9 अगस्त ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की 78वीं वर्षगांठ पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
आज नौ अगस्त को देश ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की 78वीं वर्षगांठ मना रहा है.नौ अगस्त 1942 का दिन भारत की आजादी का एक ऐतिहासिक दिन है. इसी दिन गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के लिए “भारत छोड़ो आंदोलन” के रूप में अपनी आखिरी मुहिम चलाई थी जिसे भारत के इतिहास में ‘अगस्त क्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है.’करो या मरो’ अगस्त क्रांति का बीजमंत्र था. महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में चले इस विशाल जन आन्दोलन के जरिए अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति चाहने वाले करोड़ों देशभक्तों ने अपना तन मन धन न्योछावर करते हुए ब्रिटिश शासन की चूल को हिलाकर रख दिया था. बाद में इसी आंदोलन ने 1947 में मिली आजादी की नींव भी रखी.
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तराखंड के 21 स्वतंत्रता सेनानी शहीद हुए और हजारों को गिरफ्तार किया गया,जिसके परिणाम स्वरूप जगह-जगह आंदोलन भड़क उठे. कुमाऊं की सल्ट क्रान्ति भी उसी भारत छोड़ो राष्ट्रीय आंदोलन की शौर्यपूर्ण प्रतिक्रिया थी. महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में सल्ट की सक्रिय भागीदारी के कारण इसे ‘कुमाऊं की बारदोली’ का नाम दिया था.
नौ अगस्त 1942 को मुम्बई से शुरू हुए इस आंदोलन में सभी भारतवासियों ने एक साथ बड़े स्तर पर भाग लिया था. कई जगह समानांतर सरकारें भी बनाई गईं.स्वतंत्रता सेनानी भूमिगत होकर भी लड़े.1942 के अंत तक ब्रिटिश हुकूमत द्वारा लगभग 60,000 लोगों को जेल में डाल दिया गया और कई हजार मारे गए.मारे गए लोगों में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे. देश के कई भाग जैसे उत्तर प्रदेश में बलिया, बंगाल में तामलूक,महाराष्ट्र में सतारा, कर्नाटक में धारवाड़ और उड़ीसा में तलचर व बालासोर, ब्रिटिश शासन से मुक्त हो गए और वहां के लोगों ने स्वयं की सरकार का गठन कर लिया.
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तराखंड के 21 स्वतंत्रता सेनानी शहीद हुए और हजारों को गिरफ्तार किया गया,जिसके परिणाम स्वरूप जगह-जगह आंदोलन भड़क उठे. कुमाऊं की सल्ट क्रान्ति भी उसी भारत छोड़ो राष्ट्रीय आंदोलन की शौर्यपूर्ण प्रतिक्रिया थी. महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में सल्ट की सक्रिय भागीदारी के कारण इसे ‘कुमाऊं की बारदोली’ का नाम दिया था.
महात्मा गाँधी ने हालाँकि अहिंसक रूप से आंदोलन करने का आह्वान किया था मगर अंग्रेज़ों को भगाने का देशवासियों में ऐसा जुनून पैदा हुआ कि कई स्थानों पर बम विस्फोट कर दिए गए, सरकारी इमारतें जला दी गई, बिजली काट दी गई, परिवहन और संचार सेवाओं को भी रोक दिया गया. जगह-जगह पर हड़तालें हुई,लोगों ने ज़िला प्रशासन को कई जगहों पर उखाड़ फेंका. गिरफ़्तार किए गए नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल तोड़कर मुक्त करा लिया गया और वहाँ स्वतंत्र शासन स्थापित कर दिया.
