शम्भूदत्त सती का कविता संग्रह, ‘जब सांझ ढले’, हिंदी अकादमी, 2005
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
कुमाउनी साहित्य के रचनाकार शम्भूदत्त सती जी के उपन्यास ‘ओ इजा’ की पिछले लेखों में चर्चा की जा चुकी है. इस लेख में उनके कविता संग्रह ‘जब सांझ ढले’ की चर्चा की जा रही है. उनका यह कविता संग्रह सन् 2005 में हिंदी अकादमी,दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. शम्भूदत्त सती जी ने पिछले दशकों से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक कुमाउनी आंचलिक साहित्यकार के रूप में अपनी एक खास पहचान बनाई है.सती जी पहाड़ की माटी से जुड़े एक कुशल लेखक ही नहीं बल्कि उत्कृष्ट कोटि के अनुवादक, धारावाहिक फ़िल्मों के लेखक और पहाड़ की लुप्त होती सांस्कृतिक शब्द सम्पदा और परम्परागत धरोहर के संरक्षक गीतकार भी रहे हैं. उनका ‘ओ इजा’ उपन्यास कुमाउनी साहित्य और लोकसंस्कृति के सन्दर्भ में लिखी गई महत्त्वपूर्ण कृति है,जिसमें पहाड़ की महिलाओं के साथ पुरुष प्रधान समाज के द्वारा किए गए उत्पीड़न का कारुणिक स्वर ‘ओ इजा’ के रूप में स्थान स्थान पर मुखरित हुआ है.
विश्व की कुछ जानी मानी काव्य कृतियों के लेखकों का इतिहास बताता है कि जीवन की कठोर परिस्थितियों से जूझने के बाद ही उनकी रचनाओं में संवेदनशीलता की धार आ पाई है. रामकथा के लेखक आदिकवि वाल्मीकि हों, या गोस्वामी तुलसीदास, अथवा महाकवि कालिदास, साहित्य सर्जक बनने से पहले उन्हें जीवन की कठोर परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना स्वयंं करना पड़ा था और उसके बाद ही वे महान साहित्यकार बन कर उभरे. उत्तराखंड के जाने माने कवि सुमित्रानंदन पन्त ने ठीक ही कहा है-
“वियोगी होगा पहला कवि,
आह से उपजा होगा गान.
निकल कर नयनों से चुपचाप,
बही होगी कविता अनजान..”
लेखक शम्भूदत्त सती का रचना संसार भी कुछ इसी तरह के संयोग वियोग की अनुभूतियों से अनुप्राणित है.पहाड़ के विरह बिछोह की स्मृतियों और जीवन के संघर्षों ने उनकी रचनाधर्मिता को विशेष प्रभावित किया है. या यों कहें कि दुर्गम पहाड़ के कष्टपूर्ण अनुभव और रंग-रंगीली प्रकृति के साथ संयोग वियोग के मीठे कड़वे क्षण ही उनकी साहित्य साधना के स्वर भी बन गए हैं,जैसा कि उनके ‘जब सांझा ढले’ की इस नन्हीं सी कविता ‘मेरा गांव’ से ध्वनित होता है-
“शैल शिखर हिमाच्छादित वन उपवन,
घाटियां गहरी पहाड़ियां ऊंची हवाएं,
हिमानी उड़ान दिन रात सांझ सवेरा,
तपती दुपहरी,चहकते गीत,झमकते झोड़े,
थाप हुड़के पर,कसक करुणा पीड़ा,
उद्रेक भावनाएं,अभावमय जीवन,
विरह व्यथा,लोकमानस बुनता सपने,
सागर सी अनुभूतियां,चुनता बुनता
शब्दजाल मेरा गांव”
कुमाऊं के सुधिजन साहित्यकार शम्भूदत्त सती की रचनाधर्मिता से प्रायः कम ही परिचित हैं. किन्तु पिछले तीन दशकों से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक आंचलिक कुमाउनी साहित्यकार के रूप में सती जी ने अपनी एक खास पहचान बनाई है. सती जी साहित्य की सभी विधाओं में लिखते रहे हैं.कविता,कहानी,उपन्यास, निबंध, नाटक और यहां तक की रेखाचित्र विधाओं में भी.पिछले 27 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं.इनकी सभी कृतियों में पहाड़ के भोगे हुए संघर्षपूर्ण जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है. वहां की लोक संस्कृति, पर्व-उत्सव, लोकगीत, ग्रामीण जीवन, विवाह गीत, झाड़- फूंक के मंत्र,और कुमाउनी शब्द सम्पदा आदि का वर्णन उनके उपन्यास ‘ओ इजा’ में अत्यंत रोचक, मनोहारी और कारुणिक शैली में किया गया है.सती जी ने अपनी दो कृतियों के अलावा अनेक कुमाउनी कविताओं का हिंदी में अनुवाद कर भाषा सेतु बंधन को भी मजबूती प्रदान की है.उनकी ये रचनाएं देश की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. ‘रंगायन’ पत्रिका में एक लंबे समय तक सती जी द्वारा कुमाउनी गीतों का हिंदी अनुवाद लगातार छपता रहा. टेलीविजन और फिल्मी धारावाहिक लेखक के रूप में भी उन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है. वर्त्तमान में वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं.
