जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—2
प्रकाश उप्रेती
आज बात- 'घनगुड़' की. पहाड़ों पर जाड़ों में जब बरसात का ज़ोर का गड़म- गड़ाका होता था तो ईजा कहती थीं "अब घनगुड़ पडील रे". मौसम के हिसाब से पहाड़ के जंगल आपको कुछ न कुछ देते रहते हैं. बारिश तो शहरों में भी होती है लेकिन घनगुड़ तो अपने पहाड़ में ही पड़ते हैं.
घनगुड़ को मशरूम के परिवार की सब्जी के तौर पर देखा जाता था. इनका कुछ हिस्सा जमीन के अंदर और कुछ बाहर होता था. जहाँ पर मिट्टी ज्यादा गीली हो समझो वहीं पर बहुत सारे घनगुड. बारिश बंद होने के बाद शाम के समय हम अक्सर घनगुड़ टीपने जाते थे. ईजा बताती थीं- "पार भ्योव पन ज्यादे पड़ रह्नल" (सामने वाले जंगल में ज्यादा पड़े होंगे). हम वहीं पहुँच जाते थे. घनगुड़ हम कच्चे भी खाते थे और इनकी सब्जी भी बनती थी. ईजा कहती थीं- "घनगुड़क साग सामेणी तो शिकार फेल छू" (घनगुड़ की सब्जी के सामने तो मटन फेल है)...
"सब...