अटल बिहारी वाजपेयी जन्म दिवस (25 दिसम्बर) पर विशेष
प्रो. गिरीश्वर मिश्र
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जगता राष्ट्रपुरुष है.
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं.
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएँ हैं.
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है.
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है,
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है.
हम जिएंगे तो इसके लिए
मरेंगे तो इसके लिए.
ज्योतिष
-अटल बिहारी वाजपेयी
भारतवर्ष की सभ्यता निरंतर गतिमान और सृजनशील रही है. साहित्य और कला ही नहीं सामाजिक जीवन और राजनीति के क्षेत्र में भी यह सृजनात्मकता दिखती है. पर दोनों का एक ही व्यक्ति में सम्मिलन होना अद्भुत है. श्री अटल बिहारी वाजपेयी में इन दोनों धाराओं का संगम होता है. ऊपर उद्धृत काव्य पंक्तियों में राष्ट्रपुरुष की जिस संकल्पना को व्यक्त किया गया है उसे पढ़ कर महाकवि कालिदास का निम्नलिखित श्लोक मन में गूँजने लगता है :
ज्योतिष
अस्तित्युत्तरस्याम् दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराज:
पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्य
स्थित: पृथिव्यामिव मानदंड :
ज्योतिष
परन्तु आधुनिक मन वाले और चिरंतन भारतीय संस्कृति के पुरस्कर्ता वाजपेयी जी आगे बढ़ कर देश की व्यापक कल्पना को संकल्प, प्रतिज्ञा और कर्म से जोड़ते हुए सबका आवाहान करते हैं कि इसके निर्माण के निमित्त समर्पण की जरूरत है. देश की विकास-यात्रा में राष्ट्रीय नेतृत्व की विशेष भूमिका के अनुरूप वाजपेयी जी भारत के गौरव और सामर्थ्य को संबर्धित करने के लिए सतत यत्नशील रहे.
ज्योतिष
भारत पर अंग्रेजी राज की लम्बी दासता से मुक्ति मिलने के बाद आज लोकतांत्रिक देशों की पंक्ति में वैश्विक क्षितिज पर भारत आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से एक सशक्त देश के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा है इसके पीछे भी नेतृत्व की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने विभाजन के बाद की कठिन परिस्थितियों में 1947 में एक आधुनिक और समाजवादी रुझान के साथ उत्तर उपनिवेशी स्वतंत्र भारत की यात्रा शुरू की थी जिसका ढांचा बहुत कुछ अंग्रेजों द्वारा विनिर्मित था. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में नवाचार शुरू हुए थे और पञ्च वर्षीय योजनाओं का दौर चला था ताकि देश विकास की दौड़ में पीछे न रह जाय.
ज्योतिष
भारत गुट निरपेक्ष देशों के दल में शामिल हो कर विश्व-शान्ति स्थापित करने को उद्यत था हालांकि विश्व में राजनैतिक ध्रुवीकरण के कई रूप बनते-बिगड़ते रहे. भारत समेत विश्व की परिस्थितियाँ बदलती रही हैं और नई-नई चुनौतियाँ आती रहीं. रूस और अमेरिका के बीच शीत युद्ध, वियेतनाम युद्ध, पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच की बर्लिन दीवार का टूटना, सोवियत रूस का विघटन और यूरोपियन यूनियन का गठन जैसी घटनाएं हुईं.
