Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
एक लंबे संघर्ष की कहानी है “माऊंटेन विलेज स्टे-धराली हाईट्स”

एक लंबे संघर्ष की कहानी है “माऊंटेन विलेज स्टे-धराली हाईट्स”

अभिनव पहल, उत्तराखंड हलचल, साहित्‍य-संस्कृति
विनय केडी समय कि उपलब्धता के अनुसार छोटी—छोटी यात्राएं बनाते हुए जानकारियां एकत्रित करने के काम को जारी रखा। और इन सभी यात्राओं से यह समझ में आ गया था कि आध्यात्मिक पर्यटन के साथ—साथ ग्रामीण पर्यटन की संभावनाओं पर भी काम करना होगा अन्यथा हासिल शून्य ही रहेगा।  18 अप्रैल वर्ष 2009 में आध्यात्मिक पर्यटन हेतु उत्तराखंड टेंपल्स प्रोजेक्ट की शुरुआत की। पेशे से फ़ोटोग्राफ़र और अपने करीबी मित्र मुकेश के साथ उस दौरान मैने उत्तराखंड के पौड़ी और टिहरी जनपद के कई मंदिरों का भ्रमण किया। हमें दिन भर सुदूर गावों में मंदिरों की जानकारी और फ़ोटोग्राफ़्स एकत्र करने के बाद रात्रि विश्राम हेतु शाम होते किसी बड़े कस्बे में लौटना होता था, जो अपने आप में बड़ा मुश्किल काम होता था। और उस दौरान मैने महसूस किया कि आध्यात्मिक पर्यटन की परिकल्पना बिना ग्रामीण पर्यटन के अधूरी है क्योंकि पहाड़ के गावों में अच्छे रात्रि...
वो बकरी वाली…

वो बकरी वाली…

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति, साहित्यिक-हलचल
अनीता मैठाणी उसका रंग तांबे जैसा था। बाल भी लगभग तांबे जैसे रंगीन थे। पर वे बाल कम, बरगद के पेड़ से झूलती जटाएं ज्यादा लगते थे। हां, साधु बाबाओं की जटाओं की तरह आपस में लिपटे, डोरी जैसे। सिर के ऊपरी हिस्से पर एक सूती कपड़े की पगड़ी—सी हमेशा बंधी रहती थी। चेहरे से उम्र का कोई अंदाजा नहीं लगा पाता था। झुर्री नहीं थी चेहरे पर, पर सूरज की ताप से तपकर चेहरा इतना जर्द पड़ गया था कि उम्र कोई 60-70 बरस जान पड़ती थी। उसका हफ्ते में दो दिन हमारे घर के पास से होकर गुजरना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उसके आने का नियत समय होता दोपहर से थोड़ी देर बाद और शाम होने से कुछ पहले। कोई कहता वो बहुत दूर से आती है, पर कहां से कोई नहीं जानता। आंखों की चंचलता और शरीर की चपलता 7-8 बरस के बच्चे की सी थी। पहनावा पठानिया सूट- मैरून या भूरे रंग का। कपड़े का झोला हमेशा कांधे से झूलता हुआ। हाथ में बेंत का एक पतला सोंटा- ...
चाय बनाने की नौकरी से सीईओ तक का सफर

चाय बनाने की नौकरी से सीईओ तक का सफर

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण
नरेश नौटियाल मन की बात भाग-1 15 जूलाई, 2002 से शुरू हुआ सफर आज भी जारी है। मै सन् 2002 मे बड़कोट डिग्री कालेज बी० ए० द्वितीय वर्ष की पढ़ाई रेगुलर कर रहा था। कालेज के दिनों की बात ही निराली होती है, दोस्तों के साथ खूब मौज—मस्ती, हंसी—मजाक, कालेज के दिनों के चुनावों मे जोश, रणनीति, कमरे—कमरे में वोट मागने जाना और पौंटी गांव का वो दस दिन का NSS का कैम्प। कैम्प के दौरान आपसी तालमेल से रात और दिन का खाना भी डिग्री कालेज के लड़के व लड़कियां मिलजुलकर बनाती थी। सांस्कृतिक प्रोग्राम मे भाग लेना और सहपाठियों के साथ ढेरसारी बातें करना बहुत अच्छा लगता था। देहरादून में नौकरी के साथ—साथ घूमना—फिरना भी मिल जाएगा और खूब ऐश करूंगा। पढ़ाई भी साथ—साथ होती रहेगी। लेकिन जब काम करना शुरू किया तो मौजमस्ती तो दूर, अपने सोचने के लिए भी टाइम नहीं मिल पाता था। एक काम खत्म नहीं हुआ, दूसरा शुरू एक दिन...
हर दिल अजीज थी वह

