- ललित फुलारा
मैं कुंवर चंद जी के साथ रात के
तीसरे पहर में सुनसान घाटी से आ रहा था. यह पहर पूरी तरह से तामसिक होता है. कभी भूत लगा हो, तो याद कर लें रात्रि 12 से 3 बजे का वक्त तो नहीं! अचानक कुंवर चंद जी मुझसे बोले ‘अगर ऐसा लगे कि पीछे से को¬ई आवाज दे रहा है, तो मुड़ना नहीं. रोए, तो देखना नहीं. छल पर भरोसा मत करना, सीधे बढ़ना.. मन डरे, कुछ अहसास हो, तो हनुमान चालिसा स्मरण करो. मैं साथ हूं.कुंवर
अचानक बच्चा रोया
और छण-छण शुरू हो गई. मैंने पीछे देखना चाहा, तो उन्होंने गर्दन आगे करते हुए ‘बस आगे देखो. चलते रहो. छल रहा है. भ्रमित मत होना. कुछ भी दिखे यकीन मत करना. जो दिख रहा है, वो है नहीं और जो है, वह अपनी माया रच रहा है.’
भ्रमित
आसपास बस घाटियां थीं. झाड़ झंखाड़.
गधेरे. ऊपर जंगल और नीचे नदी जिसकी आवाज भी थम चुकी थी. अंधेरा घना. मैं आगे था और कुंवर चंद जी मेरे पीछे हाथ में मसाल लिए चल रहे थे. अचानक बच्चा रोया और छण-छण शुरू हो गई. मैंने पीछे देखना चाहा, तो उन्होंने गर्दन आगे करते हुए ‘बस आगे देखो. चलते रहो. छल रहा है. भ्रमित मत होना. कुछ भी दिखे यकीन मत करना. जो दिख रहा है, वो है नहीं और जो है, वह अपनी माया रच रहा है.’ बोला ही था कि नीचे खेतों की तरफ ऐसा लगा दो भैंस निकली हैं. रोने की आवाज और तेज हो गई.भ्रमित
पीछे मुड़कर मैं कुंवर चंद जी
को फिर बताना चाह रहा था कि क्या हो रहा है. उन्होंने मेरी गर्दन आगे करते हुए जोर से कहा ‘भ्रमित नहीं होना है. अपना जोर दिखा रहा है. बस यकीन नहीं करना है. ये गधेरा पार हो जाए, तो इसकी सीमा खत्म हो जाएगी. वहां से आगे नहीं बढ़ पाएगा. गधेरा अभी दूर था. पल्ली धार तक. मैं भीतर से इतना डरा था कि हर वक्त लग रहा था ऊपर-नीचे से कोई झपट न जाए. अब तक मैंने जितनी भी भूतिया फिल्में देखी थी; सबके दृष्य उस वक्त मेरे मन में कौंध रहे थे और मैं उनको मिटा रहा था. लेकिन वो चलचित्र इतने प्रबल थे कि बचपन से लेकर अब तक के सारे भूत के किस्से और बातें मेरी आंखों के सामने दृश्य बनकर घूमने लगे.भ्रमित
कुंवर चंद कहां
चले गए? पीछे मुड़ने में डर लग रहा था इसिलिए मैंने सांस रोकते हुए अपने बाएं हाथ को पीछे करके उनको छू लेना चाहा. उन्होंने जैसे ही मेरा हाथ पकड़कर आगे किया.. मैं जोर से चीख उठा. उनके हाथ का स्पर्श होते ही भीतर ऐसा दृश्य बना जैसे कोई पीछे की तरफ खींचकर नीचे गधेरे में फेंक दें.
भ्रमित
इन सबसे मन हटाने के
लिए मैंने जोर-जोर से हनुमान चालिसा का पाठ शुरू कर दिया, तभी मेरा ध्यान ज़रा-सा भटका ही था कि अचानक मुझे लगा मेरे पीछे से सिर्फ मसाल की रोशनी आ रही है, कुंवर चंद कहां चले गए? पीछे मुड़ने में डर लग रहा था इसिलिए मैंने सांस रोकते हुए अपने बाएं हाथ को पीछे करके उनको छू लेना चाहा. उन्होंने जैसे ही मेरा हाथ पकड़कर आगे किया.. मैं जोर से चीख उठा. उनके हाथ का स्पर्श होते ही भीतर ऐसा दृश्य बना जैसे कोई पीछे की तरफ खींचकर नीचे गधेरे में फेंक दें. मैंने उनकी कमीज पकड़ ली और उनसे सट गया.भ्रमित
‘अरे बेटा. डर मत.
