पृथ्वी पर अगर कहीं स्वर्ग है तो…

मेरी कश्मीर यात्रा, भाग—1

  • डॉ. हेम चन्द्र सकलानी

लगभग साढ़े तीन हजार किलोमीटर की यात्रा वह भी विश्व के सबसे सुन्दरतम स्थानों में से एक, जहां पृथ्वी की सुन्दरता के साथ प्रकृति ने अपना सम्पूर्ण सौंदर्य लुटाया हो, विश्व के प्रसिद्व हिमच्छादित दर्रों, ग्लेशियरों, सूर्य की रोशनी में दमकते हिम मण्डित शिखरों की, विश्व के सबसे अधिक ऊंचाई से गुजरने वाले मोटर मार्गों से गुजरना, बर्फ से जमी झीलों, नदियों को देखना, एक ऐसी झील को स्पर्श करना जिसका 90 किलोमीटर क्षेत्र चीन में और 45 किलोमीटर क्षेत्र भारत में हो, जो अपने तीन रंगों, पारदर्शी, हरे रंग,नीले रंग से सबको मोहित कर दे, एक ऐसा क्षेत्र जो मटमैले रंग के पहाड़ों से घिरा हो, जिसमें वनस्पति का हरापन कहीं भी न हो, बर्फिले रेगिस्तान जहां आक्सिजन की कमी, दिल का धड़कना बंद कर दे, ऐसी जगह की यात्रा करने का मन तो हमेशा करता रहा पर ऐसा स्वप्न में भी पूरा हो सकेगा मुझे कभी सम्भव नहीं लगा. पर किसी ने सही कहा है, विचार, सोच, सपने कभी मरते नहीं हैं, वो दब भले ही जाते हैं पर जब मन, इच्छा दृड़ और सक्रिय हों तो पूरे भी हो जाते हैं.

लाल चौक में भारतीय सैनिकों के साथ लेखक.

इतनी लम्बी यात्रा पर निकलने से पूर्व ही मन में कई आशंकाएं जन्म लेती रहीं. दो रात सो न सका, जाऊं न जाऊं मन डगमगाता रहा. पर मसूरी से भाई नवीन त्रिपाठी जी, दीदी चन्द्रलेखा त्रिपाठी तथा आदरणीय मनोरंजन त्रिपाठी डी.आई.जी. (बी.एस.एफ.) श्रीनगर के आग्रह पर मैं इतनी लम्बी यात्रा पर निकल ही पड़ा. स्वयं मेरा साथ निभाने वाले श्री राजेन्द्र प्रसाद उनियाल जी का मन भी कई बार डगमगाया था. जम्मू रेलवे स्टेशन पर जब उतरे तो काफी सैनिक हलचल दिखाई पड़ी थी.

प्रकृति प्रेमियों के लिए, शांति प्रिय लोगों के समय व्यतीत करने के लिए यह एक बेहद आदर्श हिल स्टेशन है. टॉप पर पहुंचकर छोटे से होटल में चाय लेते हैं और भरपूर नजर डालते हैं जम्मू घाटी पर. कुछ देर बाद शिखर से नीचे उतरने के बाद अब हम एक गगन चूमते शिखर की ओर बढ़ते हैं.

रेलवे स्टेशन पर से बी.एस.एफ. का जवान हमें पांच किलोमीटर दूर बेस कैम्प में ले जाता है जहां से बी.एस.एफ. की कम्यून के साथ हमें श्रीनगर के लिए चलना था. चार बसें, चार बख्तर बंद गाड़ियां जिनमें ए.के. 47 ताने जवान हर क्षण सतर्क निगाहों से चारों ओर देखता, कई ट्रक तथा जीप के साथ यह काफिला चला. झेलम नदी जो प्राचीन काल से वितिस्ता के नाम से प्रसिद्व है के किनारे किनारे हम आगे बढ़ते हैं. कुछ घण्टे बाद शिवालिक हिल रेंज को छोड़ पीर पजाल की पहाड़ियों पर बढ़ते हैं. चारों ओर हरी भरी पहाड़ियां हैं. 45 किलोमीटर चलकर जम्मू कश्मीर के बहुत खूबसूरत हिल स्टेशल ‘पल्नी टाप’ पर पहुंचते हैं. समुद्र तल से लगभग साढ़े पांच हजार फुट की ऊॅंचाई पर स्थित यह देवदार, चीड़ के वृक्ष, तथा फूलों के पौधों से आच्छादित हिल स्टेशन सबको मोह लेता है. खूबसूरत होटल, बंगलें, काटेज हैं यहां पर.

