उड़ान

  • डॉ. दीपशिखा

वो भी उड़ना चाहती है.
बचपन से ही चिड़िया, तितली और परिंदे उसे आकर्षित करते.
वो बना माँ की ओढ़नी को पंख, मारा करती कूद ऊँचाई से.
उसे पता था वो ऐसे उड़ नहीं पायेगी फिर भी रोज़ करती रही प्रयास.

एक ही खेल बार-बार.
उसने उम्मीद ना छोड़ी, एक पल नहीं, कभी नहीं.
उम्मीद उसे आज भी है, बहुत है मगर अब वो ऐसे असफल प्रयास नहीं करती.
लगाती है दिमाग़ कि सफल हो जाए अबकी बार और फिर हर बार.

फिर भी आज भी वो उड़ नहीं पाती, बोझ बहुत है उस पर जिसे हल्का नहीं कर पाती.
समाज, परिवार, रिश्ते, नाते, रीति-रिवाजों और मर्यादाओं का भारी बोझ.

तोड़ देता है उसके कंधे.
और सबसे बड़ा बोझ उसके लड़की, औरत और माँ होने का.
किसी पेपर वेट की तरह उसके मन को हवा में हिलोरें मारने ना देता.
कभी-कभी भावनाओं की बारिश में भीग भी जाते हैं उसके पंख.

उसके नए-नए उगे पंख.
जो उसने कई सालों की मेहनत के बाद उगाए,
एक झटके में सिमट जाते हैं किसी तूफ़ान में.
तो क्या वो बिना उड़े ही आसमान देख रह जाती है!

नहीं-नहीं! वो फिर सोचती है.
और जैसे ही होता है तूफ़ान शांत.
वो करती है फिर कोशिश, इस बार पहले से भी ज़्यादा.
हल्का कर रही अपना बोझ.

पंखों को भी दे रही ऐसे रंग-रूप जो ना भीगे अबकी बार.
हाँ ज़रूर! उड़ेगी वो एक दिन, और वो भी अपने स्वाभिमान को हल्का किए बिना.

(लेखिका असिस्‍टेंट प्रोफेसर, डीएसबी कैंपस कुमाउं विश्वविद्यालय, नैनीताल हैं)

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