हर दिल अजीज थी वह

आधी आबादी, संस्मरण, साहित्यिक-हलचल
अनीता मैठाणी  ये उन दिनों की बात है जब हम बाॅम्बे में नेवी नगर, कोलाबा में रहते थे। तब मुम्बई को बाॅम्बे या बम्बई कहा जाता था। श्यामली के आने की आहट उसके पांव में पड़े बड़े-बड़े घुंघरूओं वाले पाजेब से पिछली बिल्डिंग से ही सुनाई दे जाती थी। उसका आना आमने-सामने की बिल्डिंग में रहने वाली स्त्रियों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। श्यामली हर दिल अजीज थी, उसको देख कर लगता ग़म उसे छूकर भी नहीं गुजरा। आंखों में कोस देकर लगाया गया काला मोटा काजल, सुतवा नाक में चांदी का फूलदार लौंग, गले में चांदी का मोटा कंठहार, हाथों में बाजूबंद-कड़े और पांव में चांदी के पाजेब। टखनों से थोड़ा ऊंचे कभी काले तो कभी गहरे नीले छींटदार लहंगा चोली पहने और पांव में काले प्लास्टिक के जूते पहने महीने दो महीने में किसी भी एक दिन प्रकट हो जाती थी श्यामली। उसके आने की ख़बर उड़ती-उड़ती सब तक पहुंच जाती। और देखते ही देखत...
रवाँई यात्रा – भाग—3  (अंतिम किस्त )

रवाँई यात्रा – भाग—3  (अंतिम किस्त )

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
भार्गव चन्दोला, देहरादून महोत्सव के अंतिम दिन सुबह आंख खुली तो ठंड का अहसास रजाई से बाहर आकर ही हुआ। नौगांव फारेस्ट गेस्ट हाउस के बाहर आये तो देखा चारों तरफ से बांज देवदार के पेड़ों के बीच सुनसान जगह पर गेस्ट हाउस बना है, आसपास का दृश्य बेहद रूमानी था मगर बांज बुरांश देवदार के बीच चीड़ के पेड़ देखकर अफ़सोस हुआ न जाने कौन व क्यों चीड़ की प्रजाति को उत्तराखंड लेकर आया होगा? चीड़ के पेड़ इतने घातक हैं कि ये बांज, बुरांस, आंवला, देवदार, चारापति, खेती सबकुछ निगलता जा रहा है। गर्मी के दिनों में इसके कारण जंगल के जंगल, पशु—पक्षी आग में स्वाह हो जाते हैं। चीड़ को रोकने के ठोस उपाय किये जाने चाहिए वर्ना हम बांज बुरांश देवदार को पूरी तरह से खो देंगे, खैर आसपास के खूबसूरत नज़ारे को मोबाईल कैमरे में कैद कर हम गेस्ट हाउस से नौगांव बाजार की तरफ निकल पड़े। आशीष जी ने एक जिम्मेदार लोकसेवक की तरह जब जब भी मै...
रवाँई यात्रा – भाग-2

रवाँई यात्रा – भाग-2

Uncategorized, उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति, हिमालयी राज्य
भार्गव चंदोला 28, 29, 30 दिसंबर, 2019 उत्तरकाशी जनपद की रवांई घाटी के नौगांव में तृतीय #रवाँई_लोक_महोत्सव अगली सुबह आंख खुली तो बाहर चिड़ियों की चहकने की आवाज रजाई के अंदर कानों तक गूंजने लगी, सर्दी की ठिठुरन इतनी थी की मूहं से रजाई हटाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कुछ समय बिता तो दरवाजे के बाहर से आवाज आई, चाय—चाय, मनोज भाई ने दरवाजा खोला तो बाहर Nimmi Kukreti Rashtrawadi हाथ में चाय लिए खड़ी थी। प्रायः मैं चाय से दूरी रखता हूँ, मगर रवाँई की उस ठिठुरन में ऐसा करना संभव न था। मैंने निम्मी से आग्रह किया, निम्मी गुनगुना पानी पिला देती तो फिर चाय का स्वाद भी लेने का आनंद बढ़ जायेगा। निम्मी झट से गुनगुना पानी भी ले आई, निम्मी के हाथ से बनी चाय में गांव की गाय के दूध का स्वाद था, निम्मी ने सभी साथियों को बहुत आत्मियता के साथ चाय पिलाकर सुबह खुशनुमा बना दी थी। बिस्तर छोड़कर बाहर आये तो बाहर क...
‘रवाँई यात्रा- भाग -1’

‘रवाँई यात्रा- भाग -1’