प्रकृति प्रेमियों के लिए, शांति प्रिय लोगों के समय व्यतीत करने के लिए यह एक बेहद आदर्श हिल स्टेशन है. टॉप पर पहुंचकर छोटे से होटल में चाय लेते हैं और भरपूर नजर डालते हैं जम्मू घाटी पर. कुछ देर बाद शिखर से नीचे उतरने के बाद अब हम एक गगन चूमते शिखर की ओर बढ़ते हैं. किसी समय का यह प्रसिद्व पहाड़ बनियहाल पास (दर्रे) के नाम से जाना जाता था. तब सर्दियों में इस हिमच्छादित दर्रें से गुजर कर कश्मीर घाटी में प्रवेश करना काफी कठिन कार्य था.

सम्पूर्ण कश्मीर राज्य तीन रीजन में विभक्त है. एक जम्मू रीजन, श्रीनगर (कश्मीर घाटी) तथा लद्दाख रीजन. पर कुछ वर्ष पूर्व बनिहाल दर्रें की पहाड़ी के ठीक मध्य से जवाहर टनल बन जाने से अब बनिहाल दर्रें के टाप तक नहीं जाना पड़ता और जवाहर टनल से ही कश्मीर घाटी में प्रवेश करते हैं. इस जवाहर टनल के बन जाने से समय की, तेल की तो बचत हुई ही है, पर अब यह मार्ग वर्ष भर खुला रहता है. पहले भयंकर बर्फवारी के कारण कई दिनों तक कश्मीर घाटी तथा जम्मू घाटी के बीच बनिहाल दर्रें से आवागमन बंद हो जाता था. जवाहर टनल की लम्बाई 2547 मीटर है. टनल के दोनों छोर पर हर क्षण सशस्त्र सेनाओं के जवान पहरा देते हैं. टनल से बाहर निकलते ही कश्मीर घाटी का रमणीय दृश्य नजर आने लगता है. फिर झेलम के किनारे किनारे हम अनन्तनाग पहुंचते हैं.

जम्मू से अनन्तनाग 249 किलोमीटर दूर है. अनन्तनाग कश्मीर घाटी का एक प्राचीन शहर है. यहां के प्रसिद्ध रघुनाथ मंदिर में एक हजार वर्ष पुरानी देवी देवताओं की प्रतिमाएं हैं. सम्पूर्ण कश्मीर किसी समय एक हिन्दू बाहुल्य राज्य था. सदैव से यहां हिन्दू राजाओं का अधिपत्य रहा था. लेकिन सन सैंतालिस में देश के स्वतंत्र होने तथा अंग्रेजों द्वारा रियासतों को स्वतंत्र रहने की अथवा भारत के साथ मिलने की इच्छा के साथ ही पाकिस्तानी कबाईलियों ने कश्मीर पर आक्रमण कर एक बड़े भू भाग पर कब्जा कर लिया था. महाराज हरी सिंह द्वारा भारत के साथ देरी से विलय प्रपत्र में हस्ताक्षर करने तथा नेहरू जी द्वारा युद्व विराम स्वीकार कर एल.ओ.सी. पर सहमति तथा यू.एन.ओ. पर्यवेक्षकों की नियुक्ती के साथ ही कश्मीर का एक बड़ा भाग अजाद कश्मीर के नाम से पाकिस्तान के साथ जा मिला. तब से लेकर आज तक कश्मीर घाटी में अशांति की स्थिति बनी हुई है. जिस समय अनन्तनाग में हमने प्रवेश किया वहां सोपियां मे हुए काण्ड की वजह से चारों ओर कर्फयू जैसा महौल नजर आया. खेतों, में, बंद बाजार, सड़कों गलियों में जगह-जगह सशस्त्र फौजी पहरा देते दिखायी पडे.