दरअसल, भारतीय राजनीति में गाधी के आगमन से पहली बार राष्ट्र को यह अहसास हुआ कि शक्ति अपने से बाहर नहीं है इसका संचयन अपने भीतर ही किया जा सकता है. उन्होंने देशवासियों से कहा कि ब्रिटेन के पास अपनी कोई शक्ति नहीं है जिस पर हमारी गुलामी का शासन-भवन टिका है.अपना सहयोग खींच लो यह भवन निराधार होकर गिर जाएगा. इसी प्रयोजन से गांधी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध तीन बड़े अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन किए,सत्याग्रह की लड़ाइयां लड़ी और एक विशाल ब्रिटिश राज्य को पराजित करते हुए अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए विवश कर दिया.
आज सम्पूर्ण राष्ट्र एक बार फिर 1942 की इस क्रांति को याद करते हुए ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की 78वीं वर्षगांठ मना रहा है. पर आज आजादी के 72 वर्षों के बाद हमें यह भी आत्ममंथन करना चाहिए कि हमने गांधी जी के आदर्शों को अपने जनजीवन में कितना उतारा है और राजनैतिक शुचिता से प्रजातंत्र को कितना मजबूत बनाया है.
स्वतंत्रता संग्राम के संघर्षपूर्ण वर्षों में गांधी जी से प्रेरणा लेकर ऐसे समर्पित हजारों- लाखों देश सेवकों की जमात पैदा हो गई थी, जो देश सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार थी.उस समय गाधी टोपी पहनऩे वालों को लोग पीड़ित जनों का त्राता व जनता का रक्षक मानऩे लगे थे.पहली बार सार्वजनिक जीवन में विशेष कर राजनीति के क्षेत्र में सचाई,सरलता,साधुता तथा सदाचार को महत्त्व दिया जाने लगा. गांधी चिन्तन की एक खास विशेषता यह है कि इसने राजनैतिक और धार्मिक विप्लवों के कारण भूली बिसरी भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धार किया. सदियों के बाद पहली बार भारतवासियों को यह अनुभूति कराई कि मनुष्य केवल रोटी खाकर नहीं जी सकता बल्कि उसकी सांस्कृतिक पहचान भी स्वतंत्रतापूर्वक जीने के लिए बहुत जरूरी खुराक है. गाधी जी ने धर्म में मानव की श्रद्धा और आस्था को पुनर्जीवित किया और इस संकल्प को मजबूती प्रदान की कि मनुष्य की क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए आत्मा को बेचा नहीं जा सकता.
गाधीवाद मूलत: एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जन जागरण है जिसने पश्चिम के संसर्ग से उत्पन्न उपनिवेशवाद, उपभोक्तावाद द्वारा गुलाम बनाने वाली मानसिकता को खारिज किया तथा समाजवाद तथा स्वावलम्बन की अवधारणा वाला एक उदार भारतीय संस्करण प्रस्तुत किया जिसके प्रेरणा स्रोत वेद,उपनिषद्,गीता,रामायण आदि भारत के प्राचीन ग्रन्थ रहे हैं. धर्म, राष्ट्र, समाज, राज्य आदि के बारे में जो पश्चिमी ज्ञान देशवासियों पर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा थोपा जा रहा था उसके प्रत्युत्तर में गांधी जी ने भारतीय मान्यताओं को विश्व के समक्ष रखते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारत पहले भी जगद्गुरु था और आज भी जगद्गुरु है. भारत इन सब उपकारों के लिए गांधी जी का सदैव ऋणि ही रहेगा.
आज सम्पूर्ण राष्ट्र एक बार फिर 1942 की इस क्रांति को याद करते हुए ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की 78वीं वर्षगांठ मना रहा है. पर आज आजादी के 72 वर्षों के बाद हमें यह भी आत्ममंथन करना चाहिए कि हमने गांधी जी के आदर्शों को अपने जनजीवन में कितना उतारा है और राजनैतिक शुचिता से प्रजातंत्र को कितना मजबूत बनाया है. इन्हीं संकल्पों के साथ “अगस्त क्रांति” और ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के प्रेरणा स्रोत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी को कोटि कोटि नमन!!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)