Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
पुत्र अपने कुल को ही तारता है, पुत्रियां दो-दो कुलों को तारतीं हैं

पुत्र अपने कुल को ही तारता है, पुत्रियां दो-दो कुलों को तारतीं हैं

साहित्‍य-संस्कृति
डॉ. मोहन चंद तिवारी   पितृपक्ष के अवसर पर प्राय: यह जिज्ञासा प्रकट की जाती है कि श्राद्ध का अधिकार किस किस को है? क्या पुत्र के अतिरिक्त पुत्री या पत्नी को भी श्राद्ध करने का अधिकार है या नहीं? कुछ पितृसत्तात्मक परंपरागत समाजों में स्थानीय मान्यताओं के कारण केवल पुत्र को या पुरुष को ही श्राद्ध का अधिकारी माना जाता है, पुत्री या स्त्री को नहीं. परन्तु इस सम्बंध में धर्मशास्त्रकार हेमाद्रि के अनुसार मुख्य नियम यह है कि पिता का श्राद्ध पुत्र को करना चाहिए. पुत्र न हो तो पत्नी श्राद्ध करे. पत्नी के अभाव में सहोदर भाई और उसके अभाव में सपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए- “पितु: पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया. पुत्राभावे तु पत्नी स्यात् पत्न्याभावे तु सोदर:॥” ‘श्राद्धकल्पलता’ में मार्कंडेयपुराण के द्वारा दी गई व्यवस्था के अनुसार भी पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, पुत्रिका का पुत्र (दौहित्र), पत्नी...
‘गो-बैक मेलकम हैली’ ‘भारत माता की जय’

‘गो-बैक मेलकम हैली’ ‘भारत माता की जय’

इतिहास
6 सितम्बर, 1932 पौड़ी क्रान्ति के नायक-  जयानन्द ‘भारतीय’ डॉ. अरुण कुकसाल हाथ में तिरंगा उठा, नारे भी गूंज उठे,  भाग चला, लाट निज साथियों की रेल में, जनता-पुलिस मध्य, शेर यहां घेर लिया, वीर जयानन्द, चला पौड़ी वाली जेल में. - शान्तिप्रकाश ‘प्रेम’ ‘मैं वीर जयानन्द ‘भारतीय’ का शुक्रिया अदा करता हूं कि उसने मुझे जान से नहीं मारा’. सर विलियम मेलकम हैली ने ये बात पौड़ी से बच निकलने के बाद कही थी. किस्सा, देश की स्वाधीनता से पूर्व सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौर का है. इस आंदोलन के विरोध स्वरूप अंग्रेजों के पिठ्ठू संगठन ‘अमन सभा’ ने 6 सितम्बर, 1932 को पौड़ी में तत्कालीन संयुक्त प्रांत के वायसराय मेलकम हैली का सम्मान समारोह आयोजित किया था. इस कार्यक्रम के प्रति स्थानीय लोगों में गुस्सा तो था परन्तु वे सामने विरोध करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे. ऐसे समय में देश की आजादी के सच्चे सिपाही की भूम...
अनाज भंडारण की अनूठी परम्परा है कोठार

अनाज भंडारण की अनूठी परम्परा है कोठार

उत्तराखंड हलचल
आशिता डोभाल कोठार यानी वह गोदाम जिसमें अनाज रखा जाता है, अन्न का भंडारण का वह साधन जिसमें धान, गेंहू, कोदू, झंगोरा, चौलाई या दालें सालों तक रखी जा सकती है. कोठार में रखे हुए इन धनधान्य के खराब होने की संभावना न के बराबर होती है. कोठार को पहाड़ी कोल्ड स्टोर के नाम से जाना जाता है, जिसमें धान, गेंहू, कोदू, झंगोरा, चौलाई या दालें सुरक्षित रखी जाती है. कोठार अथवा कुठार जो कि मुख्यतः देवदार की लकड़ी के बने होते हैं और ये सिर्फ भंडार ही नहीं हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग भी रहे हैं, इस भंडार में हमारे बुजुर्गों ने कई पीढ़ियों तक अपने अनाजों और जरूरत के सारे साजो-सामान रखे हैं. ये दिखने में जितने आकर्षक होते हैं उतने ही फायदेमंद भी. पहाड़ों में पुराने समय में लोग सिर्फ खेती किसानी को ही बढ़ावा देते थे और उसी खेती किसानी के जरिए उनकी आमदनी भी होती थी वस्तु विनिमय का जमाना भी था तो लोग बाज़ार और...
कुछ अच्छी बातें सिर्फ गरीबी में ही विकसित होती हैं…