लगभग एक घण्टे बाद हम कश्मीर के ऐतिहासिक एवं एक अन्य प्राचीन नगर अवन्तिपुरा में प्रवेश करते हैं. यहां वैसे ही दहशत भरा वातावरण नजर आया, थोड़ी देर इस प्राचीन शहर के भग्वानवशेषों, मन्दिरों के अवशेषों के आसपास घूमते हैं. विशाल प्रवेश द्वार जगह-जगह रखे अवशेष इस राज्य की तत्कालीन भव्यता, वैभवता, सभ्यता, संस्कृति, धार्मिकता, स्थापत्य कला, शिल्पकला के स्वर्णयुग की गाथा कहते नजर आते हैं. अवन्तिपुर शहर खूबसूरत वितिस्ता (झेलम) नदी के किनारे हरी-भरी घाटी में बसा हुआ है. अवन्तिपुर मे प्राचीन काल मे राजा अवन्तिवर्मन का राज था. उस काल के अवन्तेश स्वामी तथा अवन्तिश्वर मन्दिरों के बेहद खूबसूरत अवशेष यहां दिखाई पड़ते हैं. नवीं शताब्दी के ये मन्दिर शिव तथा विष्णु को समर्पित हैं.

कश्मीर के सम्पूर्ण इतिहास पर जब दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि वह आदिकाल से भारतीय उप महादीप  का अंग रहा. यहां की संस्कृति कहीं भी भारतीय संस्कृति से अलग नहीं रही. बाद के वर्षों में बाहरी आक्रमणों से तथा राजनीति के सत्ता के लोलुपुकरण के आघात से वह प्रभावित जरूर हुई है. यहां के सारे राजा और अधिकांश प्रजा हिन्दू मूल की ही रही. वहां के राजाओं पर दृष्टिपात करने से यह सत्य उजागर हो जाता है. पाकिस्तान नाम की कोई चीज 1947 से पहले नहीं थी, उसका तो स्वयं निर्माण भारत से हुआ था.

कश्मीर पर सन 850-920 तक राय सूरज देव ने, सन 920-987 तक राय भोज देव ने, सन 987-1030 तक राय अवतार देव ने, सन 1030-1061 तक राय जसदेव, सन 1061-1097 तक राय संग्राम देव, सन 1095-1165 तक राय जस्कार देव, सन 1165-1216 तक राय ब्रजदेव, सन 1216-1258 तक राय नरदेव सिंह, सन 1258-1313 तक राय अर्जुन देव, सन 1313-1361 तक राय जोध देव, सन 1361-1400 तक राय मलदेव, सन 1400-1423 तक राय हमीर देव, सन 1423-1528 तक अजायब देव, सन 1530-1570 तक राय कपूर देव, सन 1570- 1594 तक राय समील देव, सन 1594-1624 तक राय संग्राम देव, सन 1624-1650 तक राजा भूव देव, सन 1650-1686 तक राजा हरिदेव, सन 1686-1703 तक राजा गुजैदेव, सन 1703-1725 तक राजा धुव्रदेव, सन 1725-1782 तक राजा रंजीत देव, सन 1782-1787 तक राजा ब्रजराज देव, सन 1787-1797 तक राजा सम्पूर्ण सिंह, सन 1797-1816 तक राजा जीत सिंह, सन 1820-1822 तक राजा किशोर सिंह, सन 1822-1856 तक महाराजा गुलाब सिंह, सन 1856-1885 तक महाराजा रणवीर सिंह, सन 1885-1925 तक महाराजा प्रताप सिंह, तथा सन 1925-1948 भारत में विलय तक महाराजा हरि सिंह ने राज किया. इस तरह प्राचीन काल से ही यह एक हिन्दु राज्य रहा.