ज्योतिष
भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 तथा 1971 में युद्ध हुआ. बांग्ला देश का उदय हुआ. भारत के भीतर क्षेत्रीयता और जाति के समीकरण प्रमुख होने लगे. नए चहरे भी उभरे और राजनैतिक हलचलों के बीच उसका परिवेश नया होता रहा. सातवें दशक तक आते-आते कांग्रेस और उसकी नीतियों से देश का मोह-भंग हुआ. प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपात काल लगाया जाना एक ऎसी घटना हुई जिसने घिसटती व्यवस्था और सिमटती देश-दृष्टि की सीमाएँ ज़ाहिर हुईं. ऐसे में प्रकाश की आकांक्षा और प्रबल हुई. कवि वाजपेयी कह उठे :
ज्योतिष
हम पड़ाव को समझे मंजिल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्तमान के मोह जाल में
आने वाला कल न बुलाएं
आओ फिर से दिया जलाएं
ज्योतिष
प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्री जयप्रकाश नारायण की अगुआई में विसंगतियों के खिलाफ सामाजिक–राजनैतिक परिवर्तन की शुरुआत हुई. भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और विभिन्न क्षेत्रों की उपेक्षा जैसे प्रश्नों से उलझते राजनीति का विकेंद्रीकरण शुरू हुआ. कुल मिला कर भारतीय राजनीति की बुनावट और बनावट बदलती रही. इस सन्दर्भ में यह गौर करने लायक है कि नेहरू–गांधी परिवार ने लभग 38 वर्ष की अवधि तक प्रधान मंत्री की कुर्सी संभाली थी. संभ्रांत के वर्चस्व की जगह व्यापक समुदाय जिसमें हाशिए पर स्थित मध्यम और दलित वर्ग भी शामिल था राजनीति में प्रतिभागी बन अपनी भूमिका के लिए अग्रसर हुआ. वाजपेयी जी ने देश के लिए व्यापक परिवर्तन की आकांक्षा को इस तरह रेखांकित किया:
ज्योतिष
आजादी अभी अधूरी है
सपने सच होने बाक़ी हैं
रावी की शपथ अधूरी है.
ज्योतिष
भारतीय राजनीति के नए दौर में पारदर्शिता, साझेदारी और संवाद की ख़ास भूमिका रही. उत्तर आपात काल में कांग्रेस के विकल्प के रूप में ‘जनता दल’ का गठन हुआ और श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी. श्री वाजपेयी को इस सरकार में परराष्ट्र मंत्री का दायित्व दिया गया. सं 1977 से 1979 तक इस दायित्व का वहन किया. आगे चल कर भारत का राजनैतिक परिदृश्य इस अर्थ में क्रमश: जटिल होता गया कि इसमें कई स्वर उठने लगे और यह स्पष्ट होने लगा कि विभिन्न राजनैतिक दलों को साथ ले कर एक समावेशी दृष्टि ही कारगर हो सकती थी जो आतंरिक विविधता को पहचानते हुए देश की एकता और अखण्डता को सुरक्षित रख सके. इस कार्य को अंजाम देना सरल न था. इसके लिए सहिष्णुता, खुलेपन की मानसिकता, सब को साथ ले चलने की क्षमता, सुनने-सुनाने का धैर्य और युगानुरूप सशक्त तथा दृढ़ संकल्प की आवश्यकता थी. इन सभी कसौटियों पर सर्वमान्य नेता के रूप में श्री अटल बिहारी वाजपेयी खरे उतरे. विविधता भरी राजनीति में उनको लेकर बनी सहमति का ही परिणाम था कि भारतीय संसद में उनको तीन बार देश के प्रधान मंत्री पद के लिए स्वीकार किया गया. पहली बार 1996 में 13 दिनों का कार्यकाल था. 1998-1999 में दूसरी बार 19 महीने प्रधानमंत्रित्व संभाला. वर्ष 1999 में नेशनल डेमोक्रेटिक अलाएंस (एनडीए), जिसमें दो दर्जन के करीब राजनैतिक दल साथ आये थे, के कठिन नेतृत्व की कमान संभालते हुए वाजपेयी जी तीसरी बार प्रधान मंत्री बने. यह पूर्णकालिक सरकार रही.
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निजी स्वार्थ से परे हट कर लोक-हित की व्यापक चिंता वाजपेयी जी के लिए व्यापक जनाधार का निर्माण कर रही थी. लोकैषणा उनके व्यक्तित्व का वह केन्द्रीय पक्ष था जो जन-जीवन में किसी चुम्बक की तरह कार्य करता था. वे सबको सहज उपलब्ध रहते थे. उन्हीं के शब्दों में कहें तो उन्हें इसका तीव्र अहसास था कि मनुष्य की मनुष्यता सबके साथ जुड़ने या संपृक्त होने में ही निहित है:
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जरूरी यह है कि
ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खडा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले, किसी के संग चले.