उत्तराखंड हलचल, साहित्‍य-संस्कृति, हिमालयी राज्य
प्रकृति, पहाड़, घाटी, यमुना नदी के मनोरम दृश्यों को निहारते हुए यमुना पुल पार कर माछ भात खाने रुके, यहां पर एक बंगाली परिवार है जिसका माछ भात का स्वाद आज उस दिशा में सफर करने वाले यात्रियों की पहली पसंद बना हुआ है भार्गव चंदोला 28, 29, 30 दिसंबर, 2019 को उत्तरकाशी जनपद की रवांई घाटी के नौगांव में तृतीय रवाँई लोक महोत्सव का आयोजन हुआ। पिछले वर्ष इस महोत्सव के साक्षी रहने के कारण इस वर्ष भी महोत्सव में बने रहने के लिए मैं काफी उत्सुक था। आयोजक मंडल की तरफ से आमंत्रण तो था ही मगर जाने वाले साथी कौन—कौन होंगे निश्चित न हो पाया था, अंततः पत्रकार साथी Dinesh Kandwal, Manoj Istwal जी के संग 28 की सुबह जाने का तय हुआ, रात को ही साथी दिनेश कंडवाल जी ने उनकी सास के अस्वस्थ होने के चलते जाने में असमर्थता जता दी। अब लगभग जाना रद्द था मगर मैं मन बना चुका था। सुबह—सुबह पत्रकार साथी मनोज इष्टव...
शहरों ने बदल दी है हमारी घुघती

शहरों ने बदल दी है हमारी घुघती

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति, हिमालयी राज्य
 ललित फुलारा शहर त्योहारों को या तो भुला देते हैं या उनके मायने बदल देते हैं। किसी चीज को भूलना मतलब हमारी स्मृतियों का लोप होना। स्मृति लोप होने का मतलब, संवेदनाओं का घुट जाना, सामाजिकता का हृास हो जाना और उपभोग की संस्कृति का हिस्सा बन जाना। शहर त्योहारों को आयोजन में तब्दील कर देते हैं। आयोजन में तब्दील होने का मतलब, मूल से कट जाना, बाजार का हिस्सा बन जाना। बाजार होने का अर्थ- खरीद और बिक्री की संस्कृति में घुल-मिलकर उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को देना लेकिन, उसका वास्तविक अर्थ खो देना। यानी अपनी जड़ों से कट जाना। जड़ से कटने का मतलब, एक पूरे परिवेश, उसकी परंपरा व संस्कृति का विलुप्त हो जाना। परिवेश और परंपरा का विलुप्त होने का मतलब, पुरखों की संजोई विरासत को धीरे-धीरे ढहा देना। शहरों में हमारी घुघुती बदल गई है। हम बच्चों के गले में घुघती की माला तो लटका रहे हैं लेकिन उनको घुघत...
अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

लोक पर्व-त्योहार, संस्मरण
हम लोग बचपन में जिस त्योहार का बेसब्री से इंतजार करते थे वह दिवाली या होली नहीं बल्कि ‘घुघुतिया’ था। प्रकाश चंद्र भारत की विविधता के कई आयाम हैं इसमें बोली से लेकर रीति-रिवाज़, त्योहार, खान-पान, पहनावा और इन सबसे मिलकर बनने वाली जीवन पद्धति। इस जीवन पद्धति में लोककथाओं व लोक आस्था का बड़ा महत्व है। हर प्रदेश की अपनी लोक कथाएं हैं जिनका अपना एक संदर्भ है। इन लोक कथाओं और उनसे संबंधित त्योहारों के कारण ही आज भी ग्रामीण समाज में सामूहिकता का बोध बचा हुआ है। उसके उलट महानगरों में लगभग सामूहिकता का लोप हो चुका है। इस कारण से ही महानगरों में पलने और पढ़ने वाली पीढ़ी के लिए त्योहारों का महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। त्योहार अब उत्सव से ज्यादा ‘इवेंट’ में तब्दील हो रहे हैं। ऐसे समय उन त्योहारों को फिर से याद करना समय के चक्र के साथ बचपन में लौटने जैसा है। हम लोग बचपन में जिस त्योहार का ...
कोठी जिसने बनाया कोटी को ‘कोटी’

कोठी जिसने बनाया कोटी को ‘कोटी’

इतिहास, उत्तराखंड हलचल
दिनेश रावत रवांई क्षेत्र अपनी जिस भवन शैली के लिए विख्यात है वह है क्षेत्र के विभिन्न गांवों में बने चौकट। चौकट शैली के ये भवन यद्यपि विभिन्न गांवों में अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं मगर इन सबका सिरमोर कोटी बनाल का छः मंजिला चौकट ही है, जो 1991 की विनाशकारी भूकम्प सहित समय-समय पर घटित तमाम घटनाओं को मात देते हुए आज भी अपने वजूद को बचाए हुए है। किसी गुप्तचर ने राज दरबार में इस बात की खबर पहुंचा दी कि बनाल पट्टी के कोटी गांव में कुछ बाहरी लोग आकर अपना राजमहल तैयार कर रहे हैं। इस बात खबर लगते ही राजा ने उन्हें दरबार में हाजिर होने का फरमान जारी कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि बस्टाड़ी नामे तोक में पहली बार जब इस भवन की बुनियाद बनाई गई तो भवन शैली के जानकार लोग इसकी विशालता की कल्पना करने लग गए। कोटी में निवास करने वालों गंगाण रावतों का यह पहला भवन था। इसलिए जैसे ही इसका निर्माण कार्य शुर...