- डॉ. गिरिजा किशोर पाठक
इतिहास का अवलोकन किया जाये तो देखने को मिलेगा कि कई शहर, गाँव, कस्बे कालखंड विशेष में बसते और उजड़ते रहते हैं. कई सभ्यतायें और संस्कृतियाँ इतिहास का पन्ना बन कर रह जाती हैं. मोसोपोटामियां, सिंधु घाटी से लेकर कई सभ्यतायें आज पुरातात्विक अनुसंधान के विषय हैं. हाँ, यह सच है कि शहरों के उजड़ने और बसने के कई कारण होते हैं. उत्तराखंड के संदर्भ में बात की जाय तो बड़े चौकाने वाले तथ्य सामने आते हैं. ब्रिटिश इंडिया में जो गाँव शत-प्रतिशत आवाद थे आजादी के सात दशकों बाद आज ये वीरान और बंजर हो गए हैं. जबकि ब्रिटिश भारत का विकास व्यापारिक हितों से प्रभावित था उसमें लोक कल्याणकारी राज्य का कोई दृष्टिकोण निहित नहीं था. सन 1947 के बाद तो एक लोकतान्त्रिक, लोक कल्याणकारी और समाजवादी सरकार ने काम करना शुरू किया. फिर इतना पलायन क्यों? यह पलायन पूरे हिमालय और पूरी सीमाओं के लिए गंभीर चिंता का विषय है.
चंद शासकों के समय में यहाँ के लोगों का मुख्य धंधा खेती और पशु पालन था. यही क्रम गोर्खा और अंग्रेजों के काल में भी चलता रहा. उस दौर में जमीन और पशुधन जीवनयापन के मुख्य साधन थे. सरकार की आमदनी भी भू स्वामियों से होती थी. कत्यूरी और चंद राजाओं की तरह गोरखे और ईस्ट इंडिया कंपनी की मुख्य आमदनी का श्रोत भी रकम या मालगुजारी थी. बेरीनाग के पास पुंगराओं पट्टी में पाठकों की 10-12 गाँवों में बसाहट है. पाठक यहाँ कत्यूरी राजाओं द्वारा बसाये गए या चंद राजाओं द्वारा इस पर अनेक किवदंतियाँ यहाँ चलतीं हैं. दशौली के पाठकों को खेती-बाड़ी और गाय-भैस चराने यानि गौचर-पनघट के लिए कालांतर में गाँव की जगह कम पड़ने लगी होगी. इस कारण उस समय के कई सक्षम परिवार पुंगराओं और दानपुर पट्टी के डोणौ, लछीमा, ओखरानी, कसाड़ी, कनोली, सुजागौ, कफलेत, घांजरी आदि अनेक गांवों मे महरों, कार्कियों और कोश्यारियों से जमीन खरीद कर रहने लगे. शायद पहले इन गांवों का उपयोग पाठक लोग अल्पकाल के लिए पशुओं को चराने और मौसमी खेती-बाड़ी (झुमिंग एग्रिकल्चर) के लिए करते थे. कुछ भूमि तलाउ और उपजाऊ होने के कारण भी खरीदी गई होगी. कालांतर में ये लोग उन्हीं गांवों में स्थायी रूप से बस गए. मूल गाँव की खेती आते- जाते करने लगे.
उन्नीसवी सदी के पूर्वार्ध के सोर, दानपुर, गंगोली, सारा, काली कुमौ, क्त्त्यूर, पुंगराओं के गाँव के लोगों ने काशी, लाहौर, प्रयाग, हरिद्वार भेज कर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. उत्तराखंड में उपनयन संस्कार में बच्चे को शिक्षा हेतु काशी भेजने के कर्म रहता है. आज यह औपचारिक है तब ये व्यौहारिक था. विषम परिस्थितियों के होते हुये भी 20वी सदी के सातवें-आठवें दसक में गाँव की शिक्षा 70% से अधिक रही होगी.