श्रीनगर में हमने सात बजे के लगभग प्रवेश किया. सड़कों पर सन्नाटा और दहशत भरा माहौल था. हर गलियों के सामने बुजुर्ग, आदमी-महिलाएं, लड़के खड़े थे. लड़कों के झुण्ड कुछ न कुछ करने के मूड में थे. अनन्तनाग से अधिक दहशत भरा वातावरण हमे यहां नजर आया. पूरा श्रीनगर पुलिस, सी.आर.पी.एफ, बी.एस.एफ. की छावनी सा नजर आ रहा था. आर्मी के बख्तरबंद काफिले पर अक्सर भीड़ आकर पत्थर बाजी कर गलियों में भाग जाती थी. आर्मी की कम्यून के आगे पुलिस फोर्स दौड़ती हुई उपद्रवियों को खदेड़ देती है. क्योंकि अक्सर उनकी पत्थरों की बौछार से गाड़ी के विन्ड स्क्रीन टूट जाते थे.

श्रीनगर के मध्य आर्मी बेस कैम्प में हम जीप द्वारा पहुंचते हैं. जगह-जगह गाड़ियों को रोका जाता है. जांच की जाती है, तब जाकर हम विश्राम ग्रह में प्रवेश कर पाये थे. सोपियां में दो महिलाओं की रेप के बाद हत्या से कश्मीर घाटी का माहौल काफी तनावपूर्ण था. लोग इन रेप और हत्या का आरोप सुरक्षा बलों पर मड़ रहे थे. यासीन मलिक और जिलानी के वक्तव्य आंदोलन में घी का काम कर रहे थे. श्रीनगर के पास से दूग्ध गंगा, सोस्वांग नदी तथा झेलम नदियां बहती हैं. पूरा श्रीनगर पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण तक डल झील के आसपास, झील के मध्य तथा विशाल डल झील के किनारे किनारे फैला हुआ है.

श्रीनगर का प्रचीन नाम प्रवरपुर था. यह कश्मीर घाटी का क्षेत्र कभी सती सरोवर के नाम से जाना जाता था. मान्यता है पार्वती जी यहां आती थीं. श्रीनगर को लक्ष्मी नगर अर्थात श्री़नगर भी कहा जाता था. बहुत विशाल क्षेत्र में फैले इस श्रीनगर का विकास वितिस्ता नदी जो झेलम कहलाती है के किनारे धीरे-धीरे हुआ. आज यह शहर वितिस्ता के दोनों किनारों तक मीलों दूर तक फैला नजर आता है. अनेक नगर, गांव, कस्बों ने इसके तट पर जन्म लिया. इस नदी को स्थानीय लोगों ने आवागम का साधन बनाया. अब इसमें हाउस बोट तैरते नजर आते हैं. आज यह बहुत प्रदूषित हो गयी है. आज पुराना श्रीनगर, आगरा, कानपुर, अलीगढ जैसी तंग गलियों का नगर बन गया है.

नया श्रीनगर जहां-जहां बसा है वह किसी आधुनिक शहर की तरह सुन्दर लगता है. हर शहर का क्षेत्र का राज्य का देश का अपना एक प्राचीन इतिहास होता है. श्रीनगर के प्रताप संग्रहालय में श्रीनगर कश्मीर घाटी के पुरावशेषों को देखा जा सकता है. पास में ही कुछ किलोमीटर दूर गुलमर्ग में सर्दियों में जब हिमपात होता है तो स्कींग प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं. जिसमें देश विदेश के सैकड़ों खिलाड़ी भाग लेते है. वितिस्ता को कश्मीर घाटी की जीवन रेखा कह सकते हैं. जिसके तट पर कश्मीर की संस्कृति फली फूली विकसित हुयी है. प्राचीन कथाओं के अनुसार यह कश्मीर घाटी कभी विशाल सरोवर थी, और कश्यप ऋषि ने इस सरोवर से घाटी को बाहर निकाला, तब कश्यप के नाम पर यह क्षेत्र कश्मीर कहलाया अथवा कश्यप घर कहलायी.

