Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
मन बावरा

मन बावरा

किस्से-कहानियां
लघुकथा डॉ. कुसुम जोशी मन्दी बुआ' छोटी कद काठी ,गोल मटोल, चपटी सी नाक, पक्का गेंहुआ रंग. और आदतें-"गांव में किसी से लड़ के आयेगीं, तो गाड़ी पकड़ सीधे हमारे घर और  सीढ़ीयों से ही अपने दुश्मनों में गालियों के गोले दागते हुये आयेगीं. मन्दी बुआ  बाबूजी के काका “बंशी काका  की इकलौती पुत्री थी, चौदह साल की थी जब एक खाते पीते परिवार के फौजी बेटे से शादी हो गई, सत्रह साल की थी नागालैंड में पति शहीद हो गये... फिर बंशी कका हमेशा के लिये अपने पास ले आये... ईजा बाबूजी से उनकी शिकायत करेगीं, अगर वो मन्दीबुआ को समझाने की कोशिश करें तो अपना तकिया कलाम दोहरा देगीं... “खाप ससुर का क्या जाता है, जिसके हाथ ना पांव”, तुम रह के देखों 'ददा बोज्यू' इन गांव वालों के साथ. मुहं बिचका के अपने दुश्मन के सात पुश्तो का श्राद्ध एक ही गाली में कर देगी. मन्दी बुआ  बाबूजी के काका “बंशी काका  की इकलौती पुत्री थी...
एक ऐसा पहाड़ जो हर तीसरे साल लेता है ‌मनुष्यों की बलि!

एक ऐसा पहाड़ जो हर तीसरे साल लेता है ‌मनुष्यों की बलि!

संस्मरण
एम. जोशी हिमानी  हमारे देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तराखंड में भी हर खेत, हर पहाड़ का कोई न कोई नाम होता है. मेरी जन्मभूमि पिथौरागढ़ के 'नैनी' गांव के चारों तरफ के पहाड़ों के भी नाम हैं जैसे- कोट, हरचंद, ख्वल, घंडद्यो, भ्यल आदि. नैनी के पीछे सीधे खड़ा दुर्गम, बहुत ही कम पेड़ों वाला भ्यल नामक पहाड़ अनेक डरावने रहस्यों से भरा हुआ है. इसके बारे में कहा जाता है कि यह पहाड़ हर तीसरे साल ‌मनुष्यों की बलि लेता है. अनेक आदमी-औरतें‌ आज तक इस पहाड़ से गिरकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं. उन दिनों जमतड़ गांव के लोग हफ्तों पहले से इलाके वालों को आगाह कर दिया करते थे कि भ्यल रात में तड़कने लगा है. वह अजीब-सी डरावनी आवाजें करने लगा है. इसलिए सब लोग सतर्क हो जाएं, भ्यल की तरफ जाना बंद कर दें. रात में पहाड़ के रोने, थरथराने का क्रम तब तक जारी रहता था जब तक पहाड़ से कोई गिर कर मर न जाए. उसके...
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जननायक

उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जननायक

स्मृति-शेष
विपिन त्रिपाठी की पुण्यतिथि (30 अगस्त) पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी “गांव से नेतृत्व पैदा होने तक मैं गांव में रहना पसंद करूंगा. सत्ता पगला देती है. समाजवादी बौराई सत्ता से दूर रहें.”                                 -विपिन त्रिपाठी 30 अगस्त को उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जननायक और द्वाराहाट क्षेत्र के विकास पुरुष श्री विपिन त्रिपाठी जी की पुण्यतिथि है. उत्तराखण्ड की आजादी और वहां की जनता के मौलिक अधिकारों के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष करने वाले जननायकों में कुछ ही ऐसे नेता हैं जिन्हें देवभूमि उत्तराखण्ड का गौरव माना जा सकता है, उनमें द्वाराहाट क्षेत्र के संघर्षशील नेता, जुझारू पत्रकार, ‘द्रोणांचल प्रहरी’ के संपादक, कर्मठ समाज सेवी, क्षेत्र के विधायक और उक्रांद के अध्यक्ष रहे स्व. विपिन त्रिपाठी जी का नाम सबसे ऊपर आता है. उत्तराखंड आंदोलन समेत समाज के विभिन्न क्षेत्रों में जन आंदोलनो...
‘खोपड़ा’ यही तो नाम मेरे गाँव का है