सन 1860-70 के आसपास का समय रहा होगा. इसी क्रम 3 पाठक परिवारों ने मिलकर गाँव भदीना, पट्टी दानपुर, महरगाड़ी के कोश्यारियों से 100 नाली जमीन 300 रुपए में खरीदी. ये तीन थे स्वर्गीय किसनानन्द, स्वर्गीय रामदत्त और स्वर्गीय धरमानन्द. कहते हैं कि इन तीनों कि सघन मित्रता थी. इसलिए तीनों ने मिल कर एक नया गाँव खरीद लिया. यह गाँव चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा होने यानी भद्याव (लोहे की कड़ाई) सा होने के कारण शायद इसका नाम कोश्यारियों ने भदीना रखा होगा. चारों तरफ घनघोर जंगल और मध्य क्षेत्र खेतीबाड़ी के लिए उपयुक्त जमीन. इससे बेहतर बिकल्प की तलाश में उस समय के लोग रहते भी नहीं होंगे. कुमाऊ में सन 1790 के क्रूर गोर्खा राज के बाद सन 1814-15 में कंपनी बहादुर (ईस्ट इंडिया कंपनी) का राज आ गया. अंग्रेजों ने भी दानपूर, जोहार, सोर, सोरा, काली कुमौ, गंगोली, कत्यूर में प्राइमरी शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया. भौगोलिक रूप से विस्तृत और दुर्गम इन क्षेत्रों में प्राइमरी पाठशालाएं भी बहुत कम खुलीं .रामजे म्योर 46 साल कुमायूँ का कमिश्नर और अन्य पदों पर रहा. उसे दरवारी कुम्मोये ‘कुमायूँ का राजा’ कहते थे. उसके काल में भी शिक्षा के विकास की गति अति न्यून रही. इसके पूर्व चंद राजाओं ने शिक्षा के लिए बहुत कुछ किया भी नहीं था. गोरखे तो इस्लामिक लुटेरों कि तरह आक्रांता थे. वे तो परिवार के सदस्यों पर भी कर लेते थे सो शिक्षा की उनसे किसी को उम्मीद भी न थी.
उन्नीसवी सदी के पूर्वार्ध के सोर, दानपुर, गंगोली, सारा, काली कुमौ, क्त्त्यूर, पुंगराओं के गाँव के लोगों ने काशी, लाहौर, प्रयाग, हरिद्वार भेज कर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. उत्तराखंड में उपनयन संस्कार में बच्चे को शिक्षा हेतु काशी भेजने के कर्म रहता है. आज यह औपचारिक है तब ये व्यौहारिक था. विषम परिस्थितियों के होते हुये भी 20वी सदी के सातवें-आठवें दसक में गाँव की शिक्षा 70% से अधिक रही होगी. बेचारे बच्चों ने पढ़ाई भी पलायन का शिकार बन कर की. बचपन में जब 2-3 कक्षा में दूर दराज के स्कूलों में डेरा करके हम पढ़ते थे तो मन करता था कि कास! हमारे गाँव में भी स्कूल होता तो हम भी माँ के पास रहते घर से स्कूल जाते. हमारी हसरतें धरी रह गईं. लेकिन जैसे-तैसे अपने पुरुषार्थ से सब पढ ही लिए, वह भी अब्बल.
ब्रिटिश कल में गाँव के स्वर्गीय चूढामणी पाठक ने अपने पुत्र स्वर्गीय प्रोफ बुद्धिबल्लभ पाठक को अध्ययन के लिए काशी भेजा जो सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविध्यालय मे प्रोफेसर रहे. दूसरे पुत्र श्री हरिदत्त पाठक को सनातन धर्म कालेज लाहौर भेजा जो अध्ययन कर अध्यापन क्षेत्र में कुमाऊ में ही रहे, इस परिवार से डॉ ललित पाठक, नॉर्थ हिल यूनिवरसिटी में प्रोफ़ेसर रहे.
ब्रिटिश कल में गाँव के स्वर्गीय चूढामणी पाठक ने अपने पुत्र स्वर्गीय प्रोफ बुद्धिबल्लभ पाठक को अध्ययन के लिए काशी भेजा जो सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविध्यालय मे प्रोफेसर रहे. दूसरे पुत्र श्री हरिदत्त पाठक को सनातन धर्म कालेज लाहौर भेजा जो अध्ययन कर अध्यापन क्षेत्र में कुमाऊ में ही रहे, इस परिवार से डॉ ललित पाठक, नॉर्थ हिल यूनिवरसिटी में प्रोफ़ेसर रहे. श्री विहारी दत्त, आल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में बड़े ओहदे पर रहे. इन सबके बच्चे ज़्यादातर विदेशों में हैं. श्री हरिदत्त के बड़े पुत्र डॉ भुवन पाठक उत्तराखंड में स्वास्थ निदेशक के समकक्ष पद से रिटायर एक बेहतरीन नेत्र चिकित्सक हैं बेटिया अमेरिका में गूगल में भारत का नाम रोशन कर रही है. छोटे डॉ गिरिजा किशोर भारतीय पुलिस सेवा में रहे.
