उत्तराखंड की वादियों से गुमानी पंत ने उठाई थी,आज़ादी की पहली आवाज

संविधान दिवस (26 नवम्बर) पर विशेष

  • डॉ.  मोहन चंद तिवारी

मैं पिछले अनेक वर्षों से अपने लेखों द्वारा लोकमान्य गुमानी पन्त के साहित्यिक योगदान की राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में निरंतर रूप से चर्चा करता आया हूं. उसका एक कारण यह भी है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में उत्तराखंड की भाषाओं को मान्यता दिलाने के लिए सर्वाधिक साहित्यिक प्रमाण लोककवि गुमानी पंत द्वारा आज से दो सौ वर्ष पूर्व रचित कुमाउंनी साहित्य है,जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय धरातल पर देश की भाषाई एकता को स्थापित करने के लिए गढ़वाली, कुमाउंनी आदि उत्तराखंड की भाषाओं के अलावा नेपाली और संस्कृत भाषाओं में साहित्य रचना की.पर विडंबना यह है कि आज उत्तराखंड की वादियों में बोली जाने वाली खसकुरा नेपाली भाषा को तो आठवीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है किंतु  उसी भाषापरिवार से सम्बद्ध कुमाउंनी, गढ़वाली और जौनसारी को संवैधिनिक मान्यता नहीं मिल पाई है.

आज से 24 वर्ष पूर्व मैंने 4अगस्त,1996 को गुमानी पंत के योगदान पर राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘हिदुस्तान’ के रविवासरीय परिशिष्ट में “अपनी संस्कृति पर गुमान था कवि गुमानी को” शीर्षक से एक लेख लिखा था. वह लेख आज भी मेरे यादगार लेखों में खास लेख है. इसी सन्दर्भ में आज ‘दैनिक भास्कर’ के ‘उत्तराखंड लाइव’ में भी मेरा लेख- “उत्तराखंड की संस्कृति पर गुमान था कवि गुमानी को” शीर्षक से प्रकाशित हुआ है. संविधान दिवस पर यह लेख आज भी प्रासंगिक है. पूरा लेख इस प्रकार है-

“उत्तराखंड की संस्कृति परगुमान था कवि गुमानी को”

ब्रिटिश हुकूमत और गोरखा राज की दो-दो राजसत्ताओं के विरुद्ध आवाज उठाने वाला देश का यदि कोई पहला कवि था तो वह उत्तराखंड का जनकवि लोकमान्य गुमानी पंत था. देश में जब न ‘वन्दे मातरम्’ था, न तिरंगा झंडा, न गांधी थे, न सुभाष बोस, तब हिमालय की वादियों में गोरखाराज और अंग्रेजों के जुल्म और अत्याचारों के विरुद्ध सबसे पहले कोई तीखी,सशक्त और क्रांतिकारी आवाज उठी थी तो वह लोककवि गुमानी के कविता की आवाज थी.

लगभग तीन दशक पहले कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल में गुमानी पंत पर एक भव्य राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था.तब भी देश के विभिन्न प्रान्तों से आए हुए विद्वानों ने गुमानी के साहित्यिक अवदान और उनके मूल्यांकन को लेकर  गम्भीर चर्चाएं की थीं. उस सम्मेलन में विद्वानों द्वारा लोकमान्य गुमानी पन्त को उत्तराखंड का राज्य कवि घोषित करने की मांग रखी गई थी. सोचा गया था कि उत्तराखंड राज्य बनेगा तो देश के इस महान राष्ट्रवादी कवि गुमानी के साहित्यिक अवदान और उनके मूल्यांकन को लेकर गम्भीर चर्चाएं होंगी.उन्हें राज्य और देश की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशेष सम्मान मिलेगा और उत्तराखंड के बुद्धिजीवी, लेखक साहित्यकार और शोधार्थी गुमानी साहित्य के संदर्भ में हिंदी साहित्य के काल विभाजन को ले कर भी एक नया इतिहास रचेंगे.

पर विडम्बना यह रही कि आजादी के 72 साल और उत्तराखंड राज्य मिलने के 20 साल बीत जाने के बाद भी हमारे इस आधुनिक युग के राष्ट्रवादी लोककवि का न तो राष्ट्रीय स्तर पर सही सही मूल्यांकन हुआ और न ही राज्य सरकार द्वारा इन्हें कोई महत्त्व या विशिष्ट सम्मान मिला.अच्छा तो यही होता कि उत्तराखंड  सरकार द्वारा गुमानी पंत को ‘उत्तराखंड के राष्ट्रकवि’ के गौरव से सम्मानित किया जाना चाहिए था तथा इस महान कवि के राष्ट्रीय अवदान के विषय में पूरे देशवासियों को भी अवगत कराना चाहिए था. मगर इस क्षेत्र के राजनेताओं और दुदबोली के लेखकों की आपसी क्षेत्रीय गुटबंदी के कारण इस हिमालयपुत्र को जो राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान और आदर मिलना चाहिए था उससे यह महान् राष्ट्रवादी कवि सदा वंचित ही रहा.आधुनिक युग के मूल्यनिर्धारक आदिकवि और साहित्यकार होने के बावजूद भी गुमानी एक भूले बिसरे और उपेक्षित क्षेत्रीय कवि बनकर ही रह गए.

