आदमी को भूख जिंदा रखती है
- नीलम पांडेय "नील"
ना जाने क्यों लगता है कि इस दुनिया के तमाम भूखे लोग लिखते हैं, कविताएं या कविताओं की ही भाषा बोलते हैं। जो जितना भूखा, उसकी भूख में उतनी ही जिज्ञासाएं और उतने ही प्रश्न छिपे होते हैं। अक्सर कविताएं भी छुपी होती हैं। ताज्जुब यह भी है कि उस भूखे के पास अपने ही उत्तर भी होते हैं जो कभी—कभी आसमान से तारे तोड़ लाने जैसे होते हैं, और तो और उसकी भूख में दुखों को याद करने के लिऐ पहाड़े होते हैं, बारहखड़ी, इमला होती है और कई बार बड़े-बड़े निबंध भी होते हैं बस उनको पढ़ने, सुनने और समझने वाला शायद कोई होता है। लिखने वाले को भाषा की भूख भी है, वह जितना लिखने का भूखा है उतना ही अपने देश—प्रदेश और स्थानीय भाषा के करीब होता चला जाता है, जिनकी भूख इनसे जुदा है वे किसी भी भाषा से काम चला लेने का दावा कर रहे हैं, उनको रचनाकार होने की नहीं, रचनाकार को खरीदने की भूख है। और किसी-किसी की...