राजतंरगनि के अनुसार अशोक ने यहां एक स्तूप खड़ा किया था. कनिष्क ने यहां अपने काल में अनेक बौद्व सम्मेलन आयोजित कराये थे. जिस कारण इसका नाम कनिष्कपुर भी पड़ा. जिन-जिन स्थलों से वितिस्ता गुजरती है वे तीर्थ बनते गए. फिर यह प्राचीन स्थल अवन्तिपुर को स्पर्श करती है. वितिस्ता सोपोर, पापोर, होकर श्रीनगर पहुंचती है.

प्राचीन ग्रंथों के एक सूत्र के अनुसार इसे कशेमूर भी लिखा गया. अपने समय के चीनी यात्री हवेंगसांन ने यहां की यात्रा की तथा अपने संस्मरण में इसे का.शी.मी.लो. नाम से अंकित किया. बनिहाल दर्रे में पीर पंचाल के वेरीनाग से वितिस्ता का जन्म हुआ. कश्मीर मे इसे व्यथ के नाम से भी जाना जाता है. श्रद्वालुओं ने पार्वती के नाम से इसकी पूजा अर्चना की.

राजतंरगनि के अनुसार अशोक ने यहां एक स्तूप खड़ा किया था. कनिष्क ने यहां अपने काल में अनेक बौद्व सम्मेलन आयोजित कराये थे. जिस कारण इसका नाम कनिष्कपुर भी पड़ा. जिन-जिन स्थलों से वितिस्ता गुजरती है वे तीर्थ बनते गए. फिर यह प्राचीन स्थल अवन्तिपुर को स्पर्श करती है. वितिस्ता सोपोर, पापोर, होकर श्रीनगर पहुंचती है. फिर बुल्लर झील जिसका राजतरंगनि मे प्राचीन नाम उल्लोलसर था और इसे महापदमसर नाम से भी पुकारा गया, मनसबल बुल्ल झील से मिलकर यह पाकिस्तान में प्रवेश करती है.

अगले दिन प्रातः हम उस खूबसूरत गैस्ट हाउस से बाहर आते हैं. आसमान में धुन्ध छायी हुई है. डी.आई.जी. श्री मनोरंजन त्रिपाठी हमारे साथ घूमने निकलते हैं. सर के ऊपर सांय-सांय करते वायुसेना के फाइटर्स विमान दूर पाकिस्तानी सीमा के पास तक जाते हैं तथा भारतीय भू भाग में, लक्ष्य पर निशाना साधने का अभ्यास करते हैं. आर्मी का यह बेस कैम्प 350 एकड़ क्षेत्र में फैला है. यहां पर बच्चों के लिए स्कूल हैं, कैन्टीन हैं, जहां सारा सामान उपलब्ध रहता हैं, मंदिर है, क्लब है, हैल्थ क्लब हैं. यहां जवानों ने ग्यारह हजार बादाम के वृक्ष लगाये हैं. चार किलोमीटर की परिक्रमा कर हम लौटते है शहीद स्मारक स्तम्भ के पास, जो आंखों को स्वतः ही नम कर जाता है. यह काले ग्रेनाइट के चमचमाते पत्थरों का एक बेहद खूबसूरत स्मृति स्तम्भ है जो उपद्रवियों, अलगाववादियों से कश्मीर घाटी में संघर्ष करते हुए शहीद सैनिकों के सम्मान में उनकी स्मृति में बनाया गया. हाथ जोड़ प्रणाम करते इस स्मृति स्तम्भ पर हम अपने श्रद्वा सुमन के रूप में पुष्प अर्पित करते हुए दो मिनट का मौन रखते हैं. और मन ही मन प्रणाम करते हैं उन माता-पिताओं को जिन्होंने अपने लाडलों को देश पर न्यौछावर कर दिया. स्मृति स्तम्भ आकृति की दृष्टि से शिल्प कला की दृष्टि से बेहद सुंदर है. लौटकर हम आठ किलोमीटर दूर डल झील के सामने पहाड़ी की ओर चलते हैं. यहां पर निर्मित है खूबसूरत कटे पत्थरों से निर्मित परीमहल किसी समय यह पीर महल के नाम से जाना जाता था.