‘खोपड़ा’ यही तो नाम मेरे गाँव का है

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—46 प्रकाश उप्रेती आज बात 'खोपड़ा' की. ये मेरे 'गाँव' का नाम है. गाँव मेरे लिए सिर्फ एक शब्द नहीं बल्कि पूरा जीवन है. गाँव सुनते ही चेहरा खिल उठता है. आँखों के सामने 'वारे-पारे' (आमने-सामने) बाखे because और हमारी 'बीचेक कुड़ी' (बीच वाला घर) तैरने लगती है. गाँव सुनते ही 'भ्यार-भतेर' (अंदर-बाहर) जाती ईजा, पानी लेने 'नोह' जाते 'नन' (बच्चे), घास काटने जाती 'काखि'(चाची), 'भौजि' (भाभी) और 'स्यार पन' खेतों में काम करती 'ज्येठी' (ताई) और 'अम्मा' (दादी) नज़र आते हैं. ज्योतिष आँखों ने जब देखना शुरू किया तो उस गाँव को देखा जिसके 'भ्योव' घसियारियों से गूंजते, स्यार आपसी बातचीत से चहकी रहती, 'खो' बच्चों के खेलने से और घर बुबू की 'हड़कत:' से डोलता था. पूरा गाँव अलग-अलग तरह की आवाजों से गूँजता रहता था. शाम को कोई पानी लेने डब्बा बजाते हुए जाता, कोई बाजार जाने के लि...
‘पत्थरों का उपासक, प्रकृति का पुजारी’

‘पत्थरों का उपासक, प्रकृति का पुजारी’

पुस्तक-समीक्षा
डॉ. अरुण कुकसाल ‘सबकी अपनी जीवन कहानी होती है और सबका अपना संघर्ष होता है, सबके अपने सौभाग्य और सफलताएं होती हैं, तो अवरोध और असफलताएं भी. फिर भी हर जीवन अपने जमाने से प्रभावित होता है. अनेक जीवन अपने जमाने को जानने और बनाने में बीत जाते हैं और उनके जीवन को जमाना यों ही सोख लेता है... ऐसा ही इन पन्नों में एक सामान्य सा पर असाधारण जीवन पसरा है. कितना तो गुम भी गया होगा, पर जितना आ सका है पठनीय है और प्रेरक भी... किसी आत्मकथा को पढ़ना उस व्यक्ति को जानने-समझने के साथ उसके अन्तःमन में छिपे-दुबके अनेकों व्यक्तियों को जानना-समझना भी होता है. व्यक्ति जो दिखता है और व्यक्ति जो होता है, में एक छोटा-लम्बा जैसा भी हो पर फासला होता है. यही फासला व्यक्ति के सुख-दुःख और सफलता-असफलता का कारक भी है. आत्मकथा की शब्द-यात्रा पाठक को इन्हीं कारकों और उनसे उपजे व्यक्तित्वों से परिचय कराती है.  बहरा...
यूसर्क द्वारा एक दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय वेबिनार

यूसर्क द्वारा एक दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय वेबिनार

समसामयिक
हिमांतर ब्‍योरो उत्तराखण्ड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केन्द्र (यूसर्क) एवं अखिल भारतीय आयुर्वेदिक संस्थान (एम्स) ऋषिकेश के संयुक्त तत्वाधान में “Psychological Well-being among Youth” विषय पर एक दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय वेबीनार का आयोजन गया. अन्तर्राष्ट्रीय वेबीनार के मुख्य अतिथि प्रो. एन. के. जोशी, कुलपति, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल ने अपने सम्बोधन में वेबिनार के आयोजन को महत्वपूर्ण बताया एवं वर्तमान में काविड-19 से युवाओं पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव के बारे में विस्तार से समझाया एवं विषय को समय की आवश्यकता बताया. वेबिनार के संरक्षक एम्स के निदेशक पदमश्री प्रो. रविकान्त एवं यूसर्क के निदेशक प्रो. दुर्गेश पंत के द्वारा सभी विशेषज्ञों एवं प्रतिभागियों का स्वागत एवं आभार प्रकट किया गया. वेबिनार में यूनाइटेड किंगडम के प्रख्यात सलाहकार एवं मनोचिकत्सक डॉ. मोहन चावला के द्वारा मानसिक स्वास्थ्...
महिलाएं भी करती थी मानसूनी वर्षा की भविष्यवाणियां

महिलाएं भी करती थी मानसूनी वर्षा की भविष्यवाणियां

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-13 डॉ. मोहन चंद तिवारी प्राचीन भारतीय जलवायु विज्ञान का उद्भव तथा विकास भारतवर्ष के कृषितन्त्र को वर्षा की भविष्यवाणी की जानकारी देने के प्रयोजन से हुआ. इसलिए वैदिक काल से लेकर उत्तरवर्ती काल तक भारत में जलवायु विज्ञान की अवधारणा कृषि विज्ञान से जुड़ी रही है. भारत के ऋतुवैज्ञानिकों ने राष्ट्र कल्याण की भावना से मानसून सम्बन्धी भविष्यवाणियों के सम्बन्ध में अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्त और मान्यताएं स्थापित कीं तथा पिछले आठ हजार वर्षों से इन्हीं ऋतु वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर समूचे भारत का कृषक वर्ग अपने खेती-बाड़ी का कारोबार करता आया है. प्राचीन भारत में वर्षा के पूर्वानुमान के ज्ञान का इतिहास सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल यानी तीन सहस्राब्दी ईस्वी पूर्व से प्रारम्भ हो जाता है. सन् 1960 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने सिन्धु सभ्यता से सम्बद्ध एक प्राचीन आवा...
गागर में सागर भरती है ज्ञान पंत की कविता

