विधवा नारी के उत्पीड़न की करुण कथा है उपन्यास ‘ओ इजा’

 (शम्भूदत्त सती का व्यक्तित्व व कृतित्व-1)

  • डॉ. मोहन चन्द तिवारी

कुमाउनी आंचलिक साहित्य के प्रतिष्ठाप्राप्त  रचनाकार शम्भूदत्त सती जी की रचनाधर्मिता से  पहाड़ के स्थानीय लोग प्रायः कम ही परिचित हैं, किन्तु पिछले तीन दशकों से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक कुमाउनी आंचलिक साहित्यकार के रूप में उभरे सती जी ने अपनी खास पहचान बनाई है. असल में शम्भूदत्त सती जी पहाड़ की माटी से जुड़े एक कुशल लेखक ही नहीं बल्कि उत्कृष्ट कोटि के अनुवादक, धारावाहिक फ़िल्मों के लेखक और पहाड़ की लुप्त होती सांस्कृतिक और परम्परागत धरोहर के संरक्षक गीतकार भी रहे हैं. मेरी सती जी से व्यक्तिगत स्तर पर मुलाकात आज तक नहीं हुई किन्तु फेसबुक में कुमाउनी साहित्य के सन्दर्भ में लिखे मेरे लेखों पर उनके द्वारा की गई सारगर्भित टिप्पणियों से मैं उनकी साहित्यिक प्रतिभा से से सदा अभिभूत रहा. उनके ‘ओ इजा’ उपन्यास के द्वारा कुमाउनी शब्द सम्पदा को दिए गए योगदान की चर्चा में प्रायः अपनी फेसबुक पोस्टों में करता रहा हूं. देवभूमि उत्तराखंड की माटी से सुगन्धित इस साहित्यकार की रचनाधर्मिता और कुमाउनी साहित्य के क्षेत्र में किए गए उनके विशेष योगदान से आज नई पीढ़ी के साहित्यकारों को भी अवगत होना बहुत जरूरी है.

शम्भूदत्त सती साहित्य की सभी विधाओं में लिखते रहे हैं. कविता, कहानी,उपन्यास, निबंध, नाटक और यहां तक की रेखाचित्र विधाओं में भी. पिछले 27 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं.अकेले रेखाचित्र की ही बात करें तो लगभग दो सौ रेखा चित्र विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक प्रकाशित हो चुके हैं. टेलीविजन और फिल्मी धारावाहिक लेखकों के रूप में भी उन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रदर्शन किया है वर्त्तमान में वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं. पहाड़ के एक गरीब और साधनहीन परिवार में जन्मे शम्भूदत्त ने गढ्ढे खोदकर मजदूरी करते हुए किन कठिनाइयों से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और बाद में दिल्ली आकर नौकरी करते हुए उन्होंने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता इन दो विषयों में एमए करने तक की जीवनयात्रा किन परिस्थितियों में तय की, इसकी विस्तृत चर्चा में अगले लेख में करूंगा,इस लेख में,मैं उनके ‘ओ इजा’ उपन्यास की रचनाधर्मिता के सन्दर्भ में ही कुछ खास बातें बताना चाहुंगा.

जहां तक शम्भूदत्त सती के कृतित्व का सम्बन्ध है,उनका पहला कविता संग्रह ‘जब सांझ ढले’ सन् 2005 में हिंदी अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. सन् 2008 में शम्भूदत्त सती का कुमाउनी मिश्रित हिंदी में लिखा गया पहला उपन्यास ‘ओ इजा’ (ओ मां) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ. शम्भूदत्त सती जी ने अपनी दो कृतियों के अलावा अनेक कुमाउनी कविताओं का हिंदी में अनुवाद कर भाषा सेतु बंधन को भी मजबूत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है.उनकी ये रचनाएं देश की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं.’रंगायन’ पत्रिका में एक लंबे समय तक सती जी द्वारा कुमाउनी गीतों का हिंदी अनुवाद लगातार छपता रहा.

