राष्ट्रपिता की पुण्यतिथि पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
आज 30 जनवरी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की पुण्य तिथि है. इस दिन समूचा देश राष्ट्रपिता को देश की आजादी के लिए उनके द्वारा दिए गए योगदान हेतु अपनी
भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है.राष्ट्रपिता के दिशा निर्देशन में ही भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी और उस स्वतंत्र भारत का लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक स्वरूप कैसा होगा इस पर भी गांधी जी के द्वारा गम्भीरता से विचार विमर्श होता रहा था. गांधी जी के स्वराज का सपना था कि सत्ता लोगों के हाथ में होनी चाहिए न कि चुने हुए कुछ चंद लोगों के हाथ में.10 फरवरी, 1927 को ‘यंग इंडिया’ में गांधी जी ने लिखा-स्वराज
”सच्चा स्वराज मुट्ठी भर
लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्ति से नहीं आएगा बल्कि सत्ता का दुरुपयोग किए जाने की सूरत में उसका प्रतिरोध करने की जनता की सामर्थ्य विकसित होने से आएगा.”स्वराज
“सच्ची लोकशाही
केन्द्र में बैठे हुए 20 आदमी नहीं चला सकते. वो तो नीचे हर गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए ताकि सत्ता के केन्द्र बिन्दु जो इस समय दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई जैसे बड़े शहरों में हैं, मैं उसे भारत के 7 लाख गावों में बांटना चाहूँगा.”
स्वराज
यानी एक बात तो स्पष्ट है कि बहुमत के द्वारा पश्चिमी संसदीय राजनैतिक प्रणाली को गांधी जी भारत का वास्तविक स्वराज नहीं मानते थे.उनके अनुसार लोकतंत्र की भागीदारी ग्राम
संस्था के माध्यम से होनी चाहिए. सन् 1909 में ही गांधी जी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में भारत के वास्तविक लोकतंत्र का स्वरूप ‘ग्राम स्वराज’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा कि-स्वराज
“सच्ची लोकशाही केन्द्र में बैठे
हुए 20 आदमी नहीं चला सकते. वो तो नीचे हर गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए ताकि सत्ता के केन्द्र बिन्दु जो इस समय दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई जैसे बड़े शहरों में हैं, मैं उसे भारत के 7 लाख गावों में बांटना चाहूँगा.”स्वराज
गांधी जी की भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में अग्रणी भूमिका ही नहीं थी बल्कि स्वराज और प्रजातांत्रिक मूल्यों के बारे में भी उन्होंने समय समय पर देश का मार्गदर्शन
भी किया था.लेकिन आजादी मिलने के बाद हमारे राजनेताओं ने सत्ता के मोह में गांधी जी की समाधि पर फूल मालाएं ही चढ़ाई उनके स्वराज और प्रजातांत्रिक मूल्यों और आदर्शों पर कभी आचरण ही नहीं किया.गांधी जी जब देशवासियों को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित,प्रोत्साहित और आंदोलित कर रहे थे तो उसी दौरान उन्होंने स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक भारत को भी एक मूर्त्त और वैचारिक रूप दे दिया था,किन्तु विडम्बना यह रही कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के तत्कालीन नेताओं ने संसदीय लोकतंत्र के पश्चिमी विचारतन्त्र को ही संविधान में महत्त्व दिया और गांधी जी की स्वराज चिंतन को कोई मान्यता नहीं दी गई. गांधी जी के समक्ष भारत को एक स्वतंत्र और सम्प्रभु राष्ट्र को प्रजातांत्रिक दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए दो मॉडल थे. एक था ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा सम्पोषित पश्चिमी संसदीय लोकतंत्र का मॉडल और दूसरा था हजारों वर्ष पुराना जांचा और परखा हुआ स्वदेशी लोकतंत्र का मॉडल जो उसे धरोहर के रूप में मिला था. किन्तु विडम्बना यह रही कि आजादी की लड़ाई लड़ी तो गई स्वदेशी मूल्यों और ‘वंदेमातरम्’ के गीतों से किंतु संविधान में पश्चिमी मानसिकता के शासनसूत्रों को ही वरीयता दी गई.स्वराज
गांधी जी ने अपने ‘हिन्द
स्वराज’ में इसी गैर जिम्मेदार पश्चिमी संसदीय प्रणाली के समकक्ष जन जन की भागीदारी से जुड़े ‘ग्राम स्वराज’ के रूप में एक जवाबदेह भारतीय लोकतंत्र की जो अवधारणा प्रस्तुत की थी, दरअसल,वह भारतवर्ष का आठ हजार वर्ष पुराना स्वदेशी लोकतान्त्रिक चिंतन है जिसने पंचायती शासन व्यवस्था के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र को आज भी जीवित कर रखा है.