मान्यता है कि यहां पर पाण्डवों द्वारा निर्मित प्राचीन मंदिर था और बाद मे अशोक के पुत्र जलूक ने 200 ई0 पूर्व इसकी आधारशिला रखी थी. 820 ई0 में चैथे शंकराचार्य ने इस पर्वत पर तपस्या की थी. कालान्तर में महाराजा गोपदित्य ने पांचवी शताब्दी में इस मंदिर का पुर्न निर्माण कराया और इसे शिव को समर्पित किया. इस मंदिर में स्थापित विशाल काले पत्थर का चार फुट ऊॅंचा शिवलिंग, महाराज प्रताप सिंह द्वारा मंदिर को प्रदान किया गया था.

17वीं शताब्दी में इसका निर्माण मुगल शासक दारा शिकोह ने कराया था. इसके सामने एक बेहद खूबसूरत बगीचा है. जहां मखमली घास और रंग बिरंगे पुष्प हैं. तथा भवन में एक छोर से दूसरे छोर तक अनेक मेहराबदार कमरे से बने हैं. इस महल के नीचे कई गुप्त रास्तों वाली सुरंगे हैं. दारा शिकोह ने इसे अपने परिवार की महिलाओं के लिए बनवाया था. यहां से कश्मीर घाटी, विशेष कर डल झील, सन्तूर होटल, राजभवन तथा श्रीनगर का दूर-दूर तक फैला खूबसूरत दृश्य दिखाई पड़ता है. दूर सुदूर सामने हरी पर्वत पहाड़ी पर महाराजा हरि सिंह का महल दिखाई पड़ता है. परी महल के दायीं ओर खड़ी हैं गोमाद्री तथा जेबरन हिल पर्वत श्रृंखलाएं. सुरक्षा की दृष्टि से पहाड़ियों के शिखरों पर चैबीसों घण्टे सीमा सुरक्षा बल की कई टुकड़ियां मौजूद रहती हैं.

शाम होने से पहले हम पास में ही स्थित चश्मे शाही को देखने चलते हैं. इस पानी के स्रोत को शाहजहां ने 1632 ए.डी. में बेहद खूबसूरत रूप देकर बनवाया तथा इसे चश्मेशाही नाम दिया था. उद्यान में प्रदेश करने के लिए दो खूबसूरत प्रवेश द्वार बनाये गये हैं. बीच में जल के फव्वारे तथा उनके दोनों ओर फुटपाथ, फुटपाथ के दोनों ओर खूबसूरत हरी भरी घास, तथा फूलों से युक्त लान हैं. फिर कुछ सीढ़ियां ऊपर चढ़कर ऐसा ही रंग बिरंगा उद्यान है. मुगलकालीन धातू के फव्वारे आज भी उस काल की याद दिलाते हैं. सामने मेहराबदार भवन है जिसके नीचे से मीठे जल का स्रोत निकलता था. दारा शिकोह ने इस स्रोत को पक्का करवाया और इसके ऊपर चार छोटी मीनारों के मध्य गोल गुम्बद पत्थरों का निर्मित करवाकर इसे बेहद खूबसूरत रूप प्रदान किया. इस जल को पीने के बाद ही इसकी सुन्दरता, स्वाद, शुद्वता का पता चलता है. इस स्रोत के जल पर मुग्ध हुए थे पंडित जवाहर लाल नेहरू. तब से जब तक नेहरू जी जीवित रहे इस चश्मेशाही का पानी प्रतिदिन श्रीनगर से दिल्ली, हवाई जहाज के साथ नेहरू जी के लिए पहुंचाया जाता था.

