Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
बचपन की यादों को जीवंत करती किताब

बचपन की यादों को जीवंत करती किताब

पुस्तक-समीक्षा
 ‘मेरी यादों का पहाड़’ डॉ. अरुण कुकसाल ‘आ, यहां आ. अपनी ईजा (मां) से आखिरी बार मिल ले. मुझसे बचन ले गई, देबी जब तक पढ़ना चाहेगा, पढ़ाते रहना.’ उन्होने किनारे से कफन हटाकर मेरा हाथ भीतर डाला और बोले ‘अपनी ईजा को अच्छी तरह छू ले.’ मैंने ईजा (मां) के पेट पर अपनी हथेली रखी. किसी ने कहा ‘भा डरल (बच्चा डरेगा). क्या कर रहे हो?’ बाज्यू (पिता) ने कुछ नहीं सुना. मुझसे बोले, ‘कितना कहा, बुला देता हूं, बुला देता हूं. नहीं मानी. कहती रही, उसकी पढ़ाई का हर्जा हो जाएगा. पढ़ाने ही की धुन थी. नहीं बुलाने दिया. कल-परसों भी मैंने कहा-तू बचती नहीं है, शायद. बुला देता हूं. फिर वही जवाब. कल मैंने जबरदस्ती जवाब भेजा.’............ ‘जाने कितना पढ़ाना चाहती थी. पढ़ाने का ही सुर था उसे इजू.... ‘देखो तो ? खुद कभी इस्कूल नहीं गई. फिर भी दो-दो बेटों का पढ़ा गई’ (पृष्ठ-196). ....................... ‘मैं फूट पड़ा, ‘...
अपने अस्तित्व और जीवन के सार को बचाने के लिये सामूहिक रूप से प्रकृति के संरक्षण हेतु जुटना होगा – डॉ. जोशी

अपने अस्तित्व और जीवन के सार को बचाने के लिये सामूहिक रूप से प्रकृति के संरक्षण हेतु जुटना होगा – डॉ. जोशी

पर्यावरण
“हिमालय और प्रकृति” की थीम पर मनाया जाएगा 11वां हिमालय दिवस हिमांतर ब्‍यूरो जीवन और अर्थव्यवस्था के परिग्रह के परिणामस्वरूप ही विश्व पर कोविड-19 महामारी की मार पड़ी है. मानव इतिहास में अब तक की सबसे खराब इस महामारी ने पूरे विश्व को पंगु बना दिया है और हर तरह की गतिविधि पर रोक लगा दी. हमेशा की तरह इस बार भी दुनिया भर में प्रकृति की बिगड़ते हालातों पर केवल बहस ही हुई है. इसी बीच सोशल मीडिया पर प्रकृति के सुधरते हालातों से संबंधित विभिन्न खबरें भी वायरल हुईं. कहीं ना कहीं हमें ये तो पता है कि हमने प्रकृति के साथ जो भी ज्‍यादतियां की हैं कोरोना उसी का नतीजा है. हम इस तथ्य को समझने में पूरी तरह असफल रहे हैं कि आखिरकार वो प्रकृति ही है जो हमारे भाग्य को निर्धारित करती है और अगर हम अपनी सीमाओं को पार करेंगे तो प्रकृति ही उसका हिसाब करेगी. इस दौरान खासतौर से जब कोविड-19 एक असाधारण वैश्विक आ...
“जलवैज्ञानिक वराहमिहिर और उनका मानसून वैज्ञानिक ‘वृष्टिगर्भ’ सिद्धांत”

“जलवैज्ञानिक वराहमिहिर और उनका मानसून वैज्ञानिक ‘वृष्टिगर्भ’ सिद्धांत”