स्वराज
‘गांधी जी ने प्राचीन भारतीय
लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में ही ‘ग्राम स्वराज’, ‘रामराज्य’ जैसी अवधारणाएं अपने देशवासियों में लिए इसलिए प्रस्तुत की थीं ताकि पश्चिमी सभ्यता के मोहजाल में फंसे और अंग्रेजों की दासता में जकड़े भारतवासी स्वाभिमान से कह सकें कि हमारे पास भी स्वराज और लोकतंत्र की अपनी गौरव शाली परम्परा है जो ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से लाख दर्जे बेहतर है.स्वराज
आजादी मिलने से बहुत पहले ही गांधी जी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ के माध्यम से ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के दोषों को दर्शाते हुए बता दिया था कि यह प्रणाली एक गैर
जिम्मेदार व्यवस्था है जिसका मालिक कभी कोई तो कभी कोई नेता होता है मगर उनमें से जवाब देही किसी की नहीं रहती.उसी का दुष्परिणाम है कि आज हमारा लोकतंत्र आम आदमी के जन कल्याण से दूर होता जा रहा है. गांधी जी ने अपने ‘हिन्द स्वराज’ में इसी गैर जिम्मेदार पश्चिमी संसदीय प्रणाली के समकक्ष जन जन की भागीदारी से जुड़े ‘ग्राम स्वराज’ के रूप में एक जवाबदेह भारतीय लोकतंत्र की जो अवधारणा प्रस्तुत की थी, दरअसल,वह भारतवर्ष का आठ हजार वर्ष पुराना स्वदेशी लोकतान्त्रिक चिंतन है जिसने पंचायती शासन व्यवस्था के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र को आज भी जीवित कर रखा है.स्वराज
चिन्ता की बात है कि आजादी मिलने के 74 वर्षों के बाद भी गांधी जी के पूर्ण स्वराज का स्वप्न पूरा नहीं हो सका है. सन् 1993 में राजीव गांधी सरकार ने संविधान में 73वां एवं 74वां संशोधन पास करवा कर आम आदमी को यह एहसास अवश्य कराया था कि ग्राम पंचायतों एवं नगर सभाओं को शासन प्रणाली की मुख्य धारा
में जोड़कर पूर्ण स्वराज प्राप्त करने के लिए ठोस प्रयास किए जाएंगे किन्तु राजनैतिक पार्टियों की आपसी दलबन्दी एवं प्रशासनिक निकायों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण पंचायती राज आम आदमी की जन समस्याओं के धरातल पर लोकतंत्र की मुख्य धारा में सदा उपेक्षित ही रहा है.वातानुकूलित भवनों में बैठकर देश के योजनाकार धनबलियों एवं बाहुबलियों के दबाव में आकर देश की आर्थिक नीतियों का खाका तैयार कर देते हैं किन्तु ग्रामों में रहने वाले किसान, मजदूर, छोटे व्यवसायी आज भी बदहाली का जीवन जी रहे हैं,जिसके कारण गांधी जी के पूर्ण स्वराज का सपना पूरा नहीं हो सका है.स्वराज
महात्मा गांधी ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पोषित इन राजनैतिक अवधारणाओं को स्वतंत्रता तथा स्वराज का घोर विरोधी मानते थे तथा भारतराष्ट्र के स्वदेशी मूल्यों के आधार पर लोकतांत्रिक
संस्थाओं को नई दिशा देना चाहते थे. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1950 में प्रो इन्द्र ने संस्कृत भाषा में ‘गांधी-गीता’ के नाम से जो आधुनिक गीता की रचना की है प्रजातंत्र के वास्तविक स्वरूप को समझना उसका मुख्य प्रयोजन रहा था. ‘गांधी-गीता’ के अनुसार ‘प्रजातंत्र में प्रजा का, प्रजा के द्वारा, प्रजा के लिए शासन व्यवस्था होती है और उस प्रजातंत्र का मुखिया भी वस्तुत: प्रजा का मुख्य सेवक ही कहलाता है’-स्वराज
”प्रजाया: प्रजया तस्मिन्,प्रजायै शासनं भवेत्.
अशेषजनकल्याणं,तदुद्देश:शुभो भवेत्..