गागर में सागर भरती है ज्ञान पंत की कविता

पुस्तक-समीक्षा
कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं… रेखा उप्रेती ज्ञान पंत जी की फेसबुक वॉल पर सेंध लगाकर कुछ ‘कणिक’ चख लिए तो ‘टपटपाट-सा’ पड़ गया. जिज्ञासा स्वाभाविक थी, ‘किताब’ कहाँ से मिलेगी!! संकेत समझ कर ज्ञान दा ने झट ‘भिटौली’ वाले स्नेह के साथ अपने दोनों काव्य-संग्रह भिजवा दिए... ‘कणिक’ और ‘बाटुइ’... कुमाउनी में रचित इन दोनों रचनाओं से गुज़रना अपने पहाड़ को फिर से जी लेने जैसा है. ज्ञान दा के भाव-बोध की जड़ें पहाड़ के परिवेश में गहरें धँसी हैं. प्रवासी-मन की पीड़ा इन कविताओं के केंद्र में है. पहाड़ में न रह पाने की पहाड़-सी पीड़ा उन्हें रह-रह कर सालती नज़र आती है. गाँव जाकर होटल में रहने की विवशता, अपने ही ‘घर’ जाने के लिए किसी बहाने की दरकार, पहाड़ के ‘अपने घर’ की राह भूल जाने और ‘अपने ही गाँव’ में भटक जाने का पछतावा, “आपनैं/ गौं में/ पौण भयूँ”, “पहाड़ में/ नि खै सक्यूँ/ मैं/ ले” की कचोट और यह बिडम्बना भी क...
सत्ता के मद में सरकारों ने भुला दिया सालम के वीर शहीदों को

सत्ता के मद में सरकारों ने भुला दिया सालम के वीर शहीदों को

स्मृति-शेष
25 अगस्त के शहीदी दिवस पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी आज के ही के दिन 25 अगस्त,1942 को सालम के धामद्यो में अंग्रेजी सेना तथा क्रांतिकारियों के बीच हुए युद्ध में नर सिंह धानक तथा टीका सिंह कन्याल शहीद हो गए थे. किंतु देश इन क्रांतिकारियों के बारे में कितना जानता है? वह तो दूर की बात है उत्तराखंड के कुछ गिने चुने लोगों को ही यह याद है कि देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले इन दो क्रांतिकारियों का आज शहीदी दिवस है.पर इतिहास साक्षी है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में इन दोनों उत्तराखंड के क्रांतिकारियों का नाम  स्वर्णाक्षरों में लिख दिया गया है - नरसिंह धानक (1886-1942) टीका सिंह कन्याल (1919-1942) गौरतलब है कि नौ अगस्त 1942 को महात्मा गांधी द्वारा मुंबई में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन शुरू करने के एक सप्ताह बाद  'करो या मरो' की गांधी जी की ललकार के साथ ही सालम की ज...
बाजार ने कौतिक की रौनक भी छीन ली

बाजार ने कौतिक की रौनक भी छीन ली

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—45 प्रकाश उप्रेती आज बात "कौतिक" की. साल भर जिसका इंतजार बच्चे, बूढ़े, बड़े सबको रहता था, वह कौतिक था. कौतिक मतलब "मेला" हुआ. कौतिक की तब इतनी हाम थी कि परदेश गए लोग भी because कौतिक पर घर पहुंच जाते थे. मासाब कौतिक के दिन हाज़िरि लगाकर छोड़ देते थे. ईजा कौतिक ले जाने और जाने देने के नाम पर हफ़्ते भर पहले से, जी भर काम करवा लेती थीं. कौतिक तब सिर्फ बाजार नहीं था. ज्योतिष हमारे यहाँ केदार में कौतिक लगता था. कौतिक जाने की इतनी हौंस होती थी कि रात से मुँह धोकर तैयार हो जाते थे. एक बार तो कौतिक के लिए पहनकर जाने वाले कपड़ों की रात में ही because रिहर्सल हो जाती थी- "ईजा देख यो ठीक छै" (माँ देखना ये ठीक है). ईजा- "हो होय, ठीक छौ, राते बति किले फरफराट पड़ रहो त्यर" (हां, हाँ, ठीक है, रात से क्यों बैचेन हो रखा है). ईजा एक नज़र देख लेती थीं. हम मिर्च वाले सरसों...