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अपने लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठ समर्पण, सतत अध्यवसाय और भारत देश के स्वप्न को साकार करने की असंदिग्ध और सघन चेष्टा ही थी जिसने वाजपेयी जी को पक्ष-विपक्ष का सर्वमान्य नेता बना दिया था.
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वाणी के वरद पुत्र वाजपेयी जी की वक्तृत्व कला मंत्र-मुग्ध करने वाली थी और भारतीय संसद के चार दशकों में विस्तृत अवधि में उनकी भूमिका के सभी क़ायल हुए. वे 1957 में पहली बार संसद पहुंचे थे और 2004 तक कुल दस बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा में सदस्य के रूप में जन प्रतिनिदित्व करते रहे. वे एक श्रेष्ठ और रचनात्मक दृष्टि से संपन्न सांसद थे. उनकी आरोह-अवरोह वाली द्रुत-विलंबित वाग्मिता सबको प्रभावित करती थी. वे अपना पक्ष प्रभावी पर सहज और तर्कपूर्ण ढंग से रखते थे और ऐसा करते हुए सांसदीय मर्यादाओं का यथोचित सम्मान भी करते थे.
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वाजपेयी जी एक सामान्य ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते थे और ऐसी शिक्षा पाई थी जो किसी औसत भारतीय को मिल सकती थी. अंतर यही था कि उनके हृदय में भारत-माता के लिए असीम और गहरा प्रेम था. उनकी बौद्धिक संवेदना की जड़ें व्यापक और विशाल भारतीय संस्कृति में पैठी हुई थीं. इस ओर उनका ध्यान किशोर वय में ही गया था और उसके साथ वे आजीवन आबद्ध रहे और कभी समझौता नहीं किया. उन्हीं के शब्दों में: दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते ; टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते. दृढ संकल्प हर तरह की चुनौतियों का सामना करने लिए ऊर्जा देता है. कठिनाई कितनी भी हो, कैसी भी हो एक पहरुए को तो आगे चलना ही होता है, बड़े लक्ष्य के लिए बड़ा समर्पण चाहिए. उसके लिए प्राण लेना होता है और नि:स्व होना पड़ता है. ऎसी ही क्षणों में वाजपेयी जी का कवि कह पड़ता है :
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बाधाएं आती हैं आएं, घिरे प्रलय की घोर घटाएं
पावों के नीचे अंगारे, सर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगा कर जलना होगा
कदम मिला कर चलना होगा.
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घर और विद्यालय की आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा के बीच वाजपेयी जी ने भारत के स्वभाव को पहचान कर अंगीकार किया था और उसके मूल प्रकृति से डिगना उन्हें गंवारा नहीं था. वस्तुतः इसके लिए उनकी प्रतिबद्धता ही थी कि वे पंडित दीन दयाल उपाध्याय के संसर्ग में राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन जैसे राष्ट्र-प्रेम की भावनाओं के प्रसार करने वाले प्रकाशनों से वर्षों जुड़े रहे. लेखन और पत्रकारिता के कार्य ने उनकी दृष्टि का सतत विस्तार किया. किशोर वय में एक स्वयंसेवक के रूप में कर्मठ जीवन की जो दीक्षा उन्हें मिली थी उसने युवा वाजपेयी की जीवन-धारा ही बदल दी थी. उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. विभिन्न स्तरों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तरह-तरह के दायित्वों को निभाते हुए वे देश और समाज की नस-नस से परिचित होते रहे. वे भारतीय जन संघ के अध्यक्ष बनाए गए और 1968 से 1973 तक यह कार्य भार सम्भाला. देश से एकात्म होते हुए भारतीय समाज की चेतना को जगाना ही उनका एकमात्र ध्येय हो चुका था जो निरंतर विस्तार पाता गया. भारतीय जीवन मूल्यों के एक आस्तिक अन्वेषी के रूप में वे लोक से जुड़ते हुए व्यष्टि और समष्टि को निकट लाने में सदैव जुटे रहे.