बस चल आगे को. उल्टा-सीधा कुछ भी मत सोच. जो सोचेगा अंधेरे में वो ही सब नजर आएगा. बस पहुंचने वाले हैं.’ उनके यह कहते ही ऐसा लगा जैसे पीछे से कुछ और लोग बातचीत करते हुए आ रहे हों. हंस रहे हों. रोने की आवाजें अब गायब हो गईं थी. पीछे से आती हुई पदचाप की आवाजों ने मुझे तसल्ली दी और मेरा डर कम हुआ. अब मैं पीछे मुड़कर देख ही लेना चाह रहा था. जैसे ही मुड़ा ‘आगे को चल. पीछे कुछ नहीं है. बस पहुंचने ही वाले हैं.’ कहते हुए कुंवर चंद ने मुझे आगे की तरफ ठेला.भ्रमित
मैं कुछ कहता
इससे पहले ही ‘सब माया है. छलने की कोशिश कर रहा है. बस नीचे उतरकर गधेरा पार करना है. आ ही गई अपने गांव की सीमा.’ कुवंर चंद ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा और मैं आगे बढ़ता रहा. कुछ ही देर बाद हम नीचे उतरे गधेरा पार किया और ऊपर दूसरी तरफ धार पर आ गए.
भ्रमित
मुझे बड़ा गुस्सा आया
और मैं सोचने लगा ‘क्या पता आसपास का कोई गांव वाला बच्चे के साथ आ रहा हो. देख लेते हैं. चार-पांच लोग हो जाएंगे, तो बातचीत करते हुए डर खत्म हो जाएगा. थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि रोने, हंसने और पदचाप की आवाजें सब गायब हो गईं और अचानक से ऐसी जोर-जोर की ‘धम-धम’ जैसे कोई ज़मीन पीट रहा हो. मैं कुछ कहता इससे पहले ही ‘सब माया है. छलने की कोशिश कर रहा है. बस नीचे उतरकर गधेरा पार करना है. आ ही गई अपने गांव की सीमा.’ कुवंर चंद ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा और मैं आगे बढ़ता रहा. कुछ ही देर बाद हम नीचे उतरे गधेरा पार किया और ऊपर दूसरी तरफ धार पर आ गए.भ्रमित
यहां से दूर कुंवर चंद जी का गांव
चमक रहा था. उन्होंने अपने हाथ के छिलुक को नीचे जमीन पर रखा और एक पत्थर पर बैठ गए. मसाल मेरे हाथ में थमा दी. जेब से बीड़ी निकाली और पल्ले तरफ के गधेरे की तरफ हाथ जोड़ बोले. ‘अब कोई डर नहीं है. वो छल की माया थी. मैं साथ था इसलिए वो अपना जोर नहीं दिखा पाया. नहीं तो जितना डरते उतनी ही तेज आवाजें होती जाती और रास्ता पार करना मुश्किल हो जाता है. ये ऐसा भिषौण है, जो लग गया तो लेकर ही जाता है. देव डांगर साथ था, इसलिए छल नहीं पा रहा था. अब मैं भी निडर हो चुका था.घड़ी में एक बज रहा था.
‘थोड़ा कसरत कर लूं. डर के मारे सारी मांसपेशियां जाम हो गई है.’ कहते हुए मैं खड़ा हुआ और उनके हाथ में मसाल थमाते हुए दाए-बाएं हुआ और जोर से ऊपर को हाथ फैलाए और पूरे साहस से सामने गधेरे वाली पहाड़ी पर नजर डाली जहां सारे चीड़ के पेड़ और झाड़ियां भूत-सी ही लग रही थी; और मैं सामने के गधेरे के ऊपर बैठकर अब भूत को चुनौती दे रहा था!भ्रमित
अंधेरा इतना घना है
कि छोटा-सा पत्थर भी मसाण ही दिख रहा है. पत्थरों व पेड़ों की अजीब-अजीब आकृतियां अजीब भूतों सी दिख रही हैं. कुंवर चंद एक वीर यौद्धा की तरह पत्थर पर बैठकर बीड़ी फूंकते रहे. उनको देखकर मुझे लगा असली मसाण ये ही हैं. कैसे निर्द्वन्द व निडर होकर उकड़ू बैठे हैं.
