बचपन की यादों को जीवंत करती किताब
‘मेरी यादों का पहाड़’
डॉ. अरुण कुकसाल
‘आ, यहां आ. अपनी ईजा (मां) से आखिरी बार मिल ले. मुझसे बचन ले गई, देबी जब तक पढ़ना चाहेगा, पढ़ाते रहना.’
उन्होने किनारे से कफन हटाकर मेरा हाथ भीतर डाला और बोले ‘अपनी ईजा को अच्छी तरह छू ले.’ मैंने ईजा (मां) के पेट पर अपनी हथेली रखी.
किसी ने कहा ‘भा डरल (बच्चा डरेगा). क्या कर रहे हो?’
बाज्यू (पिता) ने कुछ नहीं सुना. मुझसे बोले, ‘कितना कहा, बुला देता हूं, बुला देता हूं. नहीं मानी. कहती रही, उसकी पढ़ाई का हर्जा हो जाएगा. पढ़ाने ही की धुन थी. नहीं बुलाने दिया. कल-परसों भी मैंने कहा-तू बचती नहीं है, शायद. बुला देता हूं. फिर वही जवाब. कल मैंने जबरदस्ती जवाब भेजा.’............
‘जाने कितना पढ़ाना चाहती थी. पढ़ाने का ही सुर था उसे इजू.... ‘देखो तो ? खुद कभी इस्कूल नहीं गई. फिर भी दो-दो बेटों का पढ़ा गई’ (पृष्ठ-196).
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‘मैं फूट पड़ा, ‘...