भारत की जल संस्कृति-29
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
भारत में जलसंचयन और प्रबन्धन का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है. विभिन्न प्रांतों और प्रदेशों में परम्परागत जलसंचयन या ‘वाटर हारवेस्टिंग’ के नाम और तरीके अलग अलग रहे हैं किन्तु इन सबका उद्देश्य एक ही है वर्षाजल का संरक्षण और भूमिगत जल का संचयन और संवर्धन. उत्तराखंड में नौले, खाल,चाल,
राजस्थान में खड़ीन,कुंड और नाडी, महाराष्ट्र में बन्धारा और ताल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बन्धी, बिहार में आहर और पयेन, हिमाचल में कुहल, तमिलनाडु में एरी, केरल में सुरंगम, जम्मू क्षेत्र के कांडी इलाके के पोखर, कर्नाटक में कट्टा पानी को सहेजने और एक से दूसरी जगह प्रवाहित करने के कुछ अति प्राचीन साधन थे, जो आज भी प्रचलन में हैं. इसी सम्बन्ध में प्रस्तुत है भारत के विभिन्न क्षेत्रों की परंपरागत जल प्रबंधन और जल संचयन से सम्बंधित प्रमुख जल प्रणालियों की संक्षिप्त जानकारी.उत्तराखण्ड के नौले, पोखर, ताल
उत्तराखण्ड हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में नौले, धारे, पोखर, ताल आदि जल-आपूर्ति के संसाधन हैं. नौले जिन्हें सीढीदार कुंए भी कहा जा सकता है भूगर्भीय जल ड्डोतों से बनते हैं.
चन्द तथा कत्यूरी वंश के राजाओं ने ऐसे अनेक नौलों का निर्माण करवाया था जिनका उल्लेख उनके द्वारा जारी ताम्र-पत्रें में भी मिलता है. अनेक स्थानों पर बरसात के जल को संचयित करने के लिए झीलों और तालों की अवस्थिति पुरातन काल से चली आ रही है.ऐसे तालों में नैनीताल, भूमिताल, नौकुचिया ताल आदि प्रसिद्ध ताल हैं. कुछ परम्परागत ताल अब भूमिगत जल के लुप्त होने के कारण सूख गए हैं जिनमें सूखाताल, लम्पोखरा ताल, मलवा ताल आदि उल्लेखनीय हैं.जलविज्ञान
उत्तराखण्ड में नदियों के पानी को रोककर बांध बनाने की परम्परा भी बहुत पुरानी है.ऐसे बांधों में सेती,जमरानी, तुमड़िया, हरिपुरा, नानकसागर आदि उत्तराखण्ड के
प्रसिद्ध बांध हैं. उत्तराखण्ड के गांवों में ‘बन्धारा’ की विधि से वाटर हारवेस्टिंग प्रणाली का विशेष प्रचलन है. मकान की ढलानदार छत से बहने वाले वर्षा के जल को किसी जलपात्र में संग्रहीत करना या किसी बड़े गड्ढे में उसे नालियों के माध्यम से संचयित करना ‘बन्धारा’ विधि कहलाती है जिसे आधुनिक काल में ‘टॉप रूफ वाटर हारवेस्टिंग’ के नाम से जाना जाता है.पढ़ें— चक्रपाणि मिश्र के भूमिगत जलान्वेषण के वैज्ञानिक सिद्धांत
राजस्थान के टांका, नाड़ी, जोहड़
राजस्थान मरुस्थलीय प्रदेश होने के कारण सदा से ही पानी की कमी से जूझता रहा है.इसलिए वर्षा जल के संचयन से सम्बंधित जल प्रबन्धन की परम्परा राजस्थान
में प्राचीन काल से ही चली आ रही है.यहां कूप सरोवर व वापी निर्माण के कार्य को राज्य प्रशासन का सामाजिक एवं धार्मिक दायित्व माना जाता रहा है. विभिन्न स्थानों पर वर्षा के जल का भंडारण वहां की भौगोलिक स्थिति के आधार पर अलग-अलग पारम्परिक तरीकों से किया जाता था.वर्षा से सीधे मिलने वाले जल को नदी व तालाब में संचित किया जाता था. और भूगर्भीय पाताल के जल को कुएं,वापी बनाकर निकाला जाता था.इसके अतिरिक्त भी वर्षा जल का संग्रह करने के दूसरे तरीके राजस्थान में प्रचलित थे जिन्हें स्थानीय भाषा में कुंडी, टांका, नाड़ी, जोहड़ या टोबा, खड़ीन, झालरा,बावड़ी आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है.जलविज्ञान