अंग्रेज प्रशासक गुमानी से थर-थर कांपते थे और उनके विरोध के स्वर को जानने समझने के लिए उनकी कविताओं का उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद भी करवाया था.’ इंडियन एन्टीक्विरी’ में उनकी रचनाएं अंग्रेजी अनुवाद के साथ छपी हैं.

वस्तुतः गुमानी पन्त संस्कृत के उद्भट विद्वान होने के साथ कुमाउंनी साहित्य के भी आदिकवि थे. उन्होंने भाषाई सौहार्द को प्रोत्साहित करने के प्रयोजन से हिन्दी, कुमाउंनी, नेपाली और संस्कृत भाषा में मिश्रित रचनाएँ लिखीं थीं. वे भारत के पहले ऐसे बहुभाषा-काव्य के सर्जक लोककवि थे जिनकी कविता का पहला पद हिन्दी में, दूसरा कुमाउंनी, तीसरा नेपाली और चौथा संस्कृत में होता था. पर ‘गुमानी’ जी का परिचय इतना मात्र नहीं है कि वे बहुभाषा-काव्य के सर्जक कवि थे या उन्हें हिंदी अथवा कुमाऊनी भाषा का आदिकवि माना जाए बल्कि राष्ट्रीय धरातल पर उनका सबसे बड़ा परिचय यह है कि ब्रिटिश हुकूमत और गोरखा राज की दो-दो राजसत्ताओं के विरुद्ध आवाज उठाने वाला कोई पहला निर्भीक और साहसी कवि इस देश में हुआ तो वह गुमानी पंत ही था. अंग्रेज प्रशासक गुमानी से थर-थर कांपते थे और उनके विरोध के स्वर को जानने समझने के लिए उनकी कविताओं का उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद भी करवाया था.’ इंडियन एन्टीक्विरी’ में उनकी रचनाएं अंग्रेजी अनुवाद के साथ छपी हैं.

उत्तराखंड में अंग्रेजों के आने से पहले कुमाऊँ में गोरखा राज का आतंक छाया हुआ था. उस समय उत्तराखंड की आम जनता की ऐसी दुर्दशा थी कि उन्हें हरिद्वार में कुली बेगार के लिए बेचा जाता था. उनकी बहिन बेटियों के साथ गोरखे शासक दुर्व्यवहार करते थे. गोरखा शासकों द्वारा पर्वतीय लोगों के साथ किए गए इन अत्याचारों को गुमानी ने अपनी कविताओं द्वारा बहुत बेबाकी से प्रस्तुत किया

लोकरत्न ‘ गुमानी’ पन्त का जन्म 10 मार्च 1790 को काशीपुर में हुआ. वे मूल रूप से उपराड़ा गाँव, गंगोलीहाट जनपद, पिथौरागढ़ के निवासी थे. ‘गुमानी’ का नाम पंडित लोकरत्न पन्त था.उनके पिता का नाम देवनिधि पंत था.इनके पूर्वज चंद्रवंशी राजाओं के राज्य वैद्य रहे थे. राजकवि के रूप में गुमानी सर्वप्रथम काशीपुर नरेश गुमान सिंह देव की राजसभा में नियुक्त हुए थे.टिहरी नरेश सुदर्शन शाह ,पटियाला के राजा श्री कर्ण सिंह,अलवर के राजा श्री बनेसिंह देव और नहान के राजा फ़तेह प्रकाश आदि तत्कालीन कई राजाओं से भी उन्हें सम्मान मिला.गुमानी की प्रमुख रचनायें हैं-

राममहिमावर्णन,गंगाशतक, कृष्णाष्टक, रामाष्टक, चित्रपद्यावली, ज्ञानभैषज्यमंजरी,शतोपदेश, नीतिशतक,रामनाम-पञ्चपंचाशिका आदि.