स्वर्गीय घनानन्द जी की तीसरी पीढ़ी के सभी लोग घांजरी गाँव में सिफ्ट हो गये हैं. स्वर्गीय बाली दत्त आद्यपक रहे. जमुनादत्त फौज से रिटायर होकर व्यापार किए. स्वर्गीय रामदत्त की बची-खुची चौथी पीढ़ी ग्राम डोणौ में रहती है. इसमें बड़े भाई स्वर्गीय लक्ष्मी दत्त जी के कुछ पौत्र यहा रहते हैं. छोटे भाई स्वर्गीय चूढामणी पाठक की अगली पीढ़ी पूरी निर्वासित हो गयी है. स्वर्गीय किसनानन्द की चौथी पीढ़ी के कुछ लोग या तो ठुलखोला रह रहे हैं या हल्द्वानी सिफ्ट हो गये हैं.
स्वर्गीय ईश्वरी दत्त जी के प्रथम पुत्र श्री रमेश पाठक इसी गाँव से संघर्ष कर भारतीय प्रशासनिक सेवा में गए. उनके तीसरे पुत्र श्री महेश पाठक ने अखिल भारतीय स्तर का क्रिस्टल बैंक और संस्थान चलाया नाम भी कमाया. लेकिन क्या गफलत रही राम जाने. कहते हैं सहयोगियों की लपरवाई के कारण बैंक उनको बंद करना पड़ा. अभी अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं. उनके संघर्ष और हौशले की तारीफ करनी चाहिए. स्वर्गीय चिंतामणी के पुत्र उमेश ने भी संघर्ष कर अपने परिवार को अच्छी पोजीसन में पहुंचाया है.
ग्राम भदीना के स्वर्गीय किसनानन्द, स्वर्गीय रामदत्त और स्वर्गीय धरमानन्द की पाँचवी पीढ़ी के कई बच्चे आईआईटीयन हैं और अन्य इंगिनियरिंग सेवाओं में हैं. कई बेहतर चिकित्सक हैं. प्रबन्धक हैं और शिक्षक हैं. ये सब भारत और विदेशों में अपनी यश पताका फहरा रहे हैं. उत्तराखंड और अपने गाँव का नाम रोशन कर रहे हैं.
आज पाठकों के मात्र 2 परिवार स्वर्गीय रामदत्त जी की चौथी पीढी के दो भाई श्री मोहन पाठक और जगदीश पाठक वहाँ वर्तमान में निवासरत हैं. शेष स्वर्गीय किसनानन्द और स्वर्गीय धरमानन्द के वंशज कोई वहाँ नहीं रहते हैं. सन 1972-73 में इस गाँव में लगभग 27 घर थे. लगभग आते-जाते परिवारों की 150 की आवादी रही होगी. 2020 में 2-4 घर हैं जिनमें मुश्किल से 10 लोग रहते होंगे. कदाचिद 5वीं पीढ़ी में यहाँ कोई न मिले.
गाँव के बीच में माँ सिनन्दा का मंदिर है गाँव के एक सेवानिवृत फौजी जानकी बल्लभ पाठक ने मंदिर को खूब अच्छा बनाया है. बस कुछ पलायित लोग साल-दो साल में मंदिर में दिया-बाती और पुजा करने गाँव आ जाते हैं. यहाँ अपने बचपन की स्मृतियों को ताजा कर भीगी पलकें के साथ माँ से पुनः बुलाने का आशीर्वाद माँग कर लौट जाते हैं, अपने अपने ठिकाने.
इस तरह 4 पीढ़ी पहले खरीदा गया यह गाँव आज लगभग बंजर है. प्रश्न मन को कचोटता है, ऐसा क्यों? सारी बाखई निर्जन हैं और गाँव सन्नाटे में. जब एक गाँव उजड़ता है तो उसके साथ गाँव की सभ्यता–संस्कृति भी उजड़ जाती हैं. जीव-जन्तु, फ्लोरा–फोना, पशु-पक्षी भी या तो विलुप्त हो जाते हैं या वे भी अपना नयाँ बसेरा खोज लेते हैं.
1962 में भारत चीन युद्ध के बाद मुनस्यारी का 5000 की आबादी वाला सीमांत गाँव मिलम बंजर हो गया आज वह आइटीवीपी का कैंप मात्र रह गया है. 2 साल पहले मैं राजस्थान के कुलधारा गाँव गया था जो किन्हीं कारणों से पालीवाल ब्राह्मणों के गाँव छोड़ने के कारण बीरान है. सरकार ने उसे होंटेड विलेज यानी भुतहा गाँव कह कर सुरक्षित किया है. पर्यटकों को भुतहा गाँव दिखा कर राजस्थान सरकार अच्छा पैसा कमा रही है.