तद्राष्ट्रस्य महाध्यक्षो, विज्ञातो राष्ट्रनायक:.
नृपतिर्वा प्रजाया: स्यात्,यथार्थो मुख्यसेवक:..”
– गांधी-गीता, 18.24-25
विडम्बना यह भी है कि लम्बे संघर्ष
और हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के आत्म बलिदान के फलस्वरूप प्राप्त आजादी का लाभ केवल एक खास वर्ग को ही मिल पाया है.भारतीय संविधान में कल्याणकारी राज्य की जो रूपरेखा डॉ अम्बेडकर ने निर्धारित की थी,हमारा शासन तंत्र उसे पूरा करने में विफल होता जा रहा है.स्वराज
दरअसल, प्रजातंत्र में शासन प्रणाली
द्वारा राष्ट्रीय एकता और जन जन को आजादी के मूल्यों से जोड़ने के लिए कम से कम तीन मूल आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य की जानी चाहिए-- अधिक से अधिक लोगों को कल्याणकारी विकास योजनाओं से जोड़ना.
- विभिन्न मतभेदों और राजनैतिक विवादों का आम सहमति एवं संधि-समझौतों द्वारा निराकरण करना,और
- एक समानतावादी और धार्मिकता की दृष्टि से सहिष्णुतावादी समाज की स्थापना के लिए कृतसंकल्प होना.
स्वराज
गौरतलब है कि भारत में पिछले आठ हजार वर्षों से स्थानीय ग्राम सभाओं,नगर सभाओं एवं पंचायती राज प्रणाली से राज-काज चलाया जाता रहा है. भारत में हजारों वर्षों से आपसी बहस से
आम सहमति बनाकर लोकतंत्र चलाने की एक दीर्घ कालीन परम्परा रही है. वैदिक काल में ‘सभा’ और ‘समिति’ ऐसी ही लोकतांत्रिक राज्य संस्थाएं थीं जिनका निर्णय मानना राजा के लिए अनिवार्य होता था. इन संस्थाओं की इतनी शक्ति थी कि वे राजा को भी अपने सिंहासन से पदच्युत कर सकती थीं. उधर बौद्ध परम्परा तथा जैन परम्परा में भी गणतांत्रिक शासन प्रणाली का गौरव शाली इतिहास उपलब्ध होता है.विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसके पास गणतंत्र का एक स्वर्णिम इतिहास है. गांधी जी का मानना था कि अगर गांव नष्ट हो गए,तो हिन्दुस्तान की सभ्यता भी नष्ट हो जाएगी. गांवों के रचनात्मक विकास से ही भारत में वास्तविक स्वराज की स्थापना हो सकती है. गांधी जी के ग्रामस्वराज की सोच इसी ‘भारतराष्ट्र’ के चिंतन से उपजी सोच थी जो आज सपना बन कर रह गई है.स्वराज
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में
अलग-अलग विचारों के दल थे. महात्मा गांधी को उदार विचारों वाले दल का प्रतिनिधि माना जाता था तो वहीं नेताजी अपने जोशीले स्वभाव के कारण क्रांतिकारी विचारों वाले दल में थे. इस कारण से महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे. लेकिन सुभाष बोस यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गांधी और उनका मक़सद एक है और वह था देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करना. नेता जी यह भी जानते थे कि महात्मा गांधी ही देश के ‘राष्ट्रपिता’ कहलाने के सचमुच हक़दार हैं.सबसे पहले गांधी को राष्ट्रपिता कहने वाले नेताजी ही थे.स्वराज
हमारा संग्राम केवल ब्रिटिश
साम्राज्य के विरुद्ध नहीं है, यह तो विश्व के उन सभी समराज्यो के विरुद्ध है,जिनकी नींव ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर है. इसलिए हम भारत के स्वार्थ के लिए नहीं,बल्कि सारी मनुष्य जाति के स्वार्थ के लिए लड़ रहे हैं. स्वाधीन भारत का अर्थ ही है मनुष्यमात्र की मुक्ति.
