- डॉ. मोहन चंद तिवारी
इस वर्ष 18 सितंबर से ‘अधिमास’ प्रारंभ
हो चुका है,जो 16 अक्टूबर को समाप्त होगा.और 17 अक्टूबर से नवरात्र प्रारम्भ होंगे. यह ‘अधिमास’,’अधिक मास’, ‘मलमास’ और ‘पुरुषोत्तम मास’ आदि नामों से भी जाना जाता है. ‘अधिमास’ के कारण इस बार दो आश्विन मास पड़े हैं. साथ ही चतुर्मास भी पांच महीनों का हो गया है और नवरात्रि जो श्राद्ध पक्ष की समाप्ति के साथ ही शुरू हो जाती थी वह भी एक महीने पीछे खिसक गई है.घासी
विदित हो कि भारतीय पंचांग के
अनुसार वर्त्तमान विक्रम संवत 2077 में मान्य 60 संवत्सरों में 47वां ‘प्रमादी’ नामक संवत्सर चल रहा है. ‘संवत्सर’ उसे कहते हैं जिसमें मास आदि भली भांति निवास करते रहें. इसका दूसरा अर्थ है बारह महीने का काल विशेष. इस नए संवत की खास विशेषता यह है कि इस बार दो आश्विन मास होने के कारण वर्ष बारह नहीं बल्कि तेरह महीनों का होगा और श्राद्ध और नवरात्रि के बीच एक महीने का अंतराल भी आ गया है.क्यों आता है अधिमास?
भारतीय पंचांग गणना के अनुसार तीन
साल में एक बार अधिक मास होता है. वह इसलिए कि सौरमास 365 दिन का होता है जबकि चंद्रमास 354 दिन का होता है. इस कारण हर साल 11 दिन का अंतर आता है, जो तीन साल में बढ़कर एक माह से कुछ अधिक हो जाता है. यह 32 माह 16 दिन के अंतराल से हर तीसरे साल में होता है.इस अंतर को संतुलित करने के लिए भारतीय काल गणना के चिंतकों द्वारा ‘अधिमास’ की व्यवस्था की गई है.घासी
भारतीय काल गणना पद्धति के अनुसार प्रत्येक मास का कोई न कोई देवता होता जिसके नियंत्रण में उस मास की गतिविधियां संचालित होती हैं. पौराणिक मान्यता यह भी है कि इस ‘अधिमास’
का कोई स्वामी नहीं होता.इसलिए इस मास को विवाह, यज्ञोपवीत आदि मांगलिक कार्यो के लिए अशुभ माना जाता है. इसी असमंजस और संशय को लेकर पूर्वकाल में देवतागण भगवान् विष्णु के पास गए तो भगवान् विष्णु ने कहा कि आज से मैं इस ‘अधिमास’ को अपना नाम देता हूं.उन्होंने इसे ‘पुरुषोत्तम मास’ की संज्ञा दे दी. तब से इस माह में भागवत कथा व अन्य मांगलिक कार्यों का अनुष्ठान अत्यंत शुभ माना जाता है.‘भारतराष्ट्र’ की पहचान विक्रम संवत्
विदित हो कि भारतवर्ष में इस
समय देशी तथा विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है किन्तु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत् यदि कोई है तो वह विक्रम संवत् ही है. आज से लगभग 2076 वर्ष पूर्व यानी 57 ई.पू. में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था.उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से विक्रम संवत् का भी आरम्भ हुआ था.प्राचीन काल में नया संवत् चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी प्रजाजनों को ऋण मुक्त करना आवश्यक होता था. राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत् चलाया. शिलालेखों में मालव संवत् के नाम से प्रसिद्ध यही संवत् बाद में विक्रम संवत् के नाम से लोकप्रिय हो गया.धौलपुर से मिलने वाला संवत् 898 का शिलालेख सबसे पहला शिलालेख है जिसमें विक्रम संवत् का उल्लेख मिलता है. इससे पहले के सभी शिलालेख मालव संवत् के नाम से जारी किए गए थे.घासी
दरअसल,भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम और प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं. उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता
से मुक्त किया था. राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी खौफ खाते थे. इस संवत्सर के साथ ‘विक्रम’ का नाम इसलिए जोड़ा जाता है क्योंकि महाराज विक्रमादित्य ने ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, संस्कृति को विशेष प्रोत्साहन दिया था. ‘ज्योतिर्विदाभरण’ नामक ग्रन्थ के अनुसार धन्वन्तरि जैसे महान् वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान् ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान् साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे.घासी
प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दुःखियों को साहुकारों के कर्ज से मुक्त किया था.एक चक्रवर्ती सम्राट् होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग
को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे. वे इतने आत्मसंयमी थे कि अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे.अपने पीने के लिए जल भी वे अपने सेवकों से नहीं मंगाते थे बल्कि स्वयं क्षिप्रा नदी से लाया करते थे. विक्रमादित्य के इन्हीं राष्ट्ररक्षा सम्बन्धी कृत्यों और प्रजाहितैषी नीतियों के कारण उनके द्वारा चलाए गए संवत् को राष्ट्रीय आस्था भाव से देखा जाने लगा.पिछले दो हजार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनैतिक दृष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किन्तु ‘भारतराष्ट्र’ की सांस्कृतिक पहचान केवल मात्र विक्रमी संवत् के साथ ही जुड़ी रही क्योंकि यही एक ऐसा संवत है जो ऋतुविज्ञान की
मान्यताओं से अनुप्रेरित है. अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत् का बोल बाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परन्तु एक ठोस सचाई यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरुनानक आदि महापुरुषों की जयन्तियां आज भी भारतीय काल गणना विक्रम संवत के अनुसार ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत् के अनुसार नहीं. विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण की पुण्य तिथि सबका निर्धारण भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं.घासी
विक्रम संवत् को भारत का राष्ट्रीय संवत् इसलिए भी माना जाता है क्योंकि केवल यही एक ऐसा धर्मनिरपेक्ष संवत् है जो किसी धर्म या सम्प्रदाय प्रवर्तक की यादगार से नहीं जुड़ा है, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के षड् ऋतुचक्र और सूर्य के वार्षिक संवत्सर चक्र की ज्योतिष वैज्ञानिक अवधारणाओं से यह संवत संचालित होता है.
सृष्टि निर्माण की भी पुण्य तिथि
भारतीय कालगणना पद्धति के अनुसार
“चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि.
शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति..”
– हेमाद्रि
घासी
इसीलिए प्रतिवर्ष चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से नव संवत्सर विक्रम संवत् का भी शुभारम्भ होता है और इसी पुण्य तिथि से वासन्तिक नवरात्र भी प्रारम्भ हो जाते हैं. संवत्सर-चक्र के
अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है. भारतवर्ष में वसन्त ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लास पूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव श्रृंगार किया जाता है. लोग इस दिन वन्दनवार, तोरण आदि से अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके नूतन संवत्सर वर्ष का स्वागत करते हैं.घासी
दरअसल, ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि निर्माण की अवधारणा हो या मत्स्यावतार और सत्ययुग के प्रारम्भ होने की तिथि,सृष्टि के आदिकाल से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के साथ उनका कालगणना की दृष्टि से
भी घनिष्ठ सम्बन्ध रहता आया है. वसन्तु ऋतु में आने वाले वासन्तिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा उसी शुक्ल प्रतिपदा की पुण्यतिथि से होता है.विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से नवसंवत्सर संवत् और वासन्तिक नवरात्र और आश्विन मास की शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र मनाने की परम्परा शुरू की थी.(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)