मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—6
- प्रकाश उप्रेती
इसको हम- जानहर, जंदरु, जांदरी कहते हैं. यह एक तरह से घरेलू चक्की है. उन दिनों बिजली तो होती नहीं थी. पानी की चक्की वालों के पास जाना पड़ता था. वो पिसे हुए का ‘भाग’ (थोड़ा आटा) भी लेते थे. इसलिए कई बार घर पर ही ‘जानहर’ चलाकर अनाज पीस लिया जाता था. पहाड़ अधिकतर चीजों में आत्मनिर्भर था. उसके पास अपनी जरूरतों के हिसाब से संसाधन थे और ये समझ भी कि उनका सर्वोत्तम उपयोग किस तरह करना है. तकनीक और मशीनों से बहुत दूर इस समझ के बलबूते ही जीवन चलता था.
घर में रोज अम्मा (दादी) जानहर चलाती थीं. अम्मा एक बार में दो समय की रोटी भर के लिए ही पीस पाती थीं. मगर जब अम्मा और ईजा(मां) साथ मिलकर पीसते थे तो फिर कुछ आटा अगले दिन के लिए भी बच जाता था. यह तब ही होता था जब बाहर का कोई काम न हो. नहीं तो ईजा बाहर के कामों में ही लगी रहती थीं. जानहर से बड़ी आवाज भी निकलती थी. ईजा कहती थीं- “रात-दिन जानहर बस”.
पहले अम्मा और ईजा सुबह चार बजे उठकर जानहर चलातीं थीं. यह बड़ा कठिन काम था, उनके हाथों में अक्सर दर्द रहता था. उसी दर्द के साथ पूरे दिन भर घर और खेत का काम भी करना होता था. लेकिन तब उनके पास इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था इसलिए चलाने की बारी लगती थी, कभी अम्मा तो कभी ईजा.
जानहर के बीचों- बीच एक छेद होता था जिसमें गेहूं, जौ, बाजरा, और मंडुवा डाला जाता था. साथ ही इसमें लकड़ी का एक हत्था भी होता था जिससे इसे घुमाते थे. इन दो पत्थरों के बीच में लकड़ी का एक साँचा लगता था जो धुरी का काम करता था. फिर जब इसको घुमाते थे तो इसके चारों ओर से आटा निकलता था. शुरू में घुमाने के लिए बड़ा जोर लगाना पड़ता था. कई बार तो ईजा दोनों हाथों से पकडकर घुमाती थीं. जैसे-जैसे गेहूँ पिसता जाता तो जानहर हल्का होता जाता था. फिर एकदम तेज घूमने लगता था.
घट पीसने का मतलब था, घर से गेहूं, मंडुवा , बाजरा लेकर पानी की चक्की वालों के पास जाना. जिनका घट होता था वो हमारे गेहूँ, मंडुवे को पीसकर अपनी मेहनत के रूप में उसमें से थोड़ा आटा ले लेते थे. पैसे देने का रिवाज नहीं था तब. उनके पास एक बर्तन होता था. वह उसी से आटा निकालते थे, वही उनका पैमाना होता था.
पहले अम्मा और ईजा सुबह चार बजे उठकर जानहर चलातीं थीं. यह बड़ा कठिन काम था, उनके हाथों में अक्सर दर्द रहता था. उसी दर्द के साथ पूरे दिन भर घर और खेत का काम भी करना होता था. लेकिन तब उनके पास इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था इसलिए चलाने की बारी लगती थी, कभी अम्मा तो कभी ईजा. एक दिन में वह 4 से 5 किलो आटा निकाल लेते थे. हम लोग अक्सर छोटा सा झाड़ू लेकर आटे को इकट्ठा करते थे या मंडुवा उसमें डालते थे. इसके पास बच्चों को कम ही आने दिया जाता था. एक तो बच्चे अनाज को इधर -उधर कर हाथ-मुंह सब खराब कर दिया करते, अनाज की बर्बाद हुई सो अलग. साथ ही यह भी डर होता था कि कहीं जानहर में उंगली या हाथ न दबा लें.
तब सभी घरों में पीसने का यही साधन था. रात-रात भर लोग जानहर पीसने में ही गुजार देते थे. बाद के दिनों में ‘घट’ आ गए. घट पानी से चलते थे. एक तरह से पानी से चलने वाली चक्की थी वह. फिर हम ‘घट पीसने’ जाते थे. घट पीसने का मतलब था, घर से गेहूं, मंडुवा , बाजरा लेकर पानी की चक्की वालों के पास जाना. जिनका घट होता था वो हमारे गेहूँ, मंडुवे को पीसकर अपनी मेहनत के रूप में उसमें से थोड़ा आटा ले लेते थे. पैसे देने का रिवाज नहीं था तब. उनके पास एक बर्तन होता था. वह उसी से आटा निकालते थे, वही उनका पैमाना होता था. घट जाना तब भी कम ही लोग पसंद करते थे. उसका कारण वो आटा था जो पीसने वाला अपनी मेहनत के रूप में निकालता था. तब उतना आटा किसी को दे देना भी अखरता था, लोगों को लगता था इससे बेहतर वो खुद ही घर पर न पीस लें.
जानहर अब पत्थर के दो पाट भर हैं. बाजार के इस दौर में उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है. धीरे-धीरे वह बे-कामिल वस्तु होते -होते घरों से भी उखाड़ दी गई है. उसकी जगह बिजली वाली चक्की ने ले ली है. अब न कोई जानहर लगाता है, न ही कोई घट पीसने जाता है. अब हम आटा पीसने और आटा लेने जाते हैं. सुना है हमने तरक़्क़ी कर ली है, बल .
बरसात के दिनों में नदी में जब बाढ़ आती थी तो घट बह जाते थे. तब फिर से अम्मा का जानहर चलने लगता था. कभी अम्मा तो कभी ईजा जानहर चलातीं. बरसात के दिनों में तो दिन-रात जानहर चलता था. तेज बारिश में जब बाहर निकलना असंभव हो जाता था तो घर पर यही काम बचता था. ईजा को पहले से ही खाली बैठना नहीं सुहाता है, हर समय कुछ न कुछ करते रहने की आदत थी. इसलिए बारिश के दिनों, जब घास-लकड़ी के लिए नहीं जा पातीं तो घर पर जानहर चलाती थीं. अब जानहर गुजरे जमाने की चीज हो गई है. यह घर में लगा भर है. कुछ लोगों ने इसे घरों से निकाल भी दिया है. उनको लगता है, यह जगह घेर रहा है.
जानहर अब पत्थर के दो पाट भर हैं. बाजार के इस दौर में उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है. धीरे-धीरे वह बे-कामिल वस्तु होते -होते घरों से भी उखाड़ दी गई है. उसकी जगह बिजली वाली चक्की ने ले ली है. अब न कोई जानहर लगाता है, न ही कोई घट पीसने जाता है. अब हम आटा पीसने और आटा लेने जाते हैं. सुना है हमने तरक़्क़ी कर ली है, बल .
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)