बीकानेर में रेगिस्तान की अधिकता होने के
कारण कुएं का बहुत अधिक महत्व है. जहां कहीं कुआं खोदने की सुविधा हुई अथवा पानी जमा होने का स्थान मिला, आरंभ में वहां पर बस्ती बस गई. यही कारण है कि बीकानेर के अधिकांश स्थानों में नामों के साथ ‘सर’ जुड़ा हुआ है,जैसे कोडमदेसर, नौरंगदेसर, लूणकरणसर आदि. यहां ‘सर’ का अर्थ है ‘सरोवर’. इसका यही तात्पर्य है कि इन स्थानों पर कुएं अथवा तालाब अथवा सरोवर हैं.राजस्थान के
पारम्परिक जलविज्ञान के जानकार अनुपम मिश्र राजस्थान की इस ‘कुंईं’ नामक जल परंपरा के बारे में कहते हैं कि इस कुंईं के अमृत जल को पाने के लिये मरुभूमि के समाज ने खूब मंथन किया. अपने अनुभवों को व्यवहार में उतारने का एक पूरा जलशास्त्र विकसित किया. इस शास्त्र ने समाज के लिये उपलब्ध पानी को तीन रूपों में बांटा है- पहला रूप है ‘पालर’ पानी यानी सीधे बरसात से मिलने वाला पानी.
‘कुईं’ राजस्थान की एक खास
प्रकार की जल इकाई है,जो शायद अन्य प्रदेशों में दुर्लभ है. इसे बहुत छोटा सा कुआं भी कह सकते हैं.कुआं पुल्लिंग है, कुईं स्त्रीलिंग. यह कुंईं केवल व्यास में ही छोटी है.गहराई तो इस कुईं की कहीं से कम नहीं. राजस्थान में अलग-अलग स्थानों पर विशेष कारण से कुईयों की गहराई कुछ कम ज्यादा मिलती है. कुईं का भूवैज्ञानिक व्याकरण भी बहुत कुछ अलग है. कुआं और कुंईं में अंतर यह है कि कुआं भूजल यानी ग्राउंड वाटर को पाने के लिये बनाया जाता है. किन्तु कुईं भूजल से ठीक वैसे नहीं जुड़ती जैसे कुआं जुड़ता है.जलविज्ञान
कुईं वर्षा जल को बड़े विचित्र ढंग से
समेटती है,तब भी जब वर्षा ही नहीं होती. यानी कुईं में न तो सतह पर बहने वाला पानी (सर्फेस वाटर) होता है और न ही भूजल (ग्राउंड वाटर). तो भूवैज्ञानिक जमीनी हलचल की एक अलग सी कहानी है,जिसके आविष्कार का श्रेय राजस्थान की परम्परागत पद्धति को जाता है.पढ़ें— चक्रपाणि मिश्र के अनुसार भारत के पांच भौगोलिक जलागम क्षेत्रों का पारिस्थिकी तंत्र
जलविज्ञान
राजस्थान के पारम्परिक
जलविज्ञान के जानकार अनुपम मिश्र राजस्थान की इस ‘कुंईं’ नामक जल परंपरा के बारे में कहते हैं कि इस कुंईं के अमृत जल को पाने के लिये मरुभूमि के समाज ने खूब मंथन किया. अपने अनुभवों को व्यवहार में उतारने का एक पूरा जलशास्त्र विकसित किया. इस शास्त्र ने समाज के लिये उपलब्ध पानी को तीन रूपों में बांटा है- पहला रूप है ‘पालर’ पानी यानी सीधे बरसात से मिलने वाला पानी. यह धरातल पर बहता है और इसे नदी तालाब आदि में रोका भी जा सकता है. पानी का दूसरा रूप ‘पाताल’ पानी कहलाता है. यह वही भूजल है जो कुओं में से निकाला जाता है. ‘पालर’ और ‘पाताल’ पानी के बीच का तीसरा रूप है ‘रेजाणी’ पानी.यानी कुंईं का ‘रेजाणी’ पानी वह है,जो धरातल से नीचे उतरा लेकिन पाताल में न मिल पाया.बिहार की ‘आहार-पयैन’ परंपरा
बिहार में ‘आहार-पयैन’
नाम से प्रसिद्ध वाटर हारवेस्टिंग तकनीक मौर्य काल से चलती आ रही है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसे ‘आहारोदक’ सेतुबन्ध के नाम से जाना जाता है. क्षेत्रीय भाषा में ‘आहार’ जल के बांध या तालाब को कहते हैं तथा नदी के साथ जोड़कर बनाई गई नहर ‘पयैन’ कहलाती है. ग्रीक यात्री मैगस्थनीज जिसने चन्द्रगुप्त मौर्य (340-293 ई.पू.) के काल में भारत भ्रमण किया था, इन नदियों और नहरों से जुड़ी ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणालियों का वर्णन किया है.महाराष्ट्र की ‘फड’ परंपरा
