आज भी प्रासंगिक हैं ‘गांधी-गीता’ के प्रजातांत्रिक मूल्य

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

प्रोफेसर इन्द्र की ‘गांधी-गीता’ दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के स्नातक स्तर के ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ के पाठ्यक्रम में निर्धारित एक महत्त्वपूर्ण रचना है. यह पुस्तक सन् 1950 में प्रकाशित हुई थी जो अब दुर्लभप्राय है.मैं अपने फेसबुक पर गांधी जयंती, गणतंत्र दिवस स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय महोत्सवों के अवसर पर because लिखे लेखों में प्रोफेसर इन्द्र द्वारा रचित इस ‘गांधी-गीता’ के बारे में प्रायः चर्चा करता रहता हूं. राजनैतिक जगत में भारतीय राष्ट्रवाद और प्रजातांत्रिक मूल्यों का देश में आज जिस प्रकार से क्षरण हो रहा है,उसे देखते हुए भी देश में प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए गांधीवादी चिंतन आज भी जनोपयोगी और प्रासंगिक भी है.गांधी चिंतन के इसी सन्दर्भ में यह लेख भी लिखा गया है.

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भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के पिछले सौ वर्षों के इतिहास की ओर नजर दौड़ाएं तो पता so चलता है कि 9 जनवरी 1915 को महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद स्वदेश लौटे थे तो उसी समय से उन्होंने देश की आजादी के लिए स्वतंत्रता आंदोलन की मुहिम शुरु कर दी थी.सन् 1909 में ही गांधी जी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में भारत के वास्तविक लोकतंत्र का स्वरूप ‘ग्राम स्वराज’ के रूप में प्रस्तुत कर दिया था. यह अलग बात है कि पूरी एक शताब्दी बीत जाने के बाद भी but ग्राम स्वराज के लोकतंत्र से आज भारत कोसों दूर है. एक विडम्बना यह भी है कि आज विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता गांधी जी का नाम लेकर समाज में राजनैतिक दृष्टि से अपनी विश्वसनीयता कायम करना चाहते हैं किंतु गांधी जी के ग्राम स्वराज,धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक समरसता के सिद्धान्तों पर कभी अमल नहीं करते.

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आजादी के पिछले 72 वर्षों के इतिहास में जब because जब राजनैतिक दलों ने जन सरोकारों को दरकिनार करके राजनैतिक सत्ता का दुरुपयोग किया है,उसके विरुद्ध जितने भी जन आंदोलन हुए वे सब गांधीवादी विचार के कारण ही सफल हुए हैं. इसलिए भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने और राजनैतिक सत्ता के लाभों को आम जनता तक पहुंचाने के लिए आज गांधी चिंतन ही एकमात्र राष्ट्रीय सहारा बचा है.

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गाँधी जी के अनुसार पूर्ण स्वराज की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि “सच्ची लोकशाही केन्द्र में बैठे हुए 20 आदमी नहीं चला सकते. वो तो नीचे हर गांव के लोगों द्वारा चलाई because जानी चाहिए ताकि सत्ता के केन्द्र बिन्दु जो इस समय दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई जैसे बड़े शहरों में हैं, मैं उसे भारत के 7 लाख गावों में बांटना चाहूँगा.” महात्मा गांधी ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पोषित राजकाज की इस साम्राज्यवादी राजनैतिक प्रवृत्ति को स्वतंत्रता तथा स्वराज का घोर विरोधी मानते थे. गीता के निष्काम कर्मयोग और अनासक्ति भाव से प्रेरित होकर ही महात्मा गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह के शस्त्र से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के घोर युद्ध का नेतृत्व किया. पर विडम्बना यह है कि जिन अहिंसा ,सत्याग्रह, निष्काम कर्मयोग आदि आदर्शों और सिद्धान्तों को लेकर गांधी जी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध लड़ा था स्वतंत्रता प्राप्ति के पिछले 70 वर्षों में वे सारे मूल्य जातिवादी वोटतंत्र की राजनीति में समाज से लुप्तप्राय हो चुके हैं.

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निष्काम कर्मयोग और अनासक्ति because भाव की जो शिक्षा श्रीमद्भगवद् गीता में दी गई है महात्मा गांधी ने उसी शिक्षा को अपने जीवन में उतार कर अहिंसा और सत्याग्रह के शस्त्र से एक ओर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का घोर युद्ध लड़ा तो दूसरी ओर ‘हिन्द स्वराज’, ‘ग्राम स्वराज’ एवं ‘रामराज्य’ के चिन्तन से भारत राष्ट्र के लोकतांत्रिक स्वरूप को वैचारिक दिशा देने का प्रयास भी किया.

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यह देश के लिए गंभीरता से सोचने की बात है कि आज अमेरिका जैसा एक शक्तिशाली पश्चिमी देश भी धार्मिक सहिष्णुता के मामले में भारत को गांधीवादी मार्ग पर चलने की नसीहत दे रहा है because और भारत के हालात ये हैं कि उसने अपनी पश्चिमवादी ‘सैक्यूलैरिज्म’ की राजनीति करते हुए ‘सर्व धर्म सम भाव’ के गांधीवादी विचार को तिलांजलि दे दी है. संतोष की एक बात एक यह  है कि पूरे विश्व को युद्ध के परमाणु हथियार सप्लाई करने  वाले अमेरिका जैसे देश के लिए दुनिया को सत्य और अहिंसा का सबसे ताकतवर हथियार देने वाले महात्मा गांधी का चिंतन आज प्रासंगिक लगने लगा है.

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दरअसल, गीता और गांधी आधुनिक युग परिप्रेक्ष्य में दो ऐसे प्रकाश स्तम्भ हैं जिनके आलोक में वैश्विक अशान्ति, सामाजिक विप्लव, राजनैतिक भ्रष्टाचार और धार्मिक विसंगतियों का विखण्डन किया जा सकता है. निष्काम कर्मयोग और अनासक्ति भाव की जो शिक्षा श्रीमद्भगवद् गीता में दी गई है महात्मा गांधी ने उसी शिक्षा को अपने जीवन में because उतार कर अहिंसा और सत्याग्रह के शस्त्र से एक ओर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का घोर युद्ध लड़ा तो दूसरी ओर ‘हिन्द स्वराज’, ‘ग्राम स्वराज’ एवं ‘रामराज्य’ के चिन्तन से भारत राष्ट्र के लोकतांत्रिक स्वरूप को वैचारिक दिशा देने का प्रयास भी किया. पर चिन्ता का विषय है कि आजादी मिलने के 70 वर्षों के बाद भी हमारे देश के राजनैतिक दल ‘राष्ट्रपिता’ के इन आदर्शों को ताक पर रखकर गांधी अनुमोदित प्रजातांत्रिक मूल्यों की जिस प्रकार अवहेलना कर रहे हैं उसकी आलोचना अब अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भी की जाने लगी है.

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आज अधिकांश राजनैतिक दल ब्रिटिश because साम्राज्य द्वारा पोषित छद्म धर्म निरपेक्षता, सम्प्रदायवाद, जातिवाद, अल्पसंख्यकवाद आदि विभाजनवादी राजनैतिक मूल्यों से ग्रस्त होकर वोटतंत्र की फसल काटने में लगे हैं जिसके कारण भारतीय संविधान द्वारा लोकतंत्र के मौलिक अधिकारों  से आम आदमी वंचित होता जा रहा है.

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पिछले दस-बारह वर्षों से सरकार की उदारवादी निजीकरण की अर्थनीतियों से देश में बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के आंकडों में निरन्तर रूप से जिस प्रकार वृद्धि हुई है,उससे संविधान सम्मत because आम आदमी के मौलिक अधिकारों का ही हनन नहीं हुआ बल्कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा भी खण्डित हुई है. बिजली, पानी, खाद्यान्न से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला सुरक्षा जैसी आम आदमी की समस्याओं के प्रति केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों की संवेदनहीनता तथा सरकारी संस्थाओं में बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण पिछले अनेक वर्षों से जन आक्रोश का स्वर तीखा होता जा रहा है.

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आज ‘गांधी गीता’ के माध्यम से गीता because का कालजयी चिंतन अपने देश के कर्णधार नेताओं से सीधा संवाद करता हुआ पूछ रहा है कि गांधी जी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ और ‘मेरे सपनों का भारत’ में जनता की खुशहाली और प्रजातंत्र  के मूल्यों के लिए एक कल्याणकारी राज्य के जो स्वप्न संजोए थे उनका क्या हुआ?

प्रो. इन्द्र विरचित ‘गांधी-गीता’

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वर्त्तमान भारत की राजनैतिक समस्याओं को लक्ष्य करते हुए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950 में प्रो. इन्द्र ने संस्कृत भाषा में  ‘गांधी -गीता’ (अहिंसायोग)  के नाम से एक आधुनिक because गीता की रचना की है. अठारह अध्यायों में लिखी इस ‘गांधी -गीता’ नामक  संस्कृत रचना का इतिवृत्त भी सर्वथा आधुनिक है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर दीनबंधु एण्ड्र्यूज से पूछते हैं कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में किन किन वीरों ने भाग लिया और किस सेना नायक़ ने इस महान् युद्ध का संचालन किया? इस आधुनिक गीता में अर्जुन की भांति बाबू राजेन्द्र प्रसाद सेना नायक श्री मोहन दास कर्मचंद गांधी के समीप चम्पारण की रणभूमि में आकर देश की प्रजातांत्रिक समस्याओं के बारे में संदेह और जिज्ञासाओं से युक्त प्रश्न करते हैं तथा श्रीकृष्ण की तर्ज पर महात्मा गांधी उन शंकाओं और जिज्ञासाओं का उत्तर देते हैं. इसीलिए इस रचना को लेखक ने ‘श्रीमन्मोहन-गीता’ का नाम भी दिया है.

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‘गांधी-गीता’ में आधुनिक ‘डेमोक्रेसी’ because यानी ‘प्रजातंत्र’ की वर्त्तमान संदर्भ में परिभाषा देते हुए कहा गया है कि ‘प्रजातंत्र में प्रजा का, प्रजा के द्वारा, प्रजा के लिए जो शासन व्यवस्था होती है वह समस्त लोगों के कल्याण की शुभकामना से प्रेरित रहती है-

”प्रजाया: प्रजया तस्मिन्,
प्रजायै शासनं भवेत्.
अशेषजनकल्याणं,
तदुद्देश:शुभो भवेत्..”
  -गांधी-गीता,18.24

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राष्ट्र का सर्वोच्च पदाधिकारी (महाध्यक्ष) यानी ‘राष्ट्रपति’ अथवा प्रजातंत्र का मुखिया कहां जाने वाला (नृपति) because यानी ‘प्रधानमंत्री’ भी यथार्थ में प्रजा का ‘मुख्य सेवक’ ही कहलाता है’-

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“तद्राष्ट्रस्य because महाध्यक्षो,
विज्ञातो because राष्ट्रनायक:.
नृपतिर्वा because प्रजाया:स्यात्,
यथार्थो because मुख्यसेवक:..”
   -गांधी-गीता,18.25

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वस्तुतः ‘गांधी-गीता’ के because अनुसार वह आदर्श लोकतान्त्रिक राज्य ही रामराज्य  कहलाने योग्य है जिसमें न्याय,धर्म और प्रेम से सुसंचालित शासन व्यवस्था चलती हो-

“तदादर्श स्वराज्यं तु,
रामराज्यं because मतं मम.
यस्मिन्न्यायस्य because धर्मस्य,
प्रेमणश्च शासनं because भवेत्..”
   -गांधी-गीता,18.19

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विडम्बना यह है कि लम्बे संघर्ष because और हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के आत्म बलिदान के फलस्वरूप प्राप्त आजादी आज चन्द हाथों तक सिमट कर रह गई है. भारतीय संविधान में कल्याणकारी राज्य की जो रूपरेखा डॉ अम्बेडकर ने निर्धारित की थी, शासनतंत्र उसे पूरा करने में विफल होता जा रहा है. पिछले सात दशकों में राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण सामाजिक और आर्थिक विषमता का दायरा इतनी तेजी से बढा है कि बीस प्रतिशत साधन सम्पन्न लोग अस्सी प्रतिशत आर्थिक धन सम्पत्ति के संसाधनों पर कब्जा जमाए हुए हैं जबकि देश की गरीब और सामान्य अस्सी प्रतिशत जनता बीस प्रतिशत आर्थिक संसाधनों से गुजारा कर रही है. because प्रो. इन्द्र रचित ‘गांधी-गीता’ के अनुसार रामराज्य में एक तरफ इतनी अकूत सम्पत्ति नहीं होती और दूसरी तरफ नैराश्य तथा अकिंचनता का ऐसा कारुणिक दृश्य नहीं दिखाई देता, जैसा कि आज भारत में चारों ओर दिखाई दे रहा है-

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”रामराज्ये न सम्पत्तिरगणितैकतो भवेत्.
परतोऽकिञ्चनत्वस्य दृश्यं कारुणिकं न च॥”
                   – गांधी-गीता,18.20

गांधी जी की मनोकामना थी कि भारत एक ऐसा so रामराज्य बने जिसमें कोई भूखा नहीं रहे,न कोई व्याधि से पीड़ित हो,सुशासित इस कल्याणकारी राज्य में कोई भी अनपढ़ और निरक्षर न रहे-

“न तस्मिंस्तु  क्षुधार्त: स्यान्न
कश्चिद् because व्याधिपीड़ित:.
नैवाविद्यातमोमग्नो,
रामराज्ये because सुशाशिते॥”
    – गांधी-गीता,18.21

गीता और गांधी चिन्तन की इसी because सामाजिक और राजनैतिक पृष्ठभूमि में आज ‘स्वधर्म’ को स्वतंत्रता तथा ‘परधर्म’ को परतंत्रता के संदर्भ में भी समझने की जरूरत है. ‘गांधी गीता’ के अनुसार महात्मा गांधी जी का विश्वमोहन चरित्र जो अवतारी पुरुष से कम नहीं था-

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“भगवान्वासुदेवोsन्योsवतीर्ण इव भारते.
महात्मा मोहनो गांधीनामा विश्वमोहनः..”

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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