“पाठकों के समक्ष यह उपन्यास प्रस्तुत करते हुए मैं इस बात का निवेदन करना चाहता हूँ कि दिनोंदिन गांवों का शहरीकरण होने के कारण उसकी बोली, खान-पान, रहन-सहन, लोक परम्पराएं और लोकभाषाएं विलुप्त होती जा रही हैं. इसलिए यहां मैंने कुमाउनी बोली (जो लगभग विलुप्त होने के कगार पर है) को अपनी बात कहने का माध्यम बनाकर प्रस्तुत उपन्यास में कुमाउनी हिंदी का प्रयोग किया है.”

भारतीय ज्ञान पीठ जैसे लब्धप्रतिष्ठ प्रतिष्ठान से ‘ओ इजा’ उपन्यास के दो संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं,जो इसकी लोकप्रियता का ही प्रमाण है.हिंदी साहित्य जगत में यह उपन्यास नारी विमर्श से सम्बंधित बहुचर्चित उपन्यासों के रूप में मूल्यांकित किया गया है. कुमाउनी शब्द संस्कृति से प्रेरित हिंदी में लिखे गए इस उपन्यास का एक खास प्रयोजन लुप्त होती कुमाउनी शब्द सम्पदा को प्रोत्साहित करना भी रहा है. संस्कृत काव्यशास्त्र के आचार्य भामह ने काव्य की परिभाषा करते हुए कहा है- “शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्” यानी शब्द एवं अर्थ का सहभाव ही काव्य है. इस दृष्टि से भी साहित्य के माध्यम से पहाड़ की शब्द सम्पदा के साथ साथ वहां की लोक संस्कृति का प्रचार- प्रसार करना भी इस उपन्यास का दोहरा प्रयोजन रहा है. लेखक ने अपने इस उपन्यास के प्राक्कथन में कहा है-  “पाठकों के समक्ष यह उपन्यास प्रस्तुत करते हुए मैं इस बात का निवेदन करना चाहता हूँ कि दिनोंदिन गांवों का शहरीकरण होने के कारण उसकी बोली, खान-पान, रहन-सहन, लोक परम्पराएं और लोकभाषाएं विलुप्त होती जा रही हैं. इसलिए यहां मैंने कुमाउनी बोली (जो लगभग विलुप्त होने के कगार पर है) को अपनी बात कहने का माध्यम बनाकर प्रस्तुत उपन्यास में कुमाउनी हिंदी का प्रयोग किया है.” लेखक ने उपन्यास में कुमाउनी शब्दों का जो प्रयोग किया, उसका अर्थ या भाव भी साथ साथ कोष्ठक में दे दिया है.

डा.चौबे लिखते हैं- “लेखक को वक्रोक्ति में निहित मारक व्यंग्य को सत्ता की अनेक छद्म नारों के सन्दर्भ में महसूस किया जा सकता है.दूसरे शब्दों में आजादी मिलने के लगभग सत्तर वर्षों के बावजूद जीने के लिए जरूरी न्यूनतम सुविधाओं-संसाधनों की लालसा की बलि चढ़ते अनेक ऐसे क्षेत्र,अंचल हैं और वहां का विकट जीवन है,जहां परिस्थितियां गुलामी और पीड़ा, क्षोभ और अतृप्ति के हवाले ही हैं. प्रगति के नाम पर सत्ता संस्थाओं और उनके कारिंदों ने शोषण के नए तंत्र का ही विकास किया है. इस उपन्यास में एक पहाड़ी मां के करुण जीवन और उसके संघर्ष की मार्मिक आधार कथा में विकास व्यवस्था के विरूप चेहरे पहचाने जा सकते हैं और पाठक बार बार कहने को मजबूर हो उठता है ‘ओ इजा’