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-12 डॉ. मोहन चंद तिवारी वैदिक संहिताओं के काल में ‘सिन्धुद्वीप’ जैसे वैदिक कालीन मंत्रद्रष्टा ऋषियों के द्वारा जलविज्ञान और जलप्रबन्धन सम्बन्धी मूल अवधारणाओं का आविष्कार कर लिए जाने के बाद वैदिक कालीन जलविज्ञान सम्बन्धी ज्ञान साधना का उपयोग करते हुए कौटिल्य ने एक महान अर्थशास्त्री और जलप्रबंधक के रूप में राज्य के जल संसाधनों को कृषि की उत्पादकता से जोड़कर घोर अकाल और सूखे जैसे संकटकाल से निपटने के लिए अनेक शासकीय उपाय भी किए. भारतीय जलविज्ञान की इसी परंपरागत पृष्ठभूमि में छठी शताब्दी ई. में एक महान खगोलशास्त्री तथा जल वैज्ञानिक वराहमिहिर का आविर्भाव हुआ. वराहमिहिर ने अपने युग में प्रचलित जलविज्ञान की मान्यताओं का संग्रहण करते हुए अपने ग्रन्थ ‘बृहत्संहिता’ में जलविज्ञान का सुव्यवस्थित विवेचन दो भागों में विभाजित करके किया. इनमें से एक प्रकार का जल अन्तरिक्षगत जल ह...
आत्मकथा में बस ‘अ’ और ‘ह’ बाकी कथा

आत्मकथा में बस ‘अ’ और ‘ह’ बाकी कथा

पुस्तक-समीक्षा
कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं… प्रकाश उप्रेती किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला, कटा ज़िंदगी का सफर धीरे-धीरे. जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर, वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे.. रामदरश मिश्र जी की इन पंक्तियों से विपरीत यह because आत्मकथा है. स्वयं उनका जिक्र भी आत्मकथा में है. ज्योतिष आत्मकथा 'स्व' से सामाजिक होनी की कथा है. वर्षों के 'निज' को सार्वजनिकता में झोंक देने की विधा आत्मकथा है. बशर्ते वह 'आत्म' का 'कथ्य' हो. 20वीं सदी के मध्य हिंदी साहित्य में because अनेक चर्चित आत्मकथाएं लिखी गईं  जिनमें निजी अनुभवों के साथ–साथ एक विशिष्टता बोध भी रहा . दरअसल आत्मकथा से जिस नैतिक ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है वह इन आत्मकथाओं में कम ही देखने को मिली. रूसो ने आत्मकथा को ‘कंफैशन्स’ नाम दिया तो उसके पीछे का भाव था, स्वीकार्य करने का साहस लेकिन हिंदी में जो भी आत्मकथाएँ खासकर  पुरुषों के द्वार...
शिक्षा प्रसार का ऐसा जुनून प्रताप भैया में ही देखा जा सकता था

शिक्षा प्रसार का ऐसा जुनून प्रताप भैया में ही देखा जा सकता था

स्मृति-शेष
प्रताप भैया की 10वीं पुण्यतिथि पर विशेष भुवन चन्द्र पन्त लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीति का ककहरा शुरू कर महज 25 वर्ष में उत्‍तर प्रदेश विधानसभा का सदस्य और 35 वर्ष की उम्र में उत्‍तर प्रदेश में पहली बार बनी गैरकांग्रेसी सरकार में कैबिनेट मंत्री का ओहदा पा लेने वाले प्रताप भैया यदि राजनीति के लिए बने होते तो शायद शीर्ष तक पहुंचते. लेकिन चाटुकारिता से कोसों दूर राजनीति को उन्होंने मात्र समाजसेवा के माध्यम से ज्यादा तवज्जो ही नहीं दी. लखनऊ या दिल्ली में ही बैठकर राजनीति करते तो आजीविका का प्रश्न था, इसलिए जब मंत्री पद छोड़ा तो सीधे अपने वकालत के पेशे में जुट गये. जब लोग उनसे दिल्ली,  लखनऊ में बैठकर राजनीति करने की सलाह देते तो उनका उत्तर होता, समाजसेवा केवल पद पर बैठकर ही नहीं की जा सकती,  हां नीति निर्माण में सक्रिय भागीदारी अवश्य रहती है, जब कि एक वकील के पेशे के साथ भी समाजसेवा के सा...
बेमौसम बुराँश