आज जो कुछ सशस्त्र सेनाओं को वहां झेलना पड़ रहा है वह एक भयावह प्रश्न से कम नहीं. श्रीनगर में ठहरना अब उचित नहीं समझ रहे थे क्योंकि वहां की स्थिति देख हम बहुत व्यथित हो उठे थे. श्रीनगर बस स्टैण्ड ठीक शंकराचार्य पहाड़ी के नीचे है वहां से हम द्रास, कारगिल, लेह, लददाख के लिए बस पकड़ते है जो सुबह सात बजे चलती है. शहर के बीच में से जीप का गुजरना हमें दहशत में भर रहा था. लेकिन इस यात्रा का सुख अनुभव बहुत ही रोमांचक था.

अगले दिन प्रातः हम प्रसिद्व नेहरू बौटोनिकल गार्डन देखने चल देते हैं. यह बौटोनिकल गार्डन विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है, पर आश्चर्य हुआ यह देखकर नाम तो इसका बौटोनिकल गार्डन है, यहां पर विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे होने चाहिये थे, पर नहीं थे. मगर खूबसूरत फूल, हरी भरी घास, वृक्ष इसकी सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे. एक खूबसूरत देवदार का वृक्ष मनमोह लेता है. सत्य तो यह है इसका नाम बौटोनिकल गार्डन के बजाय फ्लावर्स गार्डन होना चाहिए था.

दोपहर होने को है अब हम प्रसिद्व शंकराचार्य मंदिर की ओर चले देते हैं शायद यह श्रीनगर में अब अकेला मंदिर शेष है. क्योंकि यह मंदिर एक ऊॅंची पहाड़ी पर समुद्र तल से 6240 फुट की ऊॅंचाई पर स्थित है जहां पहुंचने के लिए ढाई सौ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं. शायद दुर्गम चढ़ाई होने के कारण उपद्रवी इस प्राचीन मंदिर तथा पहुंचते उससे पहले सेना ने इसे अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था अब यहां चैबीसों घण्टे सेना का पहरा पूरी पहाड़ी पर रहता है. मान्यता है कि यहां पर पाण्डवों द्वारा निर्मित प्राचीन मंदिर था और बाद मे अशोक के पुत्र जलूक ने 200 ई0 पूर्व इसकी आधारशिला रखी थी. 820 ई0 में चैथे शंकराचार्य ने इस पर्वत पर तपस्या की थी. कालान्तर में महाराजा गोपदित्य ने पांचवी शताब्दी में इस मंदिर का पुर्न निर्माण कराया और इसे शिव को समर्पित किया. इस मंदिर में स्थापित विशाल काले पत्थर का चार फुट ऊॅंचा शिवलिंग, महाराज प्रताप सिंह द्वारा मंदिर को प्रदान किया गया था. यह मंदिर गोमाद्री तथा जबरन हिल के ठीक सामने ऊॅंची पहाड़ी पर स्थित है. विशाल कटे, तराशे गये बड़े पत्थरों से निर्मित इस मंदिर का शिखर, शिखर शैली का न होकर गुम्बदीय शैली का दिखाई पड़ता है. मंदिर से श्रीनगर घाटी का, डल झील का खूबसूरत दृश्य मन को मोह लेता है और किसी के कहे शब्द बरबस याद आ जाते हैं. ‘‘अगर फिर दौस वर-रूए जमीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो हमीं अस्त..’’ पृथ्वी पर यदि कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है यहीं है और कहीं नहीं.