गौरतलब है कि उत्तराखंड में अंग्रेजों के आने से पहले कुमाऊँ में गोरखा राज का आतंक छाया हुआ था. उस समय उत्तराखंड की आम जनता की ऐसी दुर्दशा थी कि उन्हें हरिद्वार में कुली बेगार के लिए बेचा जाता था. उनकी बहिन बेटियों के साथ गोरखे शासक दुर्व्यवहार करते थे. गोरखा शासकों द्वारा पर्वतीय लोगों के साथ किए गए इन अत्याचारों को गुमानी ने अपनी कविताओं द्वारा बहुत बेबाकी से प्रस्तुत किया-

“दिन-दिन खजाना का भार का बोकिया ले,
शिव शिव चुलि में का बाल नैं एक कैका..
तदपि मुलुक तेरो छोड़ि नैं कोई भाजा,
इति वदति गुमानी धन्य गोरखालि राजा..”

अर्थात रोज रोज खजाने का भार ढोते-ढोते प्रजा के सिर के बाल उड़ गये पर गोरखों का राज छोड़कर कोई भी मु्ल्कवासी नहीं भागा. अत: हे गोरखाली राजा तुम धन्य हो. इसी तरह ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा भारत में अंग्रेजों द्वारा की गए लूट पीट के विरुद्ध भी गुमानी ने लिखा है –

“विलायत से चला फिरंगी पहले पहुँचा कलकत्ते, अजब टोप बन्नाती कुर्ती ना कपड़े ना कुछ लत्ते.
सारा हिन्दुस्तान किया सर बिना लड़ाई कर फत्ते,
कहत गुमानी कलयुग ने यो सुब्बा भेजा अलबत्ते॥”

अंग्रेज शासक जिस प्रकार से सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की दुर्दशा कर रहे थे,विष्णुमंदिर और उत्तराखंड की कुलदेवी नंदा के मंदिर को तोड़कर वहां अपने बंगले बना रहे थे उस धार्मिक अत्याचार के विरुद्ध यदि किसी के पास आवाज बुलंद करने का कोई साहस था तो वह केवल कवि गुमानी ही थे-

“विष्णु का देवाल उखाड़ा ऊपर बंगला बना खरा,
महाराज का महल ढवाया बेडी खाना तहां धरा.,
मल्ले महल उड़ाई नंदा बंगलो से भी तहां भरा,
अंग्रजों ने अल्मोड़े का नक्शा ओरी और किया.”

गुमानी ने अपनी कविताओं में उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के उपर भी कलम चलायी है और एक विधवा की दयनीय दशा और बेबसी का मार्मिक वर्णन इस प्रकार किया है-

“हलिया हाथ पड़ो कठिन लै है गेछ दिन धोपरी,
बांयो बल्द मिलो एक दिन ले काजूँ में देंणा हुराणी.
माणों एक गुरुंश को खिचड़ी पेंचो नी मिलो,
मैं ढोला सू काल हरांणों काजूं के धन्दा करूँ.”

अर्थात बेचारी विधवा को मुश्किल से दोपहर के समय एक हल बाने वाला मिला और उस समय भी केवल बांयी ओर जोता जाने वाला बैल मिल पाया, दांया नहीं. खाने खिलाने को खिचड़ी का एक माणा भी उसे कहीं से उधार नहीं मिल पाया.निराश होकर वह विधवा सोचती है कि कितनी बदनसीब हूं मैं कि मेरे लिये काल भी नहीं आता.

गुमानी की एक लोकप्रिय उक्ति है “हिसालू की जात बड़ी रिसालू जां जां जान्छे उधेडी खांछे” जिसका तात्पर्य है कि हिंसालु फल की भाति गुमानी की कविता बहुत रसभरी (रसीली) और गुसैल (रिसालू) है अर्थात काटों से भरी है, जो भी इसके नजदीक जाता है उसे यहअपने कटु यथार्थ रुपी कंटीले तेवरों से काट खाती है. इस हिसालू कविता का व्यंग्यार्थ भी बहुत निराला है-

“हिसालू की जात बड़ी रिसालू ,
जाँ जाँ जाँछ उधेड़ि खाँछ.
यो बात को क्वे गटो नी माननो,
दुद्याल की लात सौणी पड़ंछ.”

अर्थात हिसालू की नस्ल बड़ी गुसैल किस्म की होती है, जहां-जहां जाता है, बुरी तरह उधेड़ देता है, तो भी कोइ इस बात का बुरा नहीं मानता, क्योंकि दूध देने वाली गाय की लातें भी खानी ही पड़ती हैं.

कुमाऊंनी में खड़ी बोली हिंदी से भी पहले से साहित्य की रचना के प्रमाण हैं. जिसका प्रमाण गुमानी की रचनाएं हैं. गुमानी  अपनी समस्यापूर्तियों के लिए विख्यात थे. उनकी रचनाएँ हिंदी मिश्रित संस्कृत, कुमाँउनी, नेपाली, खड़ी बोली, संस्कृत और ब्रज भाषा में हैं.