कई साल तक घुघुती, घिनौड़ों, सुओं के झुंड धान, गेहूं, घोघे, कूणी और मादिरा की बालियों को खोजते-खोजते खेतों में आती-जाती होंगी. शायद निराश होकर लौट गयी होंगी. लंगूरों को भी बंजर गाँव में कहाँ आड़ू, पोलम, नारंगी, चूक, मड़ुवे की बालियाँ खाने को मिली होंगी. ये भी धीरे-धीरे अपना नया आशियाना खोज लिए होंगे.
1962 में भारत चीन युद्ध के बाद मुनस्यारी का 5000 की आबादी वाला सीमांत गाँव मिलम बंजर हो गया आज वह आइटीवीपी का कैंप मात्र रह गया है. 2 साल पहले मैं राजस्थान के कुलधारा गाँव गया था जो किन्हीं कारणों से पालीवाल ब्राह्मणों के गाँव छोड़ने के कारण बीरान है. सरकार ने उसे होंटेड विलेज यानी भुतहा गाँव कह कर सुरक्षित किया है. पर्यटकों को भुतहा गाँव दिखा कर राजस्थान सरकार अच्छा पैसा कमा रही है. आंकड़ों की मानें तो उत्तराखंड में तो लाखों होंटेड विलेज हो गए हैं इनका क्या होगा.
73 साल बाद के सवाल: सवाल ये उठता है पूरा गाँव वीरान और बंजर क्यों हो गया? पलायन क्यों? क्या कोई अपना गाँव छोड़ना चाहता है? शायद उत्तर होगा व्यक्तित्व के विकास के बेहतर अवसरों की तलाश की मानवीय आवश्यकता. यही राज्य का प्रमुख उत्तरदायित्व है. सन 1947 के बाद गाँव से 5 किलोमीटर पर 1 प्राइमरी स्कूल बना ग्राम नामतीचेटाबगड़ में. 2020 तक आज भी एकमात्र प्राइमरी वही है. इस स्कूल जाने के लिए 2 बड़ी नदियों को पार करना पड़ता है. जिसमे पुल नहीं थे लठ रख कर नदी पार करना पड़ता था. जो जान जोखिम से कम नहीं था. आज गाँव से मोटर सड़क की दूरी चेटाबगड़ यानी 5 किलोमीटर पैदल है. पहले 15 किलोमीटर दूर नाचनी सड़क थी. यहाँ यह उल्लेल्ख करना आवश्यक है कि भदीना पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखंड और वर्तमान गवर्नर महाराष्ट्र श्री भगतसिंह कोश्यारी जी के गाँव नामतीचेटाबगड़ से 5 किलोमीटर कि दूरी पर है. उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद चेटाबगड़ तक सड़क बन गयी.
पहले अस्पताल भी नाचनी यानि 15 किलोमीटर था. अभी पता लगा की क्वेटी गाँव में एक अस्पताल खुला है. लेकिन भदीना सड़क, अस्पताल, स्कूल सबकी बाट जोहता रहा और युवा भारत के साये में वीरान और बंजर हो गया.
उत्तराखंड सरकार के अर्थ एवं सांख्यिकी विभाग द्वारा हाल ही में जारी सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जब से नए राज्य का गठन हुआ है तब से लेकर उत्तराखंड के 2 लाख 80 हजार 615 मकानों पर ताले लग चुके हैं. पलायन आयोग की अद्यतन रिपोर्ट के अनुसार 6338 ग्राम पंचायतों में 3 लाख 83 हजार 726 लोगों ने किया पलायन किया है. पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 50% लोग रोजगार के लिए पलायन कर रहे है.
मेरे गाँव में एक प्रगति जरूर हुई है. जब गाँव आबाद था पानी घड़े में भरकर 2 किलोमीटर दूर से लाना पड़ता था. बचपन में स्कूल की छुट्टियों में हमारा मुख्य काम होता था जल व्यवस्था और रात्री की प्रकाश व्यवस्था. लंफू, लाल्टीन का जलाना राशन की दुकान में मिट्टीतेल कि उपलब्धता पर निर्भर था. छिलुक (चीड़ की लकड़ी का विशेष भाग) मिट्टी तेल का सहज विकल्प था. आज गाँव में पानी नल-जल योजना से पहुंच गया है और बिजली भी पहुँच गयी है. लेकिन यह सब तब हुआ जब गाँव वीरान और बंजर हो गया. शायद विकास की यही व्यथा है – “ जब मैं था तब हरि नहीं जब हरि हैं मैं नाहि, …” .
