- जे. पी. मैठाणी
बांस के संसार में बांस की कुल प्रजातियों को वानस्पतिक वर्गीकरण के आधार पर दो प्रमुख भागों में बांटा गया है. प्रथम बॅम्बूसा प्रजातियां जैसे- बॅम्बूसा पॉलिमार्फा, बॅम्बूसा वल्गेरिस, बॅम्बूसा बैम्बूस, बॅम्बूसा टुल्डा, बॅम्बूसा बालकोआ, बॅम्बूसा मल्टिप्लैक्स आदि. डैन्ड्राकैलेमस की प्रजातियों में डैन्ड्राकैलेमस एस्पर, डैन्ड्राकैलेमस हैमल्टोनाई, डैन्ड्राकैलेमस हेटरोस्टैचिया, डैन्ड्राकैलेमस लॉन्गिंपैथस, डैन्ड्राकैलेमस सिक्किमेन्सिस आदि.
यह एक बहुत ही रोचक बात है कि बांस की प्रजातियों का उद्भव पृथ्वी पर लगभग 30 मिलियन वर्ष पहले हुआ. डायनासोर के विलुप्ति के बाद ही पृथ्वी पर बांस प्रजातियां उत्पन्न हुई हैं. आज हम आपको मूलतः म्यांमार, थाइलैण्ड, बांग्लादेश में पाए जाने वाले एक विशिष्ट बांस बॅम्बूसा पॉलिमार्फा के बारे में जानकारी दे रहे हैं. यह जानकारी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आजकल त्रिपुरा, असम आदि राज्यों में बॅम्बूसा पॉलिमार्फा जिसको बर्मा बांस भी कहते हैं पर फूल लगने के बाद बीज बन चुके हैं. बांस में कई वर्षों बाद फूल लगते हैं और बीज बनने के बाद वह बांस धीरे-धीरे संपूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है.
बॅम्बूसा बांस की 91 जीनस हैं और लगभग 1000 प्रजातियां हैं जबकि डैन्ड्राकैलेमस की 57 प्रजातियां हैं.
आज हम आपको बॅम्बूसा पॉलिमार्फा जिसके कुछ बीज मुझे कल प्राप्त हुए उस बांस की जानकारी देने का प्रयास कर रहे हैं.
बॅम्बूसा पॉलिमार्फा बांस का परिचय-
यह बांस मूलतः म्यांमार, थाइलैण्ड और बांग्लादेश के अलावा भारत के उत्तरपूर्वी राज्यों में पाया जाता है. इस बांस को बर्मी बांस भी कहते हैं.
कल्म की जानकारी-
बॅम्बूसा पॉलिमार्फा एक मध्यम और बड़े समूह में घने रूप में उगने वाला बांस है. इसकी लम्बाई 15 से 25 मीटर तक होती है. गांठों के मध्य दूरी 40 से 60 सेमी0 और गोलाई 7 से 15 सेमी0 तक होती है. नए कल्म का रंग हल्का हरा, सफेद स्लेटी रंग लिए होता है. कभी -कभी कल्म का आधार बिल्कुल ठोस होता है और गांठों पर जड़ें निकली हुई होती हैं.
शूट्स यानी नए कंद- शूट्स पर भूरे-हरे रंग के होते हैं और ऊपर से गहरे भूरे रंग के बालों से घिरे होते हैं.
टहनियां- बॅम्बूसा पॉलिमार्फा पर बहुत सारे गुच्छों में टहनियां होती हैं जिसमें एक से तीन बड़ी टहनियां होती हैं. जो अधिकतर कल्म के लगभग मध्य भाग से ऊपर के शीर्ष तक फैली हुई होती हैं.
पत्तियां- पत्तियां भाला बरछानुमा 7 से 18 सेमी0 लम्बी और 1-2 सेमी0 चैड़ी होती हैं.
बीज- इस प्रजाति के बांस में 55 से 60 वर्ष के बाद फूल आने के पश्चात् बीज बनते हैं. इस बांस में झुण्डों में फूल लगना यानी ग्रिगेरियस फ्लॉवरिंग और बिखरे रूप यानि स्पॉरेडिक फ्लॉवरिंग दोनों प्रकार से फ्लॉवरिंग होती है. और उसके पश्चात् बीज बनते हैं. बीज बनने के बाद पौधे की मृत्यु हो जाती है. बांग्ला देश में वर्ष 1981-82 और अभी हाल में त्रिपुरा और आसपास के क्षेत्रों में 2019-20 में इस बांस पर बीज बने हैं.
पर्यावास- बॅम्बूसा पाॅलिमार्फा अर्द्धआद्र क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है इसके लिए गहरी उपजाऊ मिट्टी उपयोगी होती है. यह अधिकतर ढालूदार पहाड़ियों और घाटियों में जहाँ मिश्रित एवं पर्णपाती जंगल जैसे सागवान के जंगलों के मध्य भी भलीभांति उग जाता है. इसे दक्षिणपूर्व एशिया का बांस माना जाता है.
उपयोग- इस बांस का उपयोग बहुत सारे कार्यों में किया जाता है. जैसे- छप्पर, झोपड़ी घर निर्माण, चटाई बुनाई, टोकरी फर्नीचर, हस्तशिल्प निर्माण के अलावा कागज और बोर्ड बनाने में किया जाता है. इसके नये शूट्स से विशिष्ट प्रकार की मीठे स्वाद वाली सब्जियां और अचार बनाये जाते हैं. लैण्डस्केपिंग, उद्यानीकरण में इस बांस का उपयोग किया जाता है.