महाराष्ट्र स्थित पुणे के
निकट नानाघाट की वाटर हारवेस्टिंग तकनीक को विश्व की प्राचीनतम जल संचयन तकनीक के रूप में मूल्यांकित किया जाता है. यहां प्राचीन व्यापार मार्ग पर बने पत्थर की चट्टानों को काटकर बनाए गए कृत्रिम जलकुंड तथा अन्य जलाशय भारतीय जलविज्ञान का सुन्दर निदर्शन हैं. महाराष्ट्र में ही कृषि जल से सम्बन्धित हारवेस्टिंग प्रणाली ‘फड’ के नाम से जानी जाती है. सामूहिक रूप से की जाने वाली इस सिंचाई योजना के अन्तर्गत नदी के तटवर्ती सिंचाई क्षेत्र को खंडों में विभाजित कर लिया जाता है जिसे ‘फड’ कहते हैं. इस क्षेत्र के सभी किसान अपने अपने ‘फडों’ में नहर और नालियां खोदते हैं तथा नदी पर स्थित किसी बड़े बांध या जलाशय से अपने अपने फडों में जल पहुंचाने की व्यवस्था करते हैं.जलविज्ञान
जल संग्रहण की यह समूची योजना
सामूहिक रूप से गठित ग्रामसभाओं और ग्रामसमितियों की देखरेख में की जाती है. महाराष्ट्र के विस्तृत मैदान में पश्चिमी घाट से निकलने वाली नदियां वैतरणी, उल्हास, सावित्री आदि प्रवाहित होती हैं. इनके किनारे तालाब एवं झीलों में भी वर्षाजल को एकत्रित करते हैं. यहां खेतों के मेड़ बनाकर पारम्परिक ढंग से वर्षा के जल को रोका जाता है.गुजरात के ‘कुण्ड’ और ‘वाव’
गुजरात में वर्षा जल को पूरे वर्ष तक संरक्षित
रखने वाले जलनिकाय ‘कुंड’ कहलाते हैं. इन जलकुंडों की गहराई लगभग 6 मीटर और चौड़ाई 2 मीटर होती है. गुजरात, काठियावाड़ क्षेत्रों में भूजल काफी ऊँचा है तथा यहाँ पर जल संचयन हेतु बावड़ियाँ बनाई जाती हैं जिन्हें ‘वाव’ कहते हैं. इन वावों से चड़स द्वारा पानी खींच कर उपयोग में लेते हैं. अहमदाबाद में पन्द्रहवीं सदी में अनेक ताबाल बने थे, जिनमें से अधिकांश का निर्माण सुल्तान कुतुबुद्दीन ने कराया था. यहाँ की मानसर झील प्रसिद्ध है, जिसमें वर्ष भर जल रहता है. इसका क्षेत्रफल 6 हेक्टेयर है. इसमें पानी कुंड से आता है. खेड़ा, बड़ोदरा व कारावन में भी काफी मात्रा में तालाब विद्यमान हैं.गौंडवाना क्षेत्र की ‘कट्टा’ परंपरा
प्राचीन काल में गौंडवाना क्षेत्र, जिसमें मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश
और उड़ीसा के कुछ प्रदेश सम्मिलित थे, वाटर हारवेस्टिंग के कुशल प्रबन्धन के लिए विख्यात था. गौंड राजाओं ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र की नीतियों पर चलकर ही जल संग्रहण की प्रणालियों द्वारा सिंचाई करने वाले किसानों को लगान से मुक्त कर रखा था. सम्भलपुर भूभाग में इस पारम्परिक जलप्रबन्धन की व्यवस्था ‘कट्टा’ परंपरा के नाम से जानी जाती है. उड़ीसा के बारगढ़ जिले में स्थित बिजेपुर की ‘रानी सागर’ कट्टा प्रणाली वाटर हारवेस्टिंग की एक सामुदायिक प्रणाली है जिसका प्रारम्भ गौंड राजाओं द्वारा किया गया था और आज भी इस प्रणाली का अवशेष ‘रानी सागर’ कट्टा में देखा जा सकता है.जलविज्ञान
सन् 1897 के भयंकर सूखे के समय भी सम्भलपुर क्षेत्र अप्रभावित रहा तो वह ‘रानी सागर’ कट्टा के कारण ही अपने क्षेत्र में जल की आपूर्ति नियमित रूप से करने में समर्थ रहा. वराहमिहिर के ‘दकार्गल’ नामक भूमिगत जलविज्ञान की प्रायोगिक धरातल पर भी वैज्ञानिक पुष्टि होती है.