कुछ अच्छी बातें सिर्फ गरीबी में ही विकसित होती हैं…

पुस्तक-समीक्षा
डॉ. अरुण कुकसाल ‘बाबा जी (पिताजी) की आंखों में आंसू भर आये थे. मैंने नियुक्ति पत्र उनके हाथौं में दिया तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया. वह बहुत कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे. सिर्फ़ मेरे सिर पर हाथ फेरते रहे... मैं उसी विभाग में प्रवक्ता बन गया था जिसमें मेरे बाबा जी चपरासी थे.’ गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर परिसर से अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए परम आदरणीय प्रोफेसर राजा राम नौटियाल की आत्म संस्मराणत्मक पुस्तक 'चेतना के स्वर' का यह एक अंश है. प्रो. नौटियाल के पिता स्व. पंडित अमरदेव नौटियाल के जीवन संघर्षों पर यह पुस्तक केन्द्रित है. जीवन की विषम परिस्थितियों के चक्रव्यूह को तोड़ते हुए अपने सपनों के चरम को छूने की सशक्त कहानी है यह पुस्तक. किताब का हर वाक्य जीवन के कठोर धरातल से उपजा हुआ है. बेहतर जीवन के लिए अनवरत मेहनत और ईश्वर के प्रति अट...
धार, खाळ, खेत से सैंण तक

धार, खाळ, खेत से सैंण तक

साहित्‍य-संस्कृति
विजय कुमार डोभाल पहाड़ी क्षेत्र में जन्मे, पले-बढ़े, शिक्षित-दीक्षित होने के बाद यहीं रोजगार (अध्यापन- कार्य) मिलने के कारण कभी भी यहां से दूर जाने का मन ही नहीं हुआ. वैसे भी हम पहाड़ी-लोगों की अपनी कर्मठता, आध्यात्मिकता तथा संघर्षशीलता अपनी अलग ही पहचान रखती है. हमारा अपना संसार पहाड़ के विभिन्न स्वरूपों धार खाळ, खेत, सैंण से शुरू होकर तराई-भाबर तक ही सीमित हैं. हमारी पढ़ाई-लिखाई, खरीददारी, व्यापार, रिश्ते-नातेदारी आदि भी यहीं तक सीमित होती है. हमारा पहाड़ पावन गंगा-यमुना के उद्गम, पवित्र चार धाम, अन्य तीर्थस्थानों, विश्व प्रसिद्ध पर्यटक-स्थलों, सांस्कृतिक धरोहरों, ब्रह्मकमल, मोनाल, कस्तूरी मृग, बुरांश आदि के कारण देशवासियों ही नहीं वरन् विदेशियों को भी अपनी ओर आकर्षित करता है. हमारा पहाड़ पावन गंगा-यमुना के उद्गम, पवित्र चार धाम, अन्य तीर्थस्थानों, विश्व प्रसिद्ध पर्यटक-स्थलों, सांस्...
उत्तराखंड की सल्ट क्रांति: ‘कुमाऊँ की बारदोली’

उत्तराखंड की सल्ट क्रांति: ‘कुमाऊँ की बारदोली’

इतिहास
शिक्षक दिवस (5 सितंबर) पर विशेष डॉ. मोहन चन्द तिवारी देश की आजादी की लड़ाई में उत्तराखंड के सल्ट क्रांतिकारियों की भी अग्रणी भूमिका रही थी. 5 सितंबर 1942 को महात्मा गांधी के ‘भारत छोड़ो’ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रेरणा से जन्मे सल्ट के क्रांतिकारियों ने अपने क्षेत्र में स्वाधीनता आन्दोलन की लड़ाई लड़ते हुए सल्ट क्षेत्र के ‘खुमाड़’ नामक स्थान पर खीमानंद और उनके भाई गंगा राम, बहादुर सिंह मेहरा और चूड़ामणि चार क्रांतिकारी शहीद हो गए थे. किन्तु दुर्भाग्य यह रहा है कि साम्राज्यवादी इतिहासकारों और राजनेताओं को इन क्रांतिवीरों के बलिदान को जितना महत्त्व दिया जाना चाहिए उतना महत्त्व नहीं मिला है. आज राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में सल्ट क्रांति और स्वतंत्रता के लिए शहीद होने वाले क्रांतिकारियों का कहीं नामोल्लेख तक नहीं मिलता यहां तक कि हमारे उत्तराखंड के लोगों को भी इस आन...
अंतरावलोकन

