- डॉ. अरुण कुकसाल
अपने गांव चामी की धार चमधार में बैठकर मित्र प्रो. अतुल जोशी के संपादन में प्रकाशित पुस्तक ‘भारतीय हिमालय क्षेत्र से पलायन: चुनौतियां एवं समाधान- Migration from Indian Himalaya Region: Challenges and Strategies’ का अध्ययन मेरे लिए आनंददायी रहा है. इस किताब के
बहाने कुछ बातें साझा करना उचित लगा इसलिए आपकी की ओर मुख़ातिब हूं.उत्तराखंड
‘मेरी उन्नति अपने ग्राम और इलाके की उन्नति के साथ नहीं हुई है, उससे कटकर हुई है. जो राष्ट्रीय उन्नति स्थानीय उन्नति को खोने की कीमत पर होती है, वह कभी स्थाई नहीं
हो सकती. उत्तराखंड के बुद्धिजीवियों का देश की उन्नति में कितना ही बड़ा योगदान हो, उत्तराखंड की समस्याओं से अलगाव और उन्नति में योगदान से उदासीनता उनके जीवन की बड़ी अपूर्णता है. यह राष्ट्र की भी बड़ी त्रासदी है.’ वरिष्ठ सामाजिक चिंतक और अर्थशास्त्री प्रो. पी. सी. जोशी का यह कथन मुझे हमेशा अपने गांव-इलाके से जोड़े रखने में सहायक सिद्ध हुआ है.पहाड़ी
मैं बात किताब पर केन्द्रित करता हूं निःसदेंह प्रो. अतुल जोशी (अधिष्ठाता, वाणिज्य एवं प्रबंधन अध्ययन संकाय एवं विभागाध्यक्ष,
वाणिज्य, डी. एस. बी. परिसर तथा निदेशक, आईपीएसडीआर, कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल) और उनकी टीम ने हिमालयी क्षेत्र के पलायन के प्रश्न पर अकादमिक जगत में हो रहे विविध गम्भीर विचार-विर्मशों को एक किताबी प्लेटफार्म पर लाने का सफल प्रयास किया है. इससे पूर्व पलायन के सवाल पर प्रो. आर. एस. बोरा, प्रो. आर. पी. ममगांई, प्रो. जी. एस. मेहता, प्रो. एम. सी. सती, प्रो. बी. के. जोशी की अध्ययन रिपोर्टों को मैंने पढ़ा है. राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान, हैदराबाद, पलायन आयोग और अर्थ एवं संख्या विभाग, उत्तराखंड की रिर्पाट भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय है.हमारे
जगदम्बा पब्लिशिंग,
नई दिल्ली से प्रकाशित 334 पेज की इस सम्पादित पुस्तक में 71 अकादमिक व्यक्तित्वों के शोध पत्र हैं. इसमें ज्यादातर लेखकीय शोधार्थी कुमाऊं एवं गढ़वाल विश्ववि़द्यालयों से जुड़े है. पुस्तक में शामिल कुल 41 शोधपत्रों में 13 हिन्दी और 28 अग्रेंजी भाषा में है.समाज
भारतीय हिमालय के व्यापक फलक में अधिकांश शोध-पत्र मध्य हिमालयी क्षेत्र की बातों, समस्याओं और प्रश्नों को लिए हुए हैं. हिमालय भारतीय महाद्वीप के सम्पूर्ण पारिस्थिकीय तंत्र का जनक, नियंता और नियंत्रक है. इसके भूगर्भीय, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक चिन्तन से यह पुस्तक प्रारम्भ होती है.
प्रथम दो शोध-पत्रों में डॉ. महिमा जोशी और प्रो. अतुल जोशी ने हिमालयी भू-क्षेत्र और जीव-जगत की गूढ़ जानकारियों को जन सामान्य के समझने के दृष्टिगत पाठकों तक पहुंचाई है. उनका यह सुझाव प्रासंगिक है कि हिमालयी सीमाओं से हो रहे अत्यधिक पलायन पर युक्तिसंगत नीति बनाने एवं लागू करने हेतु केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रभुत्व सम्पन्न ‘हिमालयी राज्य विकास मंत्रालय’ का गठन करना चाहिए. सतीश चन्द्र् का यह सुझाव कि प्रवासियों द्वारा पहाड़ों में अपनी पैतृक वीरान भवनों और बंजर जमीन से होने वाले नुकसानों से बचने और उनका सदुपयोग करने के लिए सरकार स्पष्ट नीति बनाये और उसे कड़ाई से लागू करे. यह विचार धीरे-धीरे पहाड़ी जन-जीवन में चर्चा में आने लगा है कि बंजर जमीन का सरकार अधिग्रहण करके उसे उत्पादक कार्यों में प्रयुक्त किया जाय.सरकार
उत्तराखंड की बात
की जाए तो अच्छी पढ़ाई के लिए देहरादून और अच्छे इलाज के लिए दिल्ली से नजदीक कोई सुविधा सरकार और समाज हमारे पहाड़ी गांवों को नहीं दे पाई है. बावजूद इसके, हम ग्रामीण पहाड़ी लोग शहरी कुंठाओं से ग्रस्त नहीं हुये हैं. यही हमारी ताकत और पहचान है.