‘रानी सागर’ में पूरे साल भर पानी भरा रहता है और इस पानी के रिसाव से भूमिगत जल का भंडारण और पुनर्भंडारण भी होता रहता है जिसके कारण यहां गर्मियों में भी 15 से 18 फुट की गहराई में जल उपलब्ध हो जाता है.जबकि उसी स्थान से दो कि.मी.की दूरी पर स्थित कुओं में जल सूख जाता है. इस ‘रानी सागर’ जलाशय की भूवैज्ञानिक स्थिति सेतमिलनाडु के ‘इरी’ तालाब
तमिलनाडु में प्राचीन तालाब ‘इरी’ नाम से
जाने जाते हैं. तमिलनाडु के सिंचित क्षेत्र का एक-तिहाई हिस्सा इन्हीं ‘इरी’ (तालाबों) से सिंचित होता है. इन ‘इरी’ नामक जल निकायों का बाढ़ नियंत्रण, पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखने,भूक्षरण को रोकने और वर्षा जल की बर्बादी को रोकने,भूजल भंडार को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई गई है.इरी स्थानीय जलागम क्षेत्रों को एक पारम्परिक जल प्रबंधन प्रणाली के रूप में उपयुक्त जलवायु की पृष्ठभूमि भी प्रदान करते हैं और उनके बिना धान की खेती असंभव होती है.जलविज्ञान
भारत में अंग्रेजी राज आने से पहले 1600 ई.तक इन ‘इरी’ तालाबों का रखरखाव स्थानीय समुदाय स्थानीय संसाधनों की मदद से करते थे.
चेंगलपट्टू जिले के ऐतिहासिक आकंड़े बताते हैं कि18वीं सदी में हर गांव की पैदावार का 4-5 प्रतिशत तालाबों और सिंचाई की दूसरी व्यवस्थाओं के रखरखाव के लिए दिया जाता था.जल वितरण और प्रबंधन के लिए जिम्मेदार कर्मचारियों को भी पैदावार का समुचित हिस्सा दिया जाता था. इस काम में लगे गांव के पदाधिकारियों की सहायता के लिए राजस्व मुक्त भूमि ‘मण्यम’ भी आवंटित की जाती थी, जिससे कि इन ‘इरी’ जलाशयों की नियमित सफाई,नहरों का रखरखाव आदि किया जा सके.जलविज्ञान
परन्तु अंग्रेजी राज के हुक्मरानों की नजर जब कृषिप्रबन्धन से जुड़े इन ‘इरी’ तालाबों द्वारा सिंचित और उपजाऊ भूमि पर पड़ी तो उन्होंने ज्यादा राजस्व उगाहने के लोभ में भूमि काश्तकारी तालाबों के रखरखाव में कानूनी तौर पर योगदान नहीं कर सकते थे और इन ब्रिटिश प्रशासन द्वारा थोपी गई जल प्रबंधन के राजनैतिक हस्तक्षेप और केंद्रीकरण की सोच से तमिलनाडु समेत दक्षिण भारत की जल संग्रह प्रणालियों का पतन भी शुरू हो गया. कालांतर में ब्रिटिश राज की हस्तक्षेप पूर्ण जल प्रबंधन की इसी नीति के परिणाम स्वरूप समूचे भारत की परंपरागत जलप्रबंधन व्यवस्था भी चरमराती गई.
व्यवस्था में घातक प्रयोग और अवांछित हस्तक्षेप किए,जिनके कारण ‘इरी’ तालाबों का जलप्रबंधन गड़बड़ाता गया. राज्यतंत्र ने गांव के संसाधनों पर कब्जा शुरू कर दिया जिससे पारंपरिक अर्थव्यवस्था और जलप्रबंधन का आपसी रिश्ता भी बिखरता गया. अब ग्रामीण समुदाय अपने खेतों की सिंचाई और आवश्यक जलापूर्ति करने वाले इन ‘इरी’जलविज्ञान
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)