श्री दुरई बताते हैं कि भारत में ऐसे स्थान जो ट्रॉपिकल जोन में आते हैं जैसे उत्तर पूर्व के राज्य (मेघालय, मिजोरम, अरूणाचल, असम, त्रिपुरा आदि) के अलावा दक्षिण में तमिलनाडु, केरल तथा महाराष्ट्र के कुछ हिस्से और ऐसे स्थान जो कम ऊँचाई वाले हैं जहाँ वर्षा अधिक होती है. हवा में नमी अधिक होती है और गर्मी भी जिन स्थानों में खूब होती है वहाँ बॅम्बूसा यानी ऐसे बांस जो विशालकाय होते हैं, इस प्रजाति के सभी बांस अच्छी बढ़त के साथ बढ़ते हैं.
बांस के विशेषज्ञ एवं इनबार (इंटरनैशनल बैम्बू एंड रतन ऑर्गेनाइजेशन) यानी बांस एवं बेंत के अंतर्राष्ट्रीय संगठन के प्रतिनिधि श्री जयरमन दुरई जो वर्तमान में बीजिंग में कार्य कर रहे हैं ने बातचीत में मुझे बताया कि बांस को चार प्रमुख गुणों जैसे बांस की गोलाई, वॉल थिकनेस यानि मोटाई, इंटरनोडल लेंथ यानि दो गांठों के मध्य दूरी और हाइट ऑफ क्लम्प यानी बांस के डंडे की ऊँचाई/लम्बाई इन 4 गुणों के आधार पर उसकी उपयोगिता, महत्व ओर मजबूती का ज्ञान होता है.
श्री दुरई बताते हैं कि भारत में ऐसे स्थान जो ट्रॉपिकल जोन में आते हैं जैसे उत्तर पूर्व के राज्य (मेघालय, मिजोरम, अरूणाचल, असम, त्रिपुरा आदि) के अलावा दक्षिण में तमिलनाडु, केरल तथा महाराष्ट्र के कुछ हिस्से और ऐसे स्थान जो कम ऊँचाई वाले हैं जहाँ वर्षा अधिक होती है. हवा में नमी अधिक होती है और गर्मी भी जिन स्थानों में खूब होती है वहाँ बॅम्बूसा यानी ऐसे बांस जो विशालकाय होते हैं, इस प्रजाति के सभी बांस अच्छी बढ़त के साथ बढ़ते हैं. इस प्रजाति के बांस अधिकतर समुद्र तल से लगभग 1000 मीटर तक की ऊँचाई तक काफी बढ़िया ढंग से उग जाते हैं. इस प्रजाति के बांस में बीज अपेक्षाकृत लम्बे धान जैसे दिखने वाले और बीजों के ऊपर एक ही आवरण होता है. इनको कैरियोप्टिक सीड्स कहते हैं. वे सभी बॅम्बूसा प्रजाति में आते हैं.
जबकि डैन्ड्राकैलेमस प्रजाति के बांस अपेक्षाकृत कम नमी वाले, कम वर्षा, कम गर्मी के साथ-साथ पहाड़ी क्षेत्रों में समुद्र तल से 1400 मीटर तक उग जाते हैं. इस प्रजाति के बांस जहाँ एक ओर गरम, अधिक आर्द्रता, अधिक वर्षा में अच्छे बढ़ते हैं. इस प्रजाति के बांसों की गोलाई कम होती है. बीजों के ऊपर एक के बाद एक कई आवरण होते हैं.
एक अपवाद के रूप में डैन्ड्राकैलेमस स्ट्रिक्ट्स यानी लाठी बांस समुद्र तटीय इलाकों, सूखे इलाकों में भी हो जाता है. इसी प्रकार बॅम्बूसा बैम्बूस नाम का बांस कम बारिश वाले क्षेत्रों में भी हो जाता है. यानी इनमें अनुकूलन की क्षमता अधिक होती है. लाठी बांस तो खूब बारिश वाले क्षेत्रों के अलावा सूखे क्षेत्रों दोनों में आसानी से हो जाता है.
श्री दुरई बताते हैं कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों के लिए डैन्ड्राकैलेमस प्रजाति उपयोगी होगी क्योंकि यह प्रजातियां रिंगाल की तरह ठंड को झेल सकती हैं. जबकि उत्तराखण्ड के लिए तराई, मैदानी और गंगा घाटी से लगे क्षेत्रों में बैम्बूसा प्रजाति के बांसों का रोपण बहुत लाभदायक होगा.
कल का मेरा अनुभव और बॅम्बूसा पॉलिमोर्फा की कहानी-
आई.एम.आई. के बैम्बू फोकस ग्रुप में परसों डॉ. पवन कौशिक जी ने त्रिपुरा में इसके बीजों की उपलब्धता के बारे में बताया था. उनसे फोन पर वार्ता के पश्चात् त्रिपुरा के सप्लायर से बात हुई, उसने 1 किग्रा0 बीज की कीमत 6 हजार रूपये बताई. उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद के पूर्व सी.ई.ओ. एवं वर्तमान में वरिष्ठ सलाहकार श्री. एस.टी.एस. लेप्चा ने उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद से सम्पर्क करने की बात कही तो मनोज जोशी (आजीविका वाटिका/ नर्सरी कॉर्डिनेटर) ने मुझे लगभग 75 ग्राम बीज दिए. 50 बीज मैंने डिस्टिल्ड वॉटर में भिगोकर रख दिये हैं जर्मीनेशन को जांचने के लिए.
हालांकि पर्वतीय क्षेत्रों यानि ठंडे इलाकों में पॉलिमार्फा बहुत अच्छे ढंग से विकसित नहीं होगा, लेकिन प्रयोग और कोशिश जारी है.
(लेखक पहाड़ के सरोकारों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपलकोटी में ‘आगाज’ संस्था से संबंद्ध हैं)