पलायन
पहाड़ के हालात बता रहे हैं कि देर-सबेर इस विचार को अमल में आना ही है. सभी लेखकों ने अपने शोध-पत्रों में स्पष्ट किया है कि पलायन स्थान विशेष, समय अन्तराल, उद्वेश्य एवं
परस्थितियों की प्रकृति और प्रवृति के अनुरूप ही होता है. अतः पलायन के पुश फैक्टर (रोजगार की कमी, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मूलभूत सुविधाओं का अभाव, जंगली जानवरों द्वारा कृर्षि व्यवस्था को चौपट करना, प्राकृतिक आपदा, अव्यवहारिक सरकारी नीतियां एवं उनका कमजोर क्रियान्वयन) और पुल फैक्टर (रोजगार की उपलब्धता, शिक्षा-स्वास्थ्य की गुणवत्तापूर्ण व्यवस्था, सामाजिक सुरक्षा एवं सम्मान, आधुनिक जीवन शैली) के प्रभावों को इसी आधार पर विश्लेषित किया जाना चाहिए.जीवन
निःसंदेह सभी विद्वान लेखकों ने पलायन के मर्म और दर्द को विषय विशेषज्ञता के आधार पर अपने शोध-पत्रों में बखूबी
उल्लेखित किया है. विशेषकर डॉ. महिमा जोशी, डॉ. राजेश नौटियाल, प्रो. इंदु पाठक, डॉ. बुशरा मतीन, जगमोहन रौतेला, डॉ. पंकज उप्रेती, पूनम रौतेला, प्रो. जीत राम, प्रो. अतुल जोशी, प्रो. एम. सी पांडे, प्रो. आर. एस. नेगी, प्रो. नीता बोरा, डॉ. पी. एन. तिवारी, डॉ. प्रदीप कुमार ने पलायन से संदर्भित विशिष्ट माॅडलों को रेखांकित किया है. परन्तु शोध पत्रों की ये बहस अकादमिक दायरे से बाहर आकर नीति नियंताओं के सम्मुख आये, तभी बात बनेगी. इसके लिए हिमालय राज्यों की सरकारों को मजबूत इच्छाशक्ति से पहल करनी चाहिए.जन
वास्तव में, यह किताब हिमालयी जन जीवन के पलायन पर शोधार्थियों के अध्ययन, दूरदर्शिता और मतंव्यों को समग्रता में लाने का एक गम्भीर प्रयास है. जिसकी उपयोगिता समाज में
सक्रिय सभी पक्षों के लिए है. अतः सामाजिक सरोकारों से जुड़े व्यक्तियों एवं संस्थाओं, नीति-नियंताओं, राजनीतिज्ञों और शिक्षण एवं शोध कार्य में दद्चित व्यक्तित्वों के पास यह किताब अध्ययन और कार्ययोजनाओं के निर्धारण और क्रियान्वयन के उद्वेश्य से संदर्भ साहित्य के रूप में उपलब्ध होनी चाहिए. इस लिहाज़ से हिमालय क्षेत्र में पलायन की समस्या को अवसर में तब्दील करने की समझ को विकसित करने में यह पुस्तक मददगार होगी, यह कहना युक्तिसंगत है.किताब
मैं पुनः किताब से हट कर यह बात विनम्रता के साथ परन्तु मजबूती से कहना चाहता हूं कि किसी भी स्तर से गांव से पलायन रोकने की बात कही जाती है तो उन्हें स्वयं इस
तरह का व्यवहारिक आचरण और पहल करनी होगी. हमें दूसरों से कहने-लिखने से ज्यादा खुद साबित करके दिखाना होगा. पहाड़ के गांव में आना-जाना और गांव में ग्रामीणों जैसा रहना इन दोनों प्रवृत्तियों में बहुत अन्तर है. गांव में जीवकोपार्जन करके जीवन को चलाने की दिक्कतें दिखती कम हैं उसे गांव में रहकर ही महसूस किया जा सकता है. उत्तराखंड की बात की जाए तो अच्छी पढ़ाई के लिए देहरादून और अच्छे इलाज के लिए दिल्ली से नजदीक कोई सुविधा सरकार और समाज हमारे पहाड़ी गांवों को नहीं दे पाई है. बावजूद इसके, हम ग्रामीण पहाड़ी लोग शहरी कुंठाओं से ग्रस्त नहीं हुये हैं. यही हमारी ताकत और पहचान है.हिमालयी
पुनः मित्र प्रो. अतुल जोशी और उनकी
युवा टीम को इस बेहतरीन शोध पुस्तक के लिए बधाई और शुभ-कामनाएं.(लेखक एवं प्रशिक्षक)