अंतरावलोकन

संस्मरण
संस्मरण : स्कूल की यादें सुनीता अग्रवाल आप चाहे उम्र के जिस पड़ाव पर खड़े हो इनसे आपका संवाद किसी न किसी रूप में चलता रहता है. आज अपने मन की भीतरी तहों तक जाकर अपने उन  संवादों को शब्द देने की कोशिश कर रही हूं जिनकी यादें आवाज़ें बनकर बड़ी ही स्पष्टता से साधिकार मेरे मनमस्तिष्क में चहल कदमी करती रही है. ईमानदारी किसी भी बात को कहने की पहली शर्त होती है अब उसका जो भी अर्थ निकले वो पढ़ने वाले की संवेदना पर निर्भर करता है. स्कूल के उस सुरम्य प्रांगण में प्रवेश करते हुए बड़ी ही सहजता से अपना बोला हुआ एक झूठ याद आ रहा है जिसकी टीस मुझे काफी वक़्त तक सालती रही थी आज उसी अहसास को आप सबसे सांझा कर रही हूँ. किस्सा है क्लास 9वीं के लाइब्रेरी रूम का.... जहां हमको छुट्टी के बाद फिजिकल एजुकेशन की एक्स्ट्रा क्लास के लिए रुकना था. उस वक़्त फिजिकल एजुकेशन  की एक्स्ट्रा क्लास को लेकर मेरे साथ साथ कई और ...
पितृपक्ष में पितरों का ‘श्राद्ध’ क्यों किया जाता है? 

पितृपक्ष में पितरों का ‘श्राद्ध’ क्यों किया जाता है? 

अध्यात्म
डॉ. मोहन चंद तिवारी इस साल 1 सितंबर से पितृपक्ष की शुरुआत हो चुकी है,जिसका समापन 17 सितंबर, 2020 को होगा. भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों का पितृपक्ष प्रतिवर्ष ‘महालय’ श्राद्ध पर्व के रूप में मनाया जाता है. 'निर्णयसिन्धु’ ग्रन्थ के अनुसार आषाढी कृष्ण अमावस्या से पांच पक्षों के बाद आने वाले पितृपक्ष में जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तब पितर जन क्लिष्ट होते हुए अपने वंशजों से प्रतिदिन अन्न जल पाने की इच्छा रखते हैं- “आषाढीमवधिं कृत्वा पंचमं पक्षमाश्रिताः. कांक्षन्ति पितरःक्लिष्टा अन्नमप्यन्वहं जलम् ..” आश्विन मास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्डदान तथा तिलांजलि देकर संतुष्ट करेंगे. इसी इच्छा को लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोक में आते हैं. पितृपक्ष में यदि पितरों को पिण्डदान या तिलांजलि नहीं मिलती है...
प्रदूषित गंगा और हम!

प्रदूषित गंगा और हम!

पर्यावरण
कमलेश चंद्र जोशी कहते हैं प्रकृति हर चीज का संतुलन बनाकर रखती है. लेकिन अधिकतर देखने में यह आया है कि जहां-जहां मनुष्य ने अपना हाथ डाला वहां-वहां असंतुलन या फिर समस्याएं पैदा हुई हैं. इन समस्याओं का सीधा संबंध मनुष्य की आस्था, श्रद्धा, स्वार्थ या तथाकथित प्रेम से रहा है. गंगा को हमने मॉं कहा और गंगा के प्रति हमारे प्रेम ने उसको उस मुहाने पर लाकर छोड़ दिया जहां उसकी सफ़ाई को लेकर हर दिन हो-हल्ला होता है लेकिन न तो हमारे कानों में जूं रेंगती है और न ही सरकार के. गंगा को हमने उसके प्राकृतिक स्वरूप में प्रकृति की गोद में बहने के लिए छोड़ दिया होता और उसके पानी का इस्तेमाल सिर्फ अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए किया होता तो आज गंगा इस दशा में न होती कि उसकी सफाई के लिए प्रोजेक्ट चलाने पड़ते. ये सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि गंगा को हमने अपनी अंधी आस्था और स्वार्थसिद्धी का विषय बनाकर उसका दोहन करना शु...
इनसे खेत आबाद रहे, हमसे जो बर्बाद हुए

इनसे खेत आबाद रहे, हमसे जो बर्बाद हुए

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। कोरोना because महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया। इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ क...