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इस चर्चा के प्रसंग में यह यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि बहुलता और विविधता वाले भारत में किसी भी तरह की वैचारिक एकरसता और जड़ता श्रेयस्कर नहीं है. कांग्रेसी सरकारों की उपलब्धियों और नाकामियों को लेकर बहसें चलती रहती हैं और आगे भी चलेंगी पर उस नज़रिए का सशक्त विकल्प उभारना ज़रूरी था और वैसा हुआ भी. काल देवता की गति ऐसी हुई कि भारत देश की पहली पूर्णकालिक मुकम्मल ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाने का यश वाजपेयी जी को मिला. वर्ष 1999 से 2004 तक की अवधि में वह देश की सत्ता की बागडोर सम्भालते रहे. इससे पहले और उस दौर में भी उनके राजनैतिक जीवन की यात्रा अनेक उतार-चढ़ावों और चुनौतियों से अटी पड़ी थी पर अटल जी यही सोच आगे बढ़ते रहे: क्या हार में, क्या जीत में ; किंचित नहीं भयभीत मैं ; कर्तव्य पथ पर जो मिला ; यह भी सही वो भी सही .
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भारत के तेरहवें प्रधान मंत्री के रूप में देश के स्वाभिमान और गौरव के लिए वाजपेयी जी ने अनेक निर्णय लिए. पोखरन -2 का परमाणु परीक्षण एक गोपनीय और बड़े जोखिम से भरा निर्णय था. अनेक बड़े देशों ने इस कदम के चलते बंदिशें भी लगाईं परंतु वाजपेयी जी ने दृढ़तापूर्वक सभी चुनौतियों का सामना किया और देश के परमाणु कार्यक्रम को निर्विघ्न आगे बढ़ाया. वे पड़ोसी देशों के साथ सहयोग, संवाद और सौहार्द के महत्व की अनिवार्य ज़रूरत को पहचानते थे और इसके लिए सदैव प्रयत्नशील रहे. पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारने की उन्होंने साहस के साथ हर सम्भव कोशिश की. वहां के प्रधान मंत्री श्री नवाज़ शरीफ़ से संवाद हेतु दिल्ली-लाहौर बस यात्रा की पहल ऐतिहासिक महत्व की थी. इसके फलस्वरूप कई मुद्दों पर सहमति भी बनी पर जैसा कि सर्वविदित है कारगिल की लड़ाई ने गतिरोध पैदा किया. इसके बावजूद तख्तापलट कर नवाज शरीफ को अपदस्थ कर पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने जनरल परवेज़ मुशर्रफ के साथ आगरा में बातचीत के साथ वाजपेयी जी ने राह ढूढने की भी कोशिश की जो जनरल के अड़ियल रवैए के चलते आगे न बढ़ सकी.
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भारत के आतंरिक विकास के लिए देश में सड़कों का विस्तार कर आवागमन में सुविधा के लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय राजमार्गों के विस्तृत संजाल का निर्माण आरम्भ कराना वाजपेयी जी की महत्वपूर्ण पहल थी. देश में आधार संरचनाओं के विस्तार लिए यह उपक्रम वरदान सिद्ध हुआ है. ‘सर्व शिक्षा अभियान’ द्वारा शिक्षा के सार्वभौमीकरण का बड़ा लक्ष्य हासिल करने की दिशा में देश आगे बढ़ा है. इसी तरह कई तरह के आर्थिक सुधारों को गति देते हुए इक्कीसवीं सदी के भारत को दिशा देने में वाजपेयी जी का योगदान अविस्मरणीय है. भारत के लिए डा. ए.पी. जे. अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति पद पर हेतु एन. डी. ए. के समर्थन में भी वाजपेयी जी की प्रमुख भूमिका थी.