बेमौसम बुराँश

किस्से-कहानियां
कहानी प्रतिभा अधिकारी ट्रेन दिल्ली से काठगोदाम को रवाना हो गयी, मनिका ने तकिया लगा चादर ओढ़ ली,  नींद कहाँ आने वाली है उसे अभी; अपने ननिहाल जा रही है वह ‘मुक्तेश्वर’. उसे मुक्तेश्वर की संकरी सड़कें और हरे-धानी लहराते खेत और बांज के वृक्ष दिखने लगे हैं अभी से, इस बार खूब मस्ती करेगी वह... सारे मामा-मौसी के बच्चे जो इक्कट्ठे हुए हैं वहाँ, शायद ये उसका नानी के घर मौज-मस्ती का आखिरी वर्ष हो. दिल्ली के एक प्रतिष्ठित इन्जीनियरिंग कॉलेज की तीसरे वर्ष की छात्रा है वह; चौथा साल प्रोजेक्ट बनाने और इंटरव्यू देने में गुजरेगा और फिर नौकरी-नौकरी और बस नौकरी! फिर कहाँ मिलने वाले हैं उसे ये दिन! मन ही मन मुस्कुरा रही है वह. 'आजकल तू फेसबुक पर कुछ ज्यादा बैठने लगी है'  दीदी की इस आवाज ने उसकी नींद को आने से रोक दिया.... अचकचा कर उसने आँखे खोल दीं, दी यहाँ ट्रेन में भी पीछा नहीं छोड़ रही उसका....
जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में…

जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में…

स्मृति-शेष
'गिर्दा’ की पुण्यतिथि (22अगस्त) पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी 22 अगस्त को उत्तराखंड आंदोलन के जनकवि, गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की 10वीं पुण्यतिथि है. गिर्दा उत्तराखंड राज्य के एक आंदोलनकारी जनकवि थे, उनकी जीवंत कविताएं अन्याय के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा देतीं हैं. वह लोक संस्कृति के इतिहास से जुड़े गुमानी पंत तथा गौर्दा का अनुशरण करते हुए ही राष्ट्रभक्ति पूर्ण काव्यगंगा से उत्तराखंड की देवभूमि का अभिषेक कर रहे थे. हर वर्ष मेलों के अवसर पर देशकाल के हालातों पर पैनी नज़र रखते हुए झोड़ा- चांचरी के पारंपरिक लोककाव्य को उन्होंने जनोपयोगी बनाया. इसलिए वे आम जनता में ‘जनकवि’ के रूप में प्रसिद्ध हुए. आंदोलनों में सक्रिय होकर कविता करने तथा कविता की पंक्तियों में जन-मन को आन्दोलित करने की ऊर्जा भरने का अंदाज 'गिर्दा’ का निराला और रंगीला भी था. उनकी कविताएं बेहद व्यंग्यपूर्ण तथा तीर की तरह घायल करने ...
शहर में मिले गांधी जी और देश में मिले प्रेमचंद!

शहर में मिले गांधी जी और देश में मिले प्रेमचंद!