हालांकि कुमाउनी जगत के लोग शम्भूदत्त सती के इस ‘ओ इजा’ उपन्यास से कम ही परिचित हैं, किन्तु हिंदी साहित्य और पत्रकारिता जगत में इस श्रेष्ठ कृति को विशेष रूप से सराहा गया है. हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के जाने माने विद्वान और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रो.कृपा शंकर चौबे ने ‘भाषा सेतु बंधन’ में ‘ओ इजा’ उपन्यास को स्वातन्त्रयोत्तर पिछड़े आंचलिक समाज की पीड़ा को व्यक्त करती कृति के रूप में मूल्यांकित किया है. इस उपन्यास के बारे में डा.चौबे लिखते हैं- “लेखक को वक्रोक्ति में निहित मारक व्यंग्य को सत्ता की अनेक छद्म नारों के सन्दर्भ में महसूस किया जा सकता है.दूसरे शब्दों में आजादी मिलने के लगभग सत्तर वर्षों के बावजूद जीने के लिए जरूरी न्यूनतम सुविधाओं-संसाधनों की लालसा की बलि चढ़ते अनेक ऐसे क्षेत्र,अंचल हैं और वहां का विकट जीवन है,जहां परिस्थितियां गुलामी और पीड़ा, क्षोभ और अतृप्ति के हवाले ही हैं. प्रगति के नाम पर सत्ता संस्थाओं और उनके कारिंदों ने शोषण के नए तंत्र का ही विकास किया है. इस उपन्यास में एक पहाड़ी मां के करुण जीवन और उसके संघर्ष की मार्मिक आधार कथा में विकास व्यवस्था के विरूप चेहरे पहचाने जा सकते हैं और पाठक बार बार कहने को मजबूर हो उठता है ‘ओ इजा’ (भाषा सेतु बंधन ,’शम्भूदत्त सती का सृजन’)

दुदबोलि भाषा और उसमें प्रतिबिंबित सामाजिक युगबोध इन दोनों साहित्यिक मूल्यों को एक साथ उजागर करने वाली इस बेजोड़ कृति के लिए सन् 2010 में शम्भू दत्त सती को “अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार” का राष्ट्रीय सम्मान भी प्राप्त हुआ है.

‘ओ इजा’ उपन्यास कुमाऊं उत्तराखंड के एक पहाड़ी गाँव ‘झंडीधार’ की विधवा नारी मधुली की इजा की करुण कथा है. समय समय पर मधुली की इजा के साथ होने वाली कठिनाइयां,आकस्मिक दुर्घटनाएं और उसकी विवशतापूर्ण पीड़ाएं,किसी भी सहृदय को संवेदनशील बना देती हैं. पहाड़ की नारी खास कर जब वह गरीब विधवा हो,उसके परिवार में सहारा देने वाला कोई पुरुष न हो तो उस पर पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं का विकट पहाड़ सा टूट पड़ता है.

दरअसल, ‘ओ इजा’ उपन्यास में पहाड़ के पिछड़े और अंधविश्वास में जीते गांवों की जीवनचर्या का एक विहंगम, दर्दनाक और व्यंग्यपूर्ण चित्रांकन हुआ है. पहाड़ की एक विधवा असहाय और भोली भाली नारी को नियम और कानून का भय दिखा कर समाज के दबंग पटवारी जैसे ताकतवर लोग उसकी मजबूरी का किस तरह फायदा उठाते हैं और यहां तक कि उसे डरा धमका कर उसके यौन शोषण की हद तक भी पहुंच जाते हैं,इस कारुणिक नारी विवशता का मार्मिक चित्रण इस उपन्यास का मुख्य कथ्य है.असल में,उत्तराखंड के पहाड़ों में बसे गांव अंग्रेजों के जमाने से ही पटवारियों के स्वेच्छाचारी शासन की गुलामी झेलते आए हैं. इनकी दबंगई का सारे गांव में इतना खौफ़ रहता है कि गांव के भाई बिरादर भी डर कर असहाय पीड़ित विधवा से किस प्रकार कन्नी काट लेते हैं? पहाड़ के गांवों की इस भीरु प्रकृति की मानसिकता का भी इस आंचलिक उपन्यास ‘ओ इजा’ में यथार्थ वर्णन हुआ है.