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वाजपेयी जी सुकवि थे और उनके कई काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुए थे ( द्रष्टव्य – न दैन्यं न पलायनं, मेरी इक्यावन कवितायेँ ) जिनमें उनकी निजी अनुभूतियाँ, कल्पनाएँ और देश और समाज के लिए सरोकार और आकांक्षाएँ शब्दों में आकार पाई हैं. कविताओं को पढ़ने और सुनाने का वाजपेयी का अपना ही अंदाज़ था जो श्रोताओं को झकझोर देता था. हिंदी उनकी मातृभाषा थी पर वे उसकी राष्ट्रीय भूमिका के आग्रही थे और उसके विकास के लिए निरंतर यत्नशील भी रहे. उनका स्पष्ट मत था कि भारत में अंग्रेजी जो एक विदेशी भाषा है हाबी है और उसका रोजगार पर असर है और एकजुट हो कर उसका गढ़ तोड़ना होगा. उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ इस कटु यथार्थ को रेखांकित करती हैं:
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बनने चली विश्व-भाषा जो अपने घर में दासी
सिंहासन पर अंग्रेजी है लख कर दुनिया हासी
लख कर दुनिया हासी हिन्दीदां बनते चपरासी
अफसर सारे अंग्रेजीमय अवधी या मद्रासी
कह कैदी कविराय विश्व की चिंता छोड़ो
पहले घर में अंग्रेजी के गढ़ को तोड़ो
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संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में 1977 में भारत के परराष्ट्र मंत्री के रूप में वाजपेयी जी ने हिंदी में भाषण दे कर एक नई पहल की थी. इस अवसर पर उठे मनोभावों को व्यक्त करते हुए उनके हार्दिक उद्गार निम्नांकित कविता में व्यक्त हुए थे :
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गूंजी हिन्दी विश्व में, स्वप्न हुआ साकार
राष्ट्रसंघ के मंच से, हिन्दी की जयकार
हिन्दी की जयकार, हिन्द हिन्दी में बोला
देख स्वभाषा-प्रेम, विश्व अचरज से डोला
कह कैदी कविराय, मेम की माया टूटी
भारत-माता धन्य , स्नेह की सरिता फूटी
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वाजपेयी जी का संस्कृति और साहित्य से विशेष लगाव था और अपने व्यस्त समय में भी इनसे जुड़े कार्यक्रमों में उत्साह से भाग लेते थे. मैंने कवि हृदयप्रधान मंत्री को लाल क़िले पर हिंदी कवि सम्मेलन में उपस्थित होते देखा था. जब कवि उनके ऊपर व्यंग्य और कटाक्ष करते थे तो उसका भी वे आनंद लेते थे. अनेकानेक साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी के लिए वह अवसर जरूर निकालते थे. उनके आवास-परिसर में स्थित ‘पञ्चवटी’ में अनेक आयोजन हुए थे. पंडित विद्यानिवास मिश्र की 75 वें जन्म दिवस पर एक भव्य आयोजन उनके सान्निध्य में हुआ था. हिंदी वाजपेयी जी की अभिव्यक्ति की भाषा थी और उनका हिंदी-लेखन तथा व्याख्यान हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं. प्रस्तुति और विवेचन की उनकी मौलिक शैली है जो अपने प्रवाह और ओज गुण से पाठक और श्रोता को न केवल आकृष्ट कर लेती है बल्कि सोचने के लिए उद्वेलित भी करती है.
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एक लेखक, कवि, पत्रकार और राष्ट्र-भक्त के रूप में भारतीय समाज और संस्कृति के लिए समर्पित विनय, संयम और धैर्य के धनी भारत माता के इस अनमोल सपूत ने अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति, और कर्तव्य-निष्ठा से भारत माता की उल्लेखनीय सेवा की. वर्ष 2015 में वाजपेयी जी को देश सेवा के लिए ‘भारत रत्न’ का सर्वोच्च सम्मान दे कर अलंकृत किया गया. भारत सरकार ने 2014 में वाजपेयी जी का जन्मदिन ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने का निश्चय किया था. भारत की वर्त्तमान चुनौतियों के बीच सुशासन सबसे महत्वपूर्ण है . इस दिशा में कई कदम उठाए जा रहे हैं पर अभी भी बहुत कुछ शेष है.
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आस्तिक वाजपेयी जी जीवन से संतुष्ट थे और जीवन की निरंतरता में विश्वास करते थे. अभय की मुद्रा में उनका कवि मन आश्वस्त हो कहता है:
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मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं
लौट कर आऊँगा, कूच से क्यों डरूं?
भारत माता के अमर सपूत भारत रत्न श्री वाजपेयी सदैव प्रेरणा के श्रोत बने रहेंगे.
(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)