कुछ देर मंदिर परिसर में विचरण करने के बाद हम डल झील के पास उतर आते हैं. कहते हैं बिना डल झील के कश्मीर घाटी और श्रीनगर ऐसे हैं जैसे बिना रंग और खुशबू के कोई फूल हो. डल झील बिल्कुल शांत है चारों ओर सन्नाटा पसरा है. सारी रंग बिरंगी खूबसूरत नावें, शिकारे झील के किनारे खड़े हैं. यदि कश्मीर में सब कुछ शाॅंत होता तो शायद नाव या शिकारे आसानी से नहीं मिल पाते. रंग बिरंगी नावें, शिकारे, बोट झील में सैकड़ों की तादाद में तैरते नजर आते हैं. एक शिकारे वाले को बुलाते हैं वह हमें डल झील की सैर कराता है. वह बेहद उदास लगता है. पूछने पर बताता है कश्मीर के हालात काफी खराब हैं आज कई दिनों बाद कोई पर्यटक शिकारे में बैठने आया है. कहता है बड़े लोगों के पास तो रूपयों पैसों की कमी नहीं है पर हमें तो रोज कमाना पड़ता है, वह चाहता है कश्मीर में जल्दी शांति स्थापित हो जाये. हम तो दो दिन में परेशान हो गये पर कश्मीर की गरीब, प्रतिदिन कमाने वाली जनता कैसे इतने वर्षों से यह सब झेल रही है यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा था. कश्मीर के इतिहास मे कहते हैं यह झील तीन बार पूरी तरह बर्फ से जम गई थी. स्थानीय निवासी बताते हैं कि आज भी जब जमती है तब इस झील के उपर अनेक ग्रुप क्रिकेट खेलते या घूमते फिरते नजर आते हैं.

सुबह उठते ही हम हरी पर्वत पर महाराजा हरी सिंह पैलेस की पहाड़ी की ओर चल देते हैं. जो हरि पर्वत के नाम से विख्यात है. इसे प्रदुम्नगिरी, प्रद्युन शिखर, प्रद्युम्न पीठ के नाम से भी पुकारा जाता है. सड़कों पर अभी भी सन्नाटा पसरा है एक दो वाहन कभी-कभी हार्न देते हुए गुजरते हैं. सशस्त्र सेनाओं को कश्मीर में आज जो दिन देखने पड़ रहे है इसके लिए निःसंदेह यह देश, इस देश की जनता कभी देश के नेताओं को छमा नहीं करेगी, न ही कश्मीर की धरती, न वहां के लोग. जितना ध्यान नेताओं ने गत सत्तर वर्षों में सत्ता प्राप्ति के संघर्ष में लगाया यदि उसका थोड़ा सा भी ध्यान कश्मीर की ओर दिया होता, तुष्टिकरण की नीति को न अपनाया होता, कश्मीर छोड़ते लाखों हिन्दुओं की त्रासदी और भावना को समझा होता, कदम उठाये होते, तो यह विश्व का सबसे सुंदर शांत क्षेत्र आज आतंकवाद से न जूझ रहा होता, न नासूर जैसी समस्या बनता. आज जो कुछ सशस्त्र सेनाओं को वहां झेलना पड़ रहा है वह एक भयावह प्रश्न से कम नहीं. श्रीनगर में ठहरना अब उचित नहीं समझ रहे थे क्योंकि वहां की स्थिति देख हम बहुत व्यथित हो उठे थे. श्रीनगर बस स्टैण्ड ठीक शंकराचार्य पहाड़ी के नीचे है वहां से हम द्रास, कारगिल, लेह, लददाख के लिए बस पकड़ते है जो सुबह सात बजे चलती है. शहर के बीच में से जीप का गुजरना हमें दहशत में भर रहा था. लेकिन इस यात्रा का सुख अनुभव बहुत ही रोमांचक था.

(लेखक वरिष्‍ठ साहित्‍यकार हैं)

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