‘ओ इजा’ उपन्यास कुमाऊं उत्तराखंड के एक पहाड़ी गाँव ‘झंडीधार’ की विधवा नारी मधुली की इजा की करुण कथा है. समय समय पर मधुली की इजा के साथ होने वाली कठिनाइयां,आकस्मिक दुर्घटनाएं और उसकी विवशतापूर्ण पीड़ाएं,किसी भी सहृदय को संवेदनशील बना देती हैं.पहाड़ की नारी खास कर जब वह गरीब विधवा हो,उसके परिवार में सहारा देने वाला कोई पुरुष न हो तो उस पर पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं का विकट पहाड़ सा टूट पड़ता है. ऐसे में उसे कितना यातना पूर्ण जीवन जीना पड़ता है? अपने अनाथ बच्चों के पालन पोषण के लिए वह अपने स्त्रीत्व की अस्मिता की लाज बचाने में भी कितना असमर्थ हो जाती है? इस नारी पीड़ा की चरम परिणति इस उपन्यास में देखी जा सकती है.

जैसा कि ‘ओ इजा’ नाम से ही स्पष्ट है कि यह उपन्यास पहाड़ की प्रधान कर्त्री-धर्त्री ‘इजा’ की केंद्रीय धुरा पर केंद्रित है किंतु साथ ही उस धुरा से जुड़े दूसरे किरदार जैसे बाज्यू (पिता), कका-काकी (चाचा चाची),आमा-बूबू (दादा दादी), बौजी (भाभी) बड़ बौज्यू (ताऊ)आदि पहाड़ के पारंपरिक रिश्तों के शब्दबिम्बों से इस उपन्यास में रोचक और मनोरंजनपूर्ण शैली से कथा का विस्तार किया गया है.

यह उपन्यास भौगोलिक दृष्टि से कुमाऊं प्रदेश के किसी खास पहाड़ी गांव से जुड़ी कथा नहीं बल्कि एक काल्पनिक गांव ‘झंडीधार’ की कथा है.लेखक ने इस उपन्यास के प्राक्कथन में ही स्पष्ट कर दिया  है- “इस कहानी को लिखने के बाद आज तक दुबारा ‘झंडीधार’ गया ही नहीं, जाता भी तब ना, जब कहीं होता!”

उपन्यास में वर्णित गांव ‘झंडीधार’ लेखक की दृष्टि से भले ही काल्पनिक हो किन्तु इस उपन्यास का भौगोलिक इतिवृत्त और गांव में रची बसी लोक संस्कृति का फलक द्वाराहाट पाली पछाऊं क्षेत्र के इर्दगिर्द ही कहीं घूमता नज़र आता है. उपन्यास में वर्णित ‘झंडीधार’ का गांव पहाड़ की उन खूबसूरत वादियों में रचा-बसा गांव है,जो बांज, बुरांश, काफल, हिस्यालु, किलमोड, घिंघारू आदि अनेक वृक्षों से आच्छादित है. इसके चारों ओर इतना विशाल जंगल है जिसमें शेर, बाघ, भालू, बंदर,लोमड़ी, सियार, खरगोश, घ्वेड़, काकड़, जंगली मुर्गी,मुनाल पक्षी आदि अनेक जीवजन्तु बसे हुए हैं.इजा, बाज्यू, आमा, बुबु सभी पात्र पहाड़ी संस्कृति के रंग में रंगे हुए हैं.

