उजाड़ बाखई के हिय की पीर

  • डॉ. गिरिजा किशोर पाठक  

हिमालयी संस्कृति में बखाई का मतलब होता है पूरे मकानों की एक कतार और एक साइज. आज से लगभग दो-तीन सौ साल पहले कुमायूँ के लोग बाखलियों में ही सामूहिक रूप से रहते रहे होंगे. becauseआज के शहरी डूप्लेक्स की तरह बाखई में मकानों की एक दीवार कॉमन होती थी. शायद इससे पत्थरों की लागत भी कम रहती होगी. ऐसे घर लागत और सुरक्षा के दृष्टिकोण से सुंदर रहते होंगे. 1867 स्टीवेंसन ने भी but अपनी  बेरीनाग यात्रा मे पक्के पत्थर के घरों का उल्लेख किया हैं. एटकिनसन के हिमालयन गजेटियर 1888 में भी पत्थर के घरों और बाखई का लेख हैं. मुझे लगता है की बाखई का कन्सेप्ट कत्तूरी और चंद राजाओं के काल में ही विकसित हो गया  होगा. पत्थरों के भवनों के पुरातत्वीय प्रमाण भी मिलते ही हैं. यूं कहें कि बाखई कुमाउनी संस्कृति की आधारशिला है तो गलत नहीं होगा.

बाखई

हम भी बाखई में रहते थे. इस बाखई में करीब 10-15 परिवार रहते थे. हमारी बाखई भी शायद हमारे दादा-परदादाओं की विरासत रही होगी. कब किस पीढ़ी में इसका निर्माण हुआ होगा so इसके बारे में तो बहुत नहीं कह सकते. हाँ, इसे बनाने में सैकड़ों ओड़, because मिस्त्रियों ने काम किया होगा. उस जमाने के कई  वीर पुरुष भराड, दार, भित, पाथर दूर दराज जंगलों से लाये होंगे. तब जाकर बनी होगी ये बाखई. 1-2 पुश्त बाद इसी बाखई से परिवार वार राठ (फॅमिली हेड) बने होंगे. इन राठों से ही पहाड़ के परिवारों को जाना जाता है.

अपनी

आज से 100 साल पहले आदमी के जन्म से मृत्यु तक गाय ही सब कुछ थी. गौ धन ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कर्मकांड का आधार था. पवित्रीकरण में भी पंचगव्य, गोमूत्र, but गाय के गोबर का ही महत्व था… गोदान, कन्यादान के साथ आवश्यक परंपरा थी. बेटियाँ को गाय देने का मतलब उसकी आर्थिक समृद्धि. पूजा में भी गोदान का महत्व है.

देह

इसकी खासियत ये होती है की इसके भूतल को गोठ कहते हैं. गोठ का मतलब पालतू पशुओं के रहने की जगह.मनुष्य का मूल धन गो- धन ही होता था. आज से 100 साल पहले आदमी के जन्म से मृत्यु तक soगाय ही सब कुछ थी. गौ धन ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कर्मकांड का आधार था. पवित्रीकरण में भी पंचगव्य, गोमूत्र, गाय के गोबर का ही महत्व था… गोदान, कन्यादान के साथ आवश्यक because परंपरा थी. बेटियाँ को गाय देने का मतलब उसकी आर्थिक समृद्धि. पूजा में भी गोदान का महत्व है. मृत्यु की स्थिति में तो बैतरणी नदी बिना गाय की पूँछ पर हाथ लगाए पार हो ही नहीं सकता. खेती बिना एक जोड़ी बैल के संभव नहीं थी. अतः गोधन मानव जीवन से जुड़ा था. आदमियों की तरह गोठ में गायों की भी वंशावाली  होती थी.

के

आमा because और ईजा इनकी वंशावाली कीbecause एनसाइक्लोपीडिया हुआ करती थी. जैसे मैली की बछिया बीनी, बीनी की चनुली, चनुली की बछिया मुसी. यू ही…