भ्रमित
नीचे गधेरे से पानी की सरसराहट
आ रही थी. मसाल की रोशनी में मैं कुंवर चंद को और वो मुझे देख पा रहे थे. उन्होंने बीड़ी फूंकते हुए कहा वो पल्ली धार की तरफ तिथाड़ है. यहीं मुर्दों को फूंका जाता है. दो गांवों के लोगों को साझा तिथाड़ है यह. मैंने उधर की तरफ ऐसे घूरा जैसे चुनौती दे रहा हूं- अगर कोई भूत-वूत है, तो सामने आ. शक्ल तो दिखा देख लेंगे अब. बातचीत कर लेंगे. अंधेरा इतना घना है कि छोटा-सा पत्थर भी मसाण ही दिख रहा है. पत्थरों व पेड़ों की अजीब-अजीब आकृतियां अजीब भूतों सी दिख रही हैं. कुंवर चंद एक वीर यौद्धा की तरह पत्थर पर बैठकर बीड़ी फूंकते रहे. उनको देखकर मुझे लगा असली मसाण ये ही हैं. कैसे निर्द्वन्द व निडर होकर उकड़ू बैठे हैं.पढ़ें— काकड़ीघाट: स्वामी विवेकानंद, ग्वेल ज्यू और चंदन सिंह जंतवाल
भ्रमित
‘कुंवर चंद जी.. एक बात कहूं.’
भ्रमित
‘मुझे लग रहा है कि पल्ले गधेरे
वाला भूत-वूत कुछ नहीं था. ये सारा हमारा भ्रम था. मनोविज्ञान. आपने मुझे पहले ही बता दिया कि हरी बगड़ वाले गधेरे में बच्चों के रोने की आवाज; छण-छण, धम्म-धम्म और हंसने व बोलने की आवाजें आएंगी, तो डरना नहीं. जैसे ही हम उस सीमा में पहुंचे आपने कहा ‘ ध्यान मत भटकाना सीधे चलना. ये सीमा थोड़ी खतरनाक है. भिषौण इधर ज्यादा छलता है. आपके इतना कहते ही मुझे आपकी पुरानी बातें याद आ गई और कुछ देर आगे बढ़ते ही बच्चे सा रोना-धोना, धम्म-धम्म सब शुरू हो गई. पीछे आपने एक बार भी मुड़कर देखने नहीं दिया. सब वहम करवा दिया आपने. अब जिंदगी भर ये सारी चीजें मेरे दिमाग में जम जाएंगी.भ्रमित
कुंवर चंद जी ने मुझे आगे
करते हुए कहा ‘सब भगवान हुए. उनकी माया ठहरी. तेज-तेज चल… अब न ही बच्चा रोएगा और न ही कोई धम-धम होगी. जो बला थी उसकी सीमा वहीं तक थी. अगली पहाड़ पर भूमि देव का मंदिर है और उसके ऊपर गांव. डंगरी के बिना वहां जागरी भी रुकी होगी.
भ्रमित
कुंवर चंद जी ने मुझे आगे करते हुए कहा
‘सब भगवान हुए. उनकी माया ठहरी. तेज-तेज चल… अब न ही बच्चा रोएगा और न ही कोई धम-धम होगी. जो बला थी उसकी सीमा वहीं तक थी. अगली पहाड़ पर भूमि देव का मंदिर है और उसके ऊपर गांव. डंगरी के बिना वहां जागरी भी रुकी होगी.(पत्रकारिता में स्नातकोत्तर ललित फुलारा ‘अमर उजाला’ में चीफ सब एडिटर हैं. दैनिक भास्कर, ज़ी न्यूज, राजस्थान पत्रिका और न्यूज़ 18 समेत कई संस्थानों में काम कर चुके हैं. व्यंग्य के जरिए अपनी बात कहने में माहिर हैं.)