लेखक ने इस गांव के अनेक बाशिन्दों का भी परिचय दिया है.वर्णव्यवस्था जैसी कोई चीज इस गांव में नहीं नजर आती किन्तु अपने पेशे की सुविधा के अनुसार लोगों ने अपना इतिहास स्वयं ही गढ़ लिया है.जैसे यहां गिरीश पांडे उर्फ़ गोपी बामण उर्फ पाणे का परिवार रहता है जो गांव वालों के नामकरण संस्कार से लेकर अंतिम संस्कार करता है. पाणे बामण नामकरण में श्राद्ध और श्राद्ध में नामकरण के मंत्र भी बोल देता है. मगर उसे टोकने वाला कोई नहीं.तिलुवा लोहार खेती बाड़ी के औजार बनाता है. कुदाल की धार चढ़ाने में ही बीस दिन लगा देता है.लोगों के सिर पर उस्तरा घुमाने का काम धनुवा नाई करता है.उसका उस्तरा दर पीढ़ी से चला आ रहा है.उसी पुराने उस्तरे से सबके सिरों को छीलता जाता है.पासनी और बर झगुली सिलने का काम रूपुवा दर्जी करता है. बिना नाप के ही कपड़े सिलने में वह माहिर है. हर शगुन आंखर गाने का काम गिदारी आमा करती है. आमा जरूरत पड़ने पर सुवे (नर्स) का काम भी कर लेती है. हालांकि आमा ने जितने जच्चों-बच्चों का काम किया उसमें सौ में से पच्चीस तो मरे ही होंगे. मगर इस बात के लिए आमा को कोई दोष नहीं देता. ‘अरे जब रोटी ही नहीं होगी तो कैसे बचता.’इस  उपन्यास में ऐसे अनेक कथा प्रसंग हैं, जिन्हें पढ़ कर क्षुब्ध अंतर्मन से ‘ओ इजा’ के शब्द बरबस निकलने लगते हैं.

उपन्यास में नारी उत्पीड़न की करुण गाथा का दुःख भरा क्लाइमैक्स उस समय आया है जब एक विधवा मां मधुली उस गांव के पटवारी की हैवानियत का शिकार इसलिए हो जाती है क्योंकि उसके बीमार मरे हुए पति की हत्या का झूठा केस पटवारी द्वारा उस अबला मधुली की इजा पर ही मढ़ दिया जाता है. वह अपनी पटवारीगिरी की हैसियत का फायदा उठाते हुए पूछताछ करने के बहाने मधुली की इजा की अस्मत को कई दिनों तक लूटता रहता है. पटवारी उस असहाय नारी का मुआयना करने उसे अपने बंगले पर रोजाना बुलाने लगता है. मगर उसकी काम पिपासा पूर्ण हरकतों से तंग आकर एक दिन मधुली की इजा उसके बंगले पर नहीं जाती तो पटवारी अपने चपरासी के साथ उसके घर आ धमकता है. मगर मधुली की इजा उसकी ज्यादतियों को झेलने के लिए इसलिए मजबूर थी ताकि अपने असहाय दो छोटे बच्चों की वह परवरिश कर सके.पटवारी ने मधुली की इजा के घर में भी वैसा ही कुकर्म किया जैसा वह अपने बंगले में करता था-

“बस क्या था, लैम्प की मद्धम रोशनी में पटवारी ने वही मुआयना किया,उसके एक-एक करके सारे कपड़े उतारता गया. एक निर्जीव की तरह उसे निर्वस्त्र करता चला गया. मुआयने का वही सिलसिला था. पता नहीं मधुली की इजा के शरीर में प्राण थे भी या नहीं. वह एक लाश की तरह बेजान पड़ी रही, वह छटपटा तक नहीं रही थी. इसी बीच मधुली की इजा के मुँह से एक जबरदस्त चीख निकली जिससे मलभतेर बंद बच्चे चिल्लाने लगे,’इजा इजा क्या हुआ? इजा तू क्यों रो रही है?’ उसने इसका भी कोई जवाब नहीं दिया. वह क्या कहती उन मासूमों को ‘बेटे चुप हो