साथ

इसी बाखई में हम पैदा हुए, becauseपले-बढ़े, खेले-कूदे और पढ़े-लिखे. गुल्ली डंडा, अक्कड़–बक्कड़,  पाठी, कलम, दवात, होल्डर, पेंसिल अ आ, क, ख शिक्षा-दीक्षा. गाय-भैंस, खेत-खलिहान, झोडे़-चांचरी, भगनैल,  हुडुका–दमुआ, बीन-बाजा, तुरी, जागर, घन्याली, ज्ञान-विज्ञान, पूजा-पाठ, तिथि-त्यौहार, शादी-व्याह,  और आचार-ब्यवहार के सारे कार्य और सोलह संस्कार इसी बाखयी के बुज़ुर्गों, आमा-बडबाज्यू, because ईजा-बाबू, दीदी-भुलाओं, काका-काखी, दाज्यू-बोजी से सीखे. बाखई में 1से 4 साल के बच्चों को सभालना सबसे कठिन काम होता था  ईजा और आमा के लिए. कारण घर के अंदर से पटखण (आगन) के बीच का खुटकून (सीडियाँ ). 90% पहाड़ी बखाइयों के बच्चे एक न एक बार तो खुटकून से गिरे जरूर होते हैं. भले ही इजा और आमाँ लाख जतन करें.

सरयू

इस ‘बाखई ‘ से  देश को आईएएस, आईपीएस, डांक्टर, इजिनियर, प्रोफ़ेसर दिये. कई तो अमेरिका इंग्लैण्ड…, …सेवायें दे रहे है. बड़ी ख्याति प्राप्त कर रहे हैं. becauseकोई चपरासी भी रहा तो क्या? वह भी देश की ही सेवा किया. बाखई के कई  युवाओं ने फौज में रह कर देश की सेवा की. पीड़ा बस यही रही कि बाखई लोगों का पलायन नहीं रोक पाई. लेकिन बाखई कीbecause समृति में 3-4 पीढ़ियों के वो सब लोग होंगे जो इसकी कोख में जन्म लिए, पले, बड़े और अपना देह धर्म पूरा कर अपनी देह के साथ सरयू या रामगंगा में विलीन हो गये.

विरासत

बाखई को वो लोग भी याद becauseहोंगे जो इसके आँगन में फले -फूले और एक दिन घौसले के परिंदों की तरह उड़ गये. 7वे-8वे दसक में ये उड़ान इतनी बड़ गई की पूरी की पूरी बाखई वीरान हो गई. आजादी के बाद के इन 50 सालों ने वाखाई को बहुत पीड़ा दी. बाखई becauseका माँ की तरह ममता, स्नेह, दया, करुणा, सहिष्णुता के भाव के अनदेखा कर धीरे धीरे  सारे लोग चलते बने. उजड़ जाने और खंडहर हो जाने के बावजूद उसकी कोख में आज भी सबकी स्मृतियाँ शेष हैं. उसको भी अपनी थात पर सिसोड के घाँच,तोस्यारू, दुधीला, पीनिया, किलमोड़ा, हिसालू के अनगिनत उग आए पेड़-पौधे और उनपर लगे असंख्य मकड़जाले पीड़ा देते हैं.

विरासत

बचपन की याद बाखई becauseसे कुछ यूँ जुड़ी है. जब आस- पड़ोस में कुछ गडबड़  हो , पड़ोस में  गांय बाधने, कच्चार होने, जानवरों के उज्याड खाने की घटना होती थी तो बाखयी की एक काखी, पाँख (छत) में रखे गद्दूओं के बीच खड़ी होकर यूँ चिल्ला-चिल्ला कर गरियाती थी. मेरा खेत चरा दिया –

विरासत

“तुमर कुढ़ becauseमें सिसोड जाम जौ.” / “तुमर soकुढ़ उधरि जौ.” / “तुमर butकुढ़ में कफ्फू बासि जौ.”

विरासत

हरी-भरी बाखयी थी. हम जितने becauseछोरे थे काखी के छत पर जाते ही उनकी गाली के चटकारे  लेते रहते थे. कभी-कभी काखी के ग़ुस्से का कोपभाजन भी बनते थे.

विरासत

लगभग 35 बर्षों का अंतराल. becauseकाखी चली गयी चित्रगुप्त की क़लम के साथ. आज पूरी बाखयी बंजर और वीरान है. सब कुछ खडंहर में तब्दील हो गया है.

विरासत

बाखई में स्यूड़ because के लहलहाते भूड़.
शायद कफ्फू भी कभी बास जाता होगा.

आज बाखई की सारी पीढ़ियाँ because देश- बिदेश में यश कीर्ति के साथ पुष्पित पल्लवित हैं पर बाखयी उजड़ चुकी है.

