- एम. जोशी हिमानी
छुआछूत किसी भी समाज की मानसिक बर्बरता का द्योतक है. हमारे समाज में छुआछूत का कलंक सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है. आज के तथाकथित सभ्य समाज में भी यह बहुत गहरे
तक मौजूद है. उसके खात्मे की बातें मात्र किताबी हैं, समय पड़ने पर छुआछूत का नाग अपने फन उठा लेता है.ताव
अपने बाल्यकाल में दूसरों की इस पीड़ा
को महसूस कर पाने के कारण ही शायद मेरे अंदर छुआछूत का भाव बचपन में ही खत्म हो गया था. हालांकि जिस माहौल में मेरी परवरिश हुई थी उसमें मुझे छुआछूत का कट्टर समर्थक बन जाना चाहिए था. शायद कुछ मेरा प्रारब्ध रहा होगा कि मैं वैसी नहीं बन पाई.
ताव
उच्च कुल में जन्म लेने के बावजूद छुआछूत की पीड़ा को मैंने बहुत नजदीक से देखा है. भले ही मैंने उस दंश को नहीं झेला, लेकिन मैं उसकी गवाह तो रही हूं. किसी संवेदनशील इंसान के
लिए किसी बुराई का गवाह बनना भी उसको भोगने जितना ही पीड़ादायक होता है. अपने बाल्यकाल में दूसरों की इस पीड़ा को महसूस कर पाने के कारण ही शायद मेरे अंदर छुआछूत का भाव बचपन में ही खत्म हो गया था. हालांकि जिस माहौल में मेरी परवरिश हुई थी उसमें मुझे छुआछूत का कट्टर समर्थक बन जाना चाहिए था. शायद कुछ मेरा प्रारब्ध रहा होगा कि मैं वैसी नहीं बन पाई.ताव
उत्तराखंड के समाज में छुआछूत की परंपरा में अब काफी हद तक कमी आ गई है परन्तु बचपन की घटनाओं को याद कर मेरा मन आज भी बहुत दुखी हो जाता है. जैसा कि
सभी जानते हैं पहाड़ में भी नीची जातियों के घर सवर्णों के गांव से दूर सबसे नीचे की ओर होते हैं, उससे ऊपर ठाकुरों के और सबसे ऊपर ब्राह्मणों के.
ताव
कितना अच्छा हुआ जो जीवन के प्रारंभिक पन्द्रह वर्ष मेरे नैनी में बीते. वर्ष 1974 के बाद से मैं लखनऊ में रह रही हूं, अधिकांश शहरियों की तरह घर, कॉलेज और बाद में ऑफिस
की दीवारों के भीतर मेरा जीवन गुज़र रहा है. समाजिक भेदभाव, छुआछूत जैसी गलीज चीजों को अब समाचार पत्रों और अन्य विभिन्न माध्यमों से ही जानने समझने का मौका मिलता है.ताव
यूं तो उत्तराखंड में नीची जातियों की संख्या कुल आबादी के दो प्रतिशत के आसपास है और वहां पर उन लोगों से देश के अन्य हिस्सों की तरह शारीरिक बर्बरता व शोषण की
वारदातें बहुत कम होती हैं. क्योंकि वहां के अधिकतर लोग आस्थावान व धर्म भीरू हैं. उत्तराखंड के समाज में छुआछूत की परंपरा में अब काफी हद तक कमी आ गई है परन्तु बचपन की घटनाओं को याद कर मेरा मन आज भी बहुत दुखी हो जाता है. जैसा कि सभी जानते हैं पहाड़ में भी नीची जातियों के घर सवर्णों के गांव से दूर सबसे नीचे की ओर होते हैं, उससे ऊपर ठाकुरों के और सबसे ऊपर ब्राह्मणों के.ताव
मैं प्राइमरी में पढ़ने वाली नन्हीं बालिका अपने विद्यालय से पांच किलोमीटर पैदल चलकर आने के बाद भूख से बेहाल अक्सर ही जलपात्र को अनदेखा कर सट्ट से घर में घुस
जाती थी. यदि मुझ पर किसी की नजर पड़ गई तो मैं खूब झिड़की भी खाती थी और बाहर निकलकर अपने ऊपर पानी के छींटें मारकर मुझे दोबारा घर भीतर जाने की इजाजत मिलती थी.