हिसालू इतना रसीला होता कि उसके आगे सारे फल फीके ही लगते हैं. गुमानी ने नेपाली भाषा में हिसालू की तुलना अमृत फल से की है-

“छनाई छन मेवा रत्न सगला पर्वतन में,
हिसालू का तोपा छन बहुत तोफा जनन में,
पहर चौथा ठंडा बखत जनरौ स्वाद लिंण में,
अहो में समझछुं, अमृत लग वस्तु क्या हुनलो ?”

अर्थात पहाड़ों में तरह-तरह के अनेक रत्न हैं, हिसालू के फल भी ऐसे ही बहुमूल्य तोहफे हैं,चौथे पहर में ठंड के समय हिसालू खाएं तो क्या कहने मैं समझता हूँ इसके आगे अमृत का स्वाद भी क्या होगा !

गुमानी ने अपनी रचनाएं बिना किसी लाग लपेट की सीधी और सरल भाषा में की हैं किन्तु उनमें गहरे व्यंग्य का पुट रहता है. यही कारण है कि गुमानी की रचनाएं कुमाऊँ में आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं जितनी उनके समय में थी. गुमानी की नजर से तत्कालीन महानगर काशीपुर का सांस्कृतिक चरित्र विश्वनाथ जी की काशी नगरी से कुछ कम नहीं-

“यहाँ ढेला नदी उत बहत गंगा निकट में .
यहाँ भोला मोटेश्वर रहत विश्वेश्वर वहाँ ..
यहाँ सण्डे दण्डे कर धर फिरें शाँड उत ही .
फरक क्या है काशीपुर शहर काशी नगर में..”

आज दुर्भाग्य से टिहरी नगर का अस्तित्व समाप्त हो गया किन्तु गुमानी ने टिहरी नरेश सुदर्शन शाह की सभा के मुख्य कवि के रूप में दो सौ साल पहले ‘टिहिरी’ नगर के नामकरण से सम्बंधित श्लोक रचकर इस ऐतिहासिक नगरी का जो महिमामंडन किया है वह आज भी भुलाने योग्य नहीं है –

“सुरंगतटी रसखानमही
धनकोशभरी यहु नाम रह्यो.
पदतीन बनाय रच्यौ
बहुविस्तार वेगु नहीं जात कह्यो.
इन तीन पदों के बखान
बस्यो अक्षर एक ही एक लह्यो.
धनराज सुदर्शन शाहपुरी
टिहिरी यदि कारन नाम गह्यो..”

अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठाने वाले पहले कुमाऊंनी साहित्यकार, हिमालय पुत्र,उत्तराखंड गौरव तथा हिंदी, कुमाऊंनी आदि भारतीय भाषाओं के पारस्परिक सौहार्द और राष्ट्रीय स्वाभिमान के उन्नयन हेतु लोकमान्य गुमानी पंत आज भी इस बहुभाषी देश के महान आदर्श हैं.

कुमाऊंनी के आदि कवि लोकरत्न पंत गुमानी 1790 से 1846 तक खड़ी बोली हिंदी के भी आदि कवि माने जाते हैं. कुमाऊंनी में खड़ी बोली हिंदी से भी पहले से साहित्य की रचना के प्रमाण हैं. जिसका प्रमाण गुमानी की रचनाएं हैं. गुमानी  अपनी समस्यापूर्तियों के लिए विख्यात थे. उनकी रचनाएँ हिंदी मिश्रित संस्कृत, कुमाँउनी, नेपाली, खड़ी बोली, संस्कृत और ब्रज भाषा में हैं. एक उदाहरण देखिए,जिसका पहला पद हिंदी में दूसरा कुमाउंनी में, तीसरा नेपाली में और चौथा पद संस्कृत में है-

“बाजे लोग त्रिलोकनाथ शिव की पूजा करें तो करें.
क्वे-क्वे भक्त गणेश का जगत में बाजा हुनी त हुन्..
राम्रो ध्यान भवानि का चरण माँ गर्छन कसैले गरन्.
धन्यात्मातुल धामनीह रमते रामे गुमानी कविः..”

उत्तराखंड के प्रथम कवि के रूप में गुमानी का नाम अपनी लोकसंस्कृति के स्वाभिमान और राष्ट्रवादी साहित्य साधना के लिये सदैव स्मरण किया जाता रहेगा. अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठाने वाले पहले कुमाऊंनी साहित्यकार, हिमालय पुत्र,उत्तराखंड गौरव तथा हिंदी, कुमाऊंनी आदि भारतीय भाषाओं के पारस्परिक सौहार्द और राष्ट्रीय स्वाभिमान के उन्नयन हेतु लोकमान्य गुमानी पंत आज भी इस बहुभाषी देश के महान आदर्श हैं.

आज संविधान दिवस के अवसर पर देश की आजादी के पुरोधा इस उत्तराखंड के जनकवि गुमानी पंत को शत्—शत् नमन! अभिवंदन!!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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