क्या

मेरा क्या दोष था? because जो तुम सब मुझे छोड़ कर चले गये? हमारे पास इसका कोई जबाब न कल था, न आज है शायद कल भी नहीं रहेगा. पहाड़ में वीरान बखाइयों के लिए जम्मेदार कौन है? हम? व्यवस्था? या बदलते जमाने के अनुसार मूलभूत जीने की सुविधाओं का  नितांत अभाव?…

विरासत

जब भी गावं जाते हैं बस because काखी की गाली के शब्द ही हमारी स्मृति के कारण आज भी इस बंजर और  वीरान बाखयी में गूँजते से  महसूस होते  हैं. चारों तरफ सीसोड़ के घाँच और बड़वा के जाल….. यहाँ तक कि 30 साल पहले लगे ताले में भी सिसोड़ उग आया है. but अपने को खंडहर हुई बाखयी के सामने खड़े होने पर कुछ बौनेपन का अहसास कराते हैं ये सब.  कुछ आत्मग्लानि भी हाती है. सब कुछ टूट चुका है बस तीन दसक पहले दरवाजे पर लटका ताला एकदम सजग है सीमांत प्रहरी की तरह. ताले को क्या मालूम की उसके भीतर सब खंडित हो चुका है. अवशेष हो गए हम सबकी पाठी, कमेट, कलम-दवात, टूटे-फूटे वर्तन; भकार, भट्टी पकाने वाला  भयद्याव, तांबे की तौली, एक आद गागर, नायी–माड़, गायों के गोठ में बाधने के किल.

विरासत

उत्तराखंड पलायन so आयोग की मानें तो ये अकेले इस बाखई का दर्द नहीं है. यहाँ तेरी तरह हजारों बखाइयाँ पूरी तरह खाली हो चुकी हैं. पलायन आयोग की मानें तो 400 से अधिक गांव ऐसे हैं, जहां 10 से भी कम नागरिक हैं.  3.5 लाख से अधिक वीरान पड़े घर तेरे साथी हैं.

विरासत

कभी-कभी लगता है जैसे बाखई प्रश्न कर रही हो? मेरा क्या दोष था? जो तुम सब मुझे छोड़ कर चले गये? हमारे पास इसका कोई जबाब न कल था, न आज है शायद कल भी नहीं because रहेगा. पहाड़ में वीरान बखाइयों के लिए जम्मेदार कौन है? हम? व्यवस्था? या बदलते जमाने के अनुसार मूलभूत जीने की सुविधाओं का  नितांत अभाव?… उत्तराखंड पलायन आयोग की मानें तो ये अकेले इस बाखई का दर्द नहीं है. because यहाँ तेरी तरह हजारों बखाइयाँ पूरी तरह खाली हो चुकी हैं. पलायन आयोग की मानें तो 400 से अधिक गांव ऐसे हैं, जहां 10 से भी कम नागरिक हैं.  3.5 लाख से अधिक वीरान पड़े घर तेरे साथी हैं.

विरासत

शायद उत्तराखंड की हज़ारों because बाखईयां बीरानी का दंश झेल रही हैं .उनके मन में ये टीस जरूर होगी कि सैकड़ों साल बीते लेकिन आजाद भारत के इन 73 वर्षों में उसने पलायन का जो तांडव झेला है वह हिमालय की देह पर पीड़ा देने वाला सबसे बड़ा घाव हैं. सबके यही प्रश्न होंगे. जबाब देने वाले सारे निरुत्तर हैं. दिन पर दिन वीरान हो रही बाखयियों की पीड़ा पर सत्ता को मौन तो एक दिन तोड़ना ही पड़ेगा. जितनी जल्दी तोड़ ले उतना उत्तराखंड के हित में होगा.

विरासत

जो भी हो, becauseबाखयी के सामने खड़े होने पर कानों में शब्द यूँ गूँजते हैं –
तुझे घुटनों के बलso चलना मैने सिखाया.
जब क़दम चलने लगे but तुम मुझे ही छोड़ चले…

सच तो ये है बाखई! हम तेरे ऋणी हैं. तेरे आँचल की छाँव तले हमने घुटनों के बल चलना सीखा है. भला हम तुझे कैसे भूल सकते हैं . हमारी साँसों में तुम्हारी माटी की महक है.because मनसा वाचा कर्मणा हम सोचेंगे कि फिर तेरा आंगन चहके. हम अगर सफल नहीं हुए, चूक गये तो आने वाली पीढ़ियों में कोई न कोई तो जरूर सोचेगा और सफल होगा. हिमालय जियेगा वीरान बखाइयाँ फिर आवाद होंगी. बाखई! तेरे हजारों कर्जदार हैं वे कहीं भी रह रहे हों तेरे प्रति उनका प्रेम अतुल्य है वैसे ही जैसे तेरा उनके प्रति.

(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी रहे हैं)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *