अपनी पहली कुमाऊंनी कविता ‘रणसिंग बाजौ’ 1962 में चीनी हमले के बाद लिखी थी.उनका पहला कुमाउनी कविता संग्रह ‘सिसौंण’ 1984 में, और उसके बाद हिन्दी कविता संग्रह ‘मुझको प्यारे पर्वत सारे’ वर्ष 1991 में प्रकाशित हुआ.उनकी एक बहुचर्चित कविता है- ‘खतड़सींग नि मिल गैड नि मिल!’-
“अमरकोष पढ़ो, इतिहासा पत्र पल्टी
खतड़सींग नि मिल, गैड़ नि मिल!
कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन-
गणत करै, जागर लगा-बैसि भैट्यूं,
रमौल सुणौं भारत सुणौं-
खतड़सींग नि मिल,गैड नि मिल.
स्याल्दे बिखैति गयूं, देवधुरै बग्वाव गयूं,
जागसर गयूं, बागसर गयूं अल्मोडै कि नंदेबी गयूं खतड़सिंह नि मिल, गैड़ नि मिल!
तब मैल समझौ खतड़सींग और गैड़ द्वी अफवा हुनाल! लेकिन चौमास निंगाव नानतिन थैं पत्त लागौ- कि खतडुवा एक त्यार छ-उ लै सिर्फ कुमूंक ऋतु त्यार.”
8 जुलाई को आज वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी की पुण्यतिथि है. उत्तराखंड के लोक साहित्य और लोक संस्कृति के इस पुरोधा को शत शत नमन! अभिवंदन!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)