स्वराज
अभी एक हफ्ते पहले 23 जनवरी को
क्रांतिकारी नेता सुभाषचन्द्र बोस की 125वीं जयंती पूरे देश में मनाई गई.नेता जी की गणतांत्रिक सोच बहुत महान् थी.वे गांधी जी से कुछ मामलों में वैचारिक मतभेद रखते हुए भी उनके मानव मात्र के लिए कल्याणकारी गणतांत्रिक मूल्यों का आदर करते थे. नेता जी ने गांधी जी को एक राजनैतिक नेता के रूप में कभी देखा ही नहीं ,बल्कि उन्हें एक मनुष्य जाति के मुक्तिदाता के रूप में देखा.सन् 1938 में नेताजी ने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में हरिपुरा (गुजरात) में अपना ऐतिहासिक भाषण देते हुए कहा-स्वराज
“सारे देश को एकता के सूत्र में बांधने के लिए हमें उनकी (गांधी जी की) परम आवश्यकता है. हमें उनकी इसलिए जरूरत है कि हमारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम कटुता और द्वेष से बचा रहे.
भारतीय स्वतंत्रता के लिए हमें उनकी अत्यंत आवश्यकता है.और इन सबसे बड़ी बात यह है कि मानव जाति के कल्याण के लिए हमें उनकी नितांत आवश्यकता है. हमारा संग्राम केवल ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध नहीं है, यह तो विश्व के उन सभी समराज्यो के विरुद्ध है,जिनकी नींव ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर है. इसलिए हम भारत के स्वार्थ के लिए नहीं,बल्कि सारी मनुष्य जाति के स्वार्थ के लिए लड़ रहे हैं. स्वाधीन भारत का अर्थ ही है मनुष्यमात्र की मुक्ति.”स्वराज
मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश
सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी. मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये. अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं.
स्वराज
6 जुलाई 1944 को भी सुभाष चन्द्र बोस ने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जो प्रसारण जारी किया था उसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिये गांधी जी से
उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएं मांगीं. उन्होंने कहा “मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी. मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये. अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं. मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है. विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है. भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है.आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं.हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं.”(मदनलाल वर्मा,’स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास’ भाग-2,पृ.512)स्वराज
आज हम अपने देश की वर्त्तमान
राजनैतिक परिस्थितियों का अवलोकन करें तो हम देखते हैं कि जब से हमें स्वतंत्रता मिली है तभी से देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के इन तीनों पक्षों का विकास दलगत राजनीति के कारण संतोषजनक नहीं रहा है.यह चिंता का विषय है कि भारत में दलगत भावना विभिन्न रूपों में,कभी जातिवाद के नाम पर तो कभी सम्प्रदायवाद को बढ़ावा दे कर, प्रजातांत्रिक परम्परा के विकास को अवरुद्ध करती आई है.स्वराज
गांधी जी’ के ग्राम स्वराज के अनुसार,जिसे वे रामराज्य भी कहते थे, उस गणतांत्रिक देश में एक तरफ अकूत सम्पत्ति नहीं होती और दूसरी तरफ अकिंचनता, भुखमरी और मजदूरों व किसानों की बदहाली का कारुणिक दृश्य नहीं दिखाई देता जैसा कि आज भारत में दिखाई दे रहा है. कोरोना के इस भीषण संकट काल में भी देश के
लगभग 80 करोड़ की आबादी को सरकारी खाद्यान्न की बदौलत अपना जीवन यापन करना पड़ रहा है. क्योंकि उनके पास रोजगार और आजीविका के साधन नहीं हैं.ताजे आंकड़ों के अनुसार भारत की कुल संपत्ति के 73 प्रतिशत हिस्से पर देश के 1 प्रतिशत अमीरों का कब्जा है. यह आंकड़ा दर्शाता है कि देश में आय के मामले में असमानता किस कदर बढ़ती जा रही है.अंतर्राष्ट्रीय राइट्स समूह ऑक्सफेम के एक ताजा सर्वे के अनुसार देश के मध्यम-निम्र वर्ग की 1 प्रतिशत तो अमीरों की 13 प्रतिशत की दर से दौलत बढ़ रही है.यानी अमीर और अमीर होते जा रहे हैं तथा गरीबों, मजदूरों और किसानों की दशा बदतर होती जा रही है.स्वराज
आज हमें कल्याणकारी गणतांत्रिक मूल्यों के आधार पर यदि देश का सर्वांगीण विकास करना है और आर्थिक समानता से वंचित दो तिहाई आबादी को भी राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना है तो
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के राम राज्य के अधूरे सपने पूरे करने होंगे और इस 125वीं जयंती के अवसर पर नेता जी के उन स्वाधीन भारत के सपनों को भी पूरा करना होगा जिसे उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के रूप में गांधी आंदोलन रूप में देखा था. इन्हीं गणतांत्रिक संवेदनाओं के साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी को आज उनकी पुण्यतिथि पर कोटि-कोटि नमन! और अभिवंदनस्वराज
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)