संस्मरण
बुदापैश्त डायरी-10 डॉ. विजया सती बुदापैश्त में गांधी ज्योतिष  गांधी जहां कहीं भी हों, उस because जगह जाना, उनके साथ पल भर को ही सही, बस होना मुझे प्रिय है. और गांधी विश्व में कहां नहीं? तो because बुदापैश्त में भी मिले. .. गैलर्ट हिल पर ! इस नन्हीं खूबसूरत पहाड़ी because पर है- गार्डन ऑफ़ फिलॉसफी या फिलॉसफर्स गार्डन ! ज्योतिष यहाँ धातु और ग्रेनाईट से because बनी कई प्रतिमाएं स्थापित हैं. शानदार हैं प्रवेश द्वार because पर लिखी पंक्तियां .. For a better understanding of one another. आप मानें या न मानें ..दरकार तो यही है आज ! ज्योतिष विश्व की विभिन्न संस्कृतियों because और धर्म की प्रतीक आकृतियाँ यहाँ एक गोलाकार में संजोई गई हैं, धातु की पांच मुख्य आकृतियाँ हैं - इब्राहिम, अखनातेन, ईसा मसीह, बुद्ध और लाओत्से की. कला के माध्यम से सहनशीलता because और शांतिपूर्ण सहस्तित्व...
गुड़ की भेलि में लिपटे अखबार का एक दिन

गुड़ की भेलि में लिपटे अखबार का एक दिन

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—44 प्रकाश उप्रेती आज किस्सा- “ईजा और अखबार” का.  ईजा अपने जमाने की पाँच क्लास पढ़ी हुई हैं. वह भी बिना एक वर्ष नागा किए. जब भी पढ़ाई-लिखाई की बात आती है तो ईजा 'अपने जमाने' because वाली बात को दोहरा ही देती हैं. हम भी कई बार गुणा-भाग और जोड़-घटाने में ईजा से भिड़ पड़ते थे लेकिन ईजा चूल्हे से “कोय्ली” (कोयला) निकाल कर जमीन में लिख कर जोड़-घटा, गुणा-भाग तुरंत कर लेती थीं. अक्सर सही करने के बाद ईजा की खुशी किसी अबोध शिशु सी होती थी. हम कहते थे- “क्या बात ईजा, एकदम सही किया है”. ईजा फिर अपने जमाने की पढ़ाई वाली बात दोहरा देती थीं. ज्योतिष तब अखबार से कोई लेना-देना नहीं था. अक्सर “गुड़ की भेली” अखबार में लपेट कर आती थी. इतना ही अखबार की उपयोगिता ईजा समझती थी लेकिन जब भी शाम को केदार के बाज़ार because जाते थे तो देखते थे कि कुछ लोग चाय पी रहे होते, कुछ हुक्का ...
दृढ़ इच्छा शक्ति से मिला मुकाम : महेशा नन्द

दृढ़ इच्छा शक्ति से मिला मुकाम : महेशा नन्द

पुस्तक-समीक्षा
डॉ. अरुण कुकसाल ‘गांव में डड्वार (अनाज मांगने की कटु प्रथा) मांगने गई मेरी मां जब घर वापस आई तो उसकी आखें आसूओं से ड़बडबाई हुई और हाथ खाली थे. मैं समझ गया कि आज भी निपट 'मरसा का झोल' ही सपोड़ना पड़ेगा.... गांव में शिल्पकार-सर्वण सभी गरीब थे इसलिए गरीबी नहीं सामाजिक भेदभाव मेरे मन-मस्तिष्क को परेशान करते थे.... मैं समझ चुका था कि अच्छी पढ़ाई हासिल करके ही इस सामाजिक अपमान को सम्मान में बदला जा सकता है. पर उस काल में भरपेट भोजन नसीब नहीं था तब अच्छी पढ़ाई की मैं कल्पना ही कर सकता था. पर मैंने अपना मन दृड किया और संकल्प लिया कि नियमित पढ़ाई न सही टुकड़े-टुकड़े में उच्च शिक्षा हासिल करूंगा. मुझे खुशी है कि यह मैं कर पाया. आज मैं शिक्षक के रूप में समाज के सबसे सम्मानित पेशे में हूं..... पर जीवन में भोगा गया सच कहां पीछा छोड़ता है. अतीत में मिली सामाजिक ठ्साक वर्तमान में भी उतनी ही चुभती है. तब मेरा ल...