मेरे बगीचे के फूल

  • सुनीता भट्ट पैन्यूली

मानसून के पदचापों की आमद हर because तरफ़ सुनाई दे रही है. पेड़ों के अपनी जड़ों से विलगित होने का शोर शायद ही मानवता को सुनाई दे किंतु इस वर्षाकाल में कोरोना का हाहाकार और मानवता के उखड़ने और उजड़कर गिरने का शोर हर रोज़ कर्णों को भेद रहा है.

मानसून

इस कोरोना के वर्षाकाल में so मानव को वेंटिलेटर की दरकार है कृत्रिम  प्राण वायु मनुष्य के लिए आज कितना अपरिहार्य है इस कोरोनाकाल में हमें महसूस हो रहा है किंतु प्राकृतिक प्राण वायु जो अदृश्य रुप में हमें मिल रही है उसका ज़िक्र कहीं हमारे मानस-पटल पर धुंधलाता जा रहा है. आज उत्तराखंड में हरेला दिवस मनाया जा रहा है उल्लास कम है कोरोना की वजह से किंतु पौधे रोपे ही जायेंगे कुछ प्राचीन पुरोधाओं की स्मृतियों में कुछ उपेक्षित नदियों के तटों पर, स्कूल, बगीचों अपने घरों में श्रलाघनीय है यह और सार्थक भी.

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किंतु पर्यावरण बचाओ की इस मुहिमbut में कहीं कुछ ऐसा है जो नज़र नहीं आ रहा या नज़र अंदाज़ किया जा रहा है, दरक रहा, छुटा जा रहा अपनी सभ्यताओं से, अपनी पौराणिक मान्यताओं से अपने विषालकाय वज़ूद से, पुराने चौक-बाज़ारों में अपनी उपस्थिती की रौनकों से.

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जड़ें मिट्टी छोड़ रही हैं संस्कृति स्वयं में संकुचित हो रही हैं मानव और पेड़ उखड़ रहे हैं,उजड़ रहे हैं क्योंकि मानव ने अपने प्राण दाता अपने पुज्यनीय अपने वृद्ध वृक्ष जो हमारी सभ्यताओं because और संस्कृति के संवाहक पौराणिक कथाओं के वाचक, पंछी जीव-जंतु को प्रश्रय देने हेतु हमेशा अपनी शाखायें फैलाये मौन खड़े हैं उनको ही अपने विकास की सीढ़ी में अवरोध मान लिया है.

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उखड़ना और उजड़ना एक प्रारंभिक soअंत है मानव और पेड़ के अस्तित्व का ये अंत की सीमाओं की ओर प्रवृत्त  होते ही रहेंगे जब तक जड़ों के उस कटाव ,मिट्टी के क्षरण को मानव अपने बुद्धिमता पूर्ण प्रयासों से नहीं रोकेगा.

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इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है but मानवता को प्राणवायु देने वाला ही उसके प्राण लेने पर आमादा है. कितना विचित्र है न? अपने जीवन में कभी एक पौधे नहीं रोपने वाले को टनों लकड़ियों की आवश्यकता होती है. वृद्ध जर्ज़र पेड़ हमारे गौरव का प्रतीक हैं जो थोड़ी बहुत संस्कृतियों की गंध हमारे भीतर रची-बसी भी है यही वयोवृद्ध इसके संवाहक हैं.

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विकास की अंधी-दौड़ से अकुलाये उम्र के इस ढलान पर इन पेड़ों का उखड़ना हम सभी के सरोकार का विषय है हमें इनकी दुखती धमनियों में नव चेतना का प्रसार करना होगा.but हमें अहसास भी नहीं अपने विज्ञापन अपने फायदे के लिए हम आये दिन इनकी शाखाओं को लहुलुहान कर  कितने अनगिनत नश्तर चुभोते हैं  हम इनके हृदयस्थल पर.

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वृक्ष हमारी तरह छिछले नहीं हैं शोर नहीं मचाते हैं अपने so और मानवीय ज़िम्मेदारियों के वहन का, निरपेक्ष हमें आक्सीजन देते रहते हैं और बदले में हम पेड़ों को शहरों के सौंदर्यकरण के लिए पेड़ों का सीमेंटीकरण,सड़कों को बनाने में बाधक पेड़ों की जड़ों की अनियंत्रित कांट-छांट, उनकी शाखाओं को काटकर पंछियों को उनके घोंसलों उनके भोजन से वंचित कर देते हैं.

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किंतु विकास की अंधी-दौड़ से अकुलाये उम्र के इस ढलान पर इन पेड़ों का उखड़ना हम सभी के सरोकार का because विषय है हमें इनकी दुखती धमनियों में नव चेतना का प्रसार करना होगा.हमें अहसास भी नहीं अपने विज्ञापन अपने फायदे के लिए हम आये दिन इनकी शाखाओं को लहुलुहान कर  कितने अनगिनत नश्तर चुभोते हैं  हम इनके हृदयस्थल पर.

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हरेला पर अनेक संस्थायें आज वृक्षारोपण but कर रही हैं उनमें से कुछ संस्थायें अगर जर्ज़र व उजड़ने की कगार पर खड़े वृक्षों को पुनः प्रत्यारोपित कर उनकी मलहम-पट्टी कर उन्हें दुरूस्त करने का ज़िम्मा अगर लेती हैं तो पर्यावरण व पारिस्थितिकी के प्रति यह सार्थक , फायदेमंद व सराहनीय पहल भी होगी.

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क्यों नहीं हम उजड़े हुए धराशायी पेड़ों की जगह नव पल्लवित पौधा लगायें. पेड़ों की जड़ों का सीमेंटीकरण हटाकर उन्हें उनके मूल स्वरुप में फलने फूलने दें. पेड़ों के इर्द-गिर्द जल जमाव को so हटाकर रूग्ण ग्रसित पौधों पर दवाई छिड़कर उन्हें पूर्ववत हष्ट-पुष्ट बनायें तब तक उन पर आरी न चलायें जब तक वह किसी जीव की मृत्यु के संकट का कारक न बनें और अगर काटना ही पड़े तो हमें उन बौद्ध लोगों के समूह की तरह ही पेड़ से क्षमा याचना करनी चाहिए जिन्होंने अमेरिका में पेड़ों के अस्तित्व से कालोनी में आये लोगों पर संकट के कारण उनके कटान से पहले पेड़ों के नाम चिट्ठी लेकर क्षमा याचना की.

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इसी अपेक्षा और दरक़ार के साथ आओ because हम सभी मिलकर पर्यावरण की रक्षा के लिए एक सजग व उन्नतशील प्रयास करें.

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(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)

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