ताव
हमारी नैनी इस व्यवस्था के कारण सबसे ऊपर बसी थी. मेरे बाल्यकाल में छुआछूत का यह हाल था कि स्कूल से या बाहर से आने के बाद सभी के लिए सख्त निर्देश थे कि घर के
भीतर जाने वाली पत्थर की सीढ़ी पर रखे जलपात्र से अपने ऊपर पानी के छींटें मारने के बाद ही घर में प्रवेश करना है. इन अघोषित परंपराओं का पालन मेरे सिवा घर के सभी सदस्य करते थे. मैं प्राइमरी में पढ़ने वाली नन्हीं बालिका अपने विद्यालय से पांच किलोमीटर पैदल चलकर आने के बाद भूख से बेहाल अक्सर ही जलपात्र को अनदेखा कर सट्ट से घर में घुस जाती थी. यदि मुझ पर किसी की नजर पड़ गई तो मैं खूब झिड़की भी खाती थी और बाहर निकलकर अपने ऊपर पानी के छींटें मारकर मुझे दोबारा घर भीतर जाने की इजाजत मिलती थी.पढ़ें— एक ऐसा पहाड़ जो हर तीसरे साल लेता है मनुष्यों की बलि!
ताव
रात को रसोई में चूल्हा जलता था
और कच्ची लकड़ियों के कारण जब पूरा घर धुयें से भर जाता था, तब आमा (दादी) का गुस्सा आसमान में पहुंच जाता था. घर भर में सबसे कट्टर आमा ही थीं. बड़बौज्यू अपनी पूजा पाठ में मगन, उनको इन बातों से कोई मतलब न था. उनकी अपनी आंतरिक दुनिया थी, जिससे बाहर वे कभी-कभार ही निकलते थे. मेरी मां को भी अपनी लाड़ली को इस प्रकार डांटा जाना पसंद नहीं था परंतु वो बेचारी बहू कर ही क्या सकती थी.ताव
आमा को मेरे चुगलखोर सहपाठी ने यह खबर पहुंचा दी थी कि मैं अपनी पक्की सहेली छाया आर्या के घर से आये पराठे भी खाती हूं. इस बात में काफी सच्चाई भी थी. छाया
अक्सर ही अपने लिए कागज में लपेटकर अजवाइन के नमकीन परांठे लाती थी और चुपके से मुझे भी खिलाती थी. उसको यह हिम्मत मैंने ही दी थी वरना पहले पहल अपना पराठा मुझे देने में वह बहुत डर गई थी. इन्हीं सब कारणों से आमा मुझ पर विश्वास नहीं करती थीं.
ताव
आमा एक ही रट लगाए रहती थीं कि मेरे साथ तमाम तलि (नीची) जाति के बच्चे भी पढ़ते हैं इस घोर कलियुग में. आमा को मेरे चुगलखोर सहपाठी ने यह खबर पहुंचा दी थी कि
मैं अपनी पक्की सहेली छाया आर्या के घर से आये पराठे भी खाती हूं. इस बात में काफी सच्चाई भी थी. छाया अक्सर ही अपने लिए कागज में लपेटकर अजवाइन के नमकीन परांठे लाती थी और चुपके से मुझे भी खिलाती थी. उसको यह हिम्मत मैंने ही दी थी वरना पहले पहल अपना पराठा मुझे देने में वह बहुत डर गई थी. इन्हीं सब कारणों से आमा मुझ पर विश्वास नहीं करती थीं. उनका बस चलता तो वो पांचवी कक्षा के बाद मेरा स्कूल जाना बंद करवा देतीं. परंतु मेरे पिता की ज़िद के कारण मन मसोस कर रह जाती थीं.ताव
आमा को यही शक रहता था कि
मैं दिन भर उनके साथ सटकर बैठती हूंगी तथा छाया से परांठे इतना डांट खाने के बाद भी मांग कर जरूर खाती हूंगी और घर आकर भी मैं बिना अपने ऊपर छोड़ो (पानी के छींटें) डाले घर में घुस जाती हूं, इसलिए घर में इतना धुआं भर जाता है.आमा कभी यह मानने को तैयार नहीं होती थीं कि धुआं कच्ची लकड़ियों के कारण हो रहा है न कि मेरे अपने ऊपर जल न छिड़कने के कारण. आमा हाथ में पानी का लोटा लेकर पूरे घर के कोने-कोने में पानी के छींटें मारतीं -भाज छूत भाज…
ताव
मां मेरी तरफ देख कर
मुल-मुल हंस रही थी और सारी बातें मेरे सिर से बाउंस हुई जा रही थीं. इतनी कट्टरता के बावजूद हमारे खेतों में हल बाने वाले हरक राम हमारे जिडबौज्यू थे. देव राम दर्जी हमारे ददा थे. गनेश राम ओढ़, मिस्त्री हम सब के कका थे.
ताव
मैं एक कोने में दुबकी उस
अद्रश्य छूत के बाहर भागने और आमा के शांत होने का इंतजार करती रहती. लेकिन दोनों अपनी जगह से टस से मस न होते थे. दूसरे दिन मां चुन-चुन कर चुपके से सूखी लकड़ियां चूल्हे में रख आती. मैं सदा की तरह उस दिन भी बिना छींटें डाले घर में घुस गई थी, इसकी गवाह मां थी उस दिन. फिर भी उस शाम छूत नहीं आयी थी हमारे घर में धुआं फैलाने. दादी आज संतुष्ट थीं कि मैं ने आज उनकी हिदायतें मानीं हैं.ताव
मां मेरी तरफ देख कर
मुल-मुल हंस रही थी और सारी बातें मेरे सिर से बाउंस हुई जा रही थीं. इतनी कट्टरता के बावजूद हमारे खेतों में हल बाने वाले हरक राम हमारे जिडबौज्यू थे. देव राम दर्जी हमारे ददा थे. गनेश राम ओढ़, मिस्त्री हम सब के कका थे.उनके परिवार वालों के साथ
भी हमारे ऐसे ही प्यारे संबोधन थे. बावजूद इसके वे हमारी देहरी से भीतर नहीं आ सकते थे. उनके लिए दूध, दही, छाछ यहां तक कि दूध की चाय तक वर्जित थी. वे मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे, वे जनेऊ नहीं पहन सकते थे, उनके नौले अलग थे, उनके शमशान अलग थे. बहुत से होटलों में उनको चाय तक नहीं मिलती थी और यदि मिल गई तो उनको अपने गिलास खुद धोकर सूखने के लिए एक अलग जगह में रखने होते थे.ताव
अपनी एक कहानी ‘तर्पण’
में इसी छुआछूत की एक बानगी मैंने दिखाने की कोशिश की है. ईश्वर ने तो ऐसी दुनिया की कल्पना नहीं की होगी. उसने सभी को एक तरह के पंचतत्वों से बनाकर दुनियां में भेजा. उसने कोई भेदभाव नहीं किया परंतु हम इंसानों ने अपने जैसे इंसानों के साथ कितनी बर्बरता की है न?ताव
(लेखिका पूर्व संपादक/पूर्व सहायक निदेशक— सूचना एवं जन संपर्क विभाग, उ.प्र., लखनऊ. देश की विभिन्न नामचीन पत्र/पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक कहानियाँ/कवितायें प्रकाशित. कहानी संग्रह-‘पिनड्राप साइलेंस’ व ‘ट्यूलिप के फूल’, उपन्यास-‘हंसा आएगी जरूर’, कविता संग्रह-‘कसक’ प्रकाशित)