उत्तराखंड सरकार के अर्थ एवं सांख्यिकी विभाग द्वारा हाल ही में जारी सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जब से नए राज्य का गठन हुआ है तब से लेकर उत्तराखंड के 2 लाख 80 हजार 615 मकानों पर ताले लग चुके हैं. पलायन आयोग की अद्यतन रिपोर्ट के अनुसार 6338 ग्राम पंचायतों में 3 लाख 83 हजार 726 लोगों ने किया पलायन किया है. पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 50% लोग रोजगार के लिए पलायन कर रहे है. पहले लोग सेवानिवृति के बाद गाँव में ही घर बनाते थे. आज रिटायर्ड फौजी भी भाभर में ही घर बना ले रहा है. कारण उसको भी अपने और अपने परिवार के स्वास्थ का ध्यान रखना अनिवार्य है. पहाड़ के दूर -दराज अंचलों में पहले तो हॉस्पिटल ही नहीं हैं अगर हैं तो डाक्टर नहीं. यद्यपि पलायन आयोग मात्र 8% पलायन इलाज/स्वास्थ के कारणों को मानता है लेकिन यह सही नहीं प्रतीत होता है. उत्तराखंड को हिमांचल के मोडेल को अपनाना चाहिए. हिमाचल से गाँवों से पलायन न होने की एक बड़ी वजह शिमला उसकी राजधानी होना है और पहाड़ की सोच एवं योजना पहाड़ से तैयार होना भी महत्वपूर्ण है. जब तक विकास की सोच देहरादून या हल्द्वानी की घाटियों में उलझी रहेगी तब तक पलायन का अंत मुश्किल है. आज की राजनीति कल का इतिहास बनेगी. इसलिए आज हम गाँवों को बंजर होने देंगे तो कल आने वाली पीढ़ी को क्या मुँह दिखायेंगे. आजाद भारत का इतिहास हमारे बारे में क्या लिखेगा. इस बिन्दु पर उत्तराखण्ड के राजनीतिक निर्णायकों और नौकरशाहों को बिचार करना ही चाहिए. उत्तराखंड राज्य गठन सन 1999 के बाद 2 लाख 80 हजार 615 मकानों पर ताले लटकने के बाद भी हम नहीं जागे तो कब चेतंगे. पलायन आयोग कहता है 50 % युवा नौकरी पेशे के लिए पलायन कर रहे हैं. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने पिथौरागड़ में एक चुनावी रैली को संबोधित हुए कहा था कि ‘पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी’ वहाँ के काम नहीं आता है. इस मिथक को तोड़ना होगा. यूरोप में तो कई पहाड़ी राष्ट्र हैं, जो उच्च रूप से विकसित हैं. उत्तराखंड में भी स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे रोजगारपरक उधोग खुलें तो दस हजार की नौकरी के लिए युवा मुंबई, पुणे, बंगलौर क्यों जाएगा. वैसे भी नौकरी पेशे के लिए लोग कहीं भी जाए अपने घर लौटें और गाँव आवाद रहें. बस यही तो चाहिए. यह तभी संभव होगा जब गाँव में शिक्षा, स्वास्थ, सुरक्षा, सड़क, परिवहन की सुविधा गुणवत्ता के साथ सरकार उपलब्ध करा पाये . अच्छी गुणवत्ता की 4 लाइन से हल्द्वानी, कोटद्वार देहरादून को मुन्श्यारी, सामा, धारचूला, ग्वालदम तथा सुदूर अंचलों से जोड़ा जाय तो परिवहन सुगम होगा. सरकार को छोटे-छोटे उद्धोग लगाने के लिए स्थानीय युवकों को प्रोत्साहित करना होगा. इनके उत्पादन को बाजार उपलब्द करना होगा. महज पर्यटन विकास के झुनझुने से तो ये चाय, भोजन, आवास व्यवस्था तक ही रोजगार सीमित रह जाएगा. अपने गाँव से हम भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से जुड़े होते हैं. उसकी माटी की महक हमारी साँसों में बसती है. उसका अनाज उसके फल -फूल हमारी कोशिकाओं में रक्त बन कर प्रवाहित होते हैं. उसका होंटेड होना हम कैसे सुन सकते हैं. हो सकता है अगली पीढ़ी उसे भूल जाय पर हम नहीं भूल सकते. मुद्दे की बात तो ये है कि उत्तराखंड की राजधानी हिमालय में पहुचे और विकास सुदूर हिमालय के गांवों तक पहुंचे तो निःसन्देह बीरान गाँव फिर चहचहाँने लगंगे. मेरा विश्वास है लोग फिर लौटेंगे अपने गाँव.
(लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेश, भोपाल रहे हैं)