पहाड़ के एक गरीब और साधनहीन परिवार में जन्मे शम्भूदत्त सती ने अपने बचपन में कभी ग्वाला बनकर, कभी सीढ़ीनुमा खेतों में हल जोतकर,कभी जागरियां गाकर तो कभी रामलीलाओं में अभिनय कर के पहाड़ का जो कष्टपूर्ण और रंग रंगीला जीवन जिया है,उन सब की खट्टी-मीठी तमाम यादें उनके इस कविता संग्रह में रची बसी हुई हैं.
‘जब सांझ ढले’ कविता संग्रह
शम्भूदत्त सती जी का ‘जब सांझ ढले’ कविता संग्रह चार खंडों में विभाजित है.पहले खंड में ‘तुम्हारे लिए’ शीर्षक से प्रेम से सम्बंधित कविताएं हैं.इस कविता संग्रह की पहली कविता है एक प्रवासी के उन्मुक्त प्रेम सम्बन्धों पर रची गई है-
“लगता था मैं आकाश में उड़ने वाला,
उन्मुक्त पंछी हूँ अकेला.
पींजर सी लगती रही पारिवारिकता,
लेकिन उसी के सुख लूटता रहा.
फिर भी मन ही मन,उन्मुक्त आकाश में,
उड़ते उड़ते यदा-कदा,बैठने लगा,
किसी सुंदरी के पर्यंक में. सजाए मिली सेज,
जब चाहो करो विश्राम,वहां भी लगा जैसे मैं
किसी प्रवास में हूँ. पाया फिर अंधेरे में,
शिशुवत करता स्तनपान.”
‘तुम्हारे लिए’ खंड की पांचवीं कविता एक प्रेमी युगल की रोमांटिक प्रेम के भावावेश की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है-
“पहली बार जब देखा तुम्हें
धोये बाल सुखाती धूप में
देखता रहा कसप की आड़ से
नजरें मिलाता हूं,
तुम कर देती हो अपने को
सूखते बालों की ओट में,
प्रश्न होते हैं आकुलता के सूचक
इंतजार करना वैसा ही होता है
जैसे दिशाएँ करती हैं,
बर्फ के पिघलने और
धरती से अंकुर फूटने का
आ जाती हो उसी तरह मेरे पास
जैसे दबे पांव मौसम.”
इसी खंड की एक कविता एक पुरुष प्रधान समाज की प्रेम लिप्सा को प्रकट करती है, जिसमें स्त्री का सर्वस्व पति के चरणों में न्योछावर कर दिया जाता है किंतु पति उस पर तब भी अपना वर्चस्व स्थापित करने की मानसिकता से ऊपर नहीं उठ पाता.उसकी भावाभिव्यक्ति इस एक छोटी सी कविता में इस प्रकार व्यक्त हुई है-
“तुमने अपने रंग में मुझे इतना रंग लिया.
जैसे मेरे सारे रोग,बना लिए अपने.
मृत्यु तक मेरी बना ली,
अपनी,यम से याचना.
मेरे लिए जीवन,
मृत्यु अपने लिए.
मैं फिर से हिचकता रहा,
अपनाने से तुम्हारा वर्चस्व.
जतलाता रहा, तुम एक स्त्री हो,
मैं पुरुष प्रधान,अपनाने से अपना वर्चस्व.”
दूसरे खंड में ‘प्रकृति’ शीर्षक की कविताएं रची गई हैं. मानो ये कविताएं प्रकृति की गोद में बैठी हुई प्रकृति को पढ़ती सी प्रतीत होती हैं. पहाड़ की प्रकृति उसके हरे भरे जंगल और उसमें व्याप्त जैव विविधता का अतिसुन्दर और मनोहारी रूप इस लघु कविता से स्फुटित होता नज़र आता है-
“मेरे घर के सामने फैला जंगल,
अभी भी विराट संभावनाएं पैदा करता हुआ,
हमेशा सनसनाता नजर आता,
चीड़ बांज बुरांश,आड़ू दाड़िम
काफल हिसालू घिघारू, करौंज की झाड़ियां,
रंग बिरंगे पक्षी,कौवे चील गिद्ध,
कटकोर सिटौली घुघुती, कुहू कुहू करती कोयल, सागर सा फैला चरागाह,
जिसके फलक पर गाय भैंस बकरी,
बिना द्वंद्व के भी,एक दूसरे को दुलारते-दुत्कारते,
सब चल रहा है अविरल,
शायद ऐसे ही बीतती हैं सदियां,
पुराने पत्ते गिरते,नई कोपलें आती,
चेहरों का चमकना-झुरझाना,
आदि अंत का कोई इतिहास नहीं,
पहाड़ पहाड़ की तरह अडिग,
सब वैसा ही,जैसा तब था,
जब कोई भी नहीं था.”
इस संग्रह के ‘प्रकृति’ खंड की कविता में पहाड़ की प्रकृति का हँसता, खेलता और मन को प्रफ्फुलित करता मनोहारी चित्रण हुआ है-
“खेत खलिहान हरे मैदान गरजते मेघ,कड़कती बिजली बरसते बादल
नदियां उफनती,बयार मन्द-मन्द पवन,
छाया शीतल ,उगता-ढलता सूरज,छिटकी जोन्हाई, उल्लास पूनम,कालिमा अमावस.
पर्वत विराट, कल-कल,छल छल ललाट,
रिमझिम वर्षा बसंत बहार. हँसते फूल,
उठते स्वर शिखरों से,चमकते तारे,
सिंदूरी सौंदर्य में संध्या,किरणें भोर के तारों की हिलोरे ताल में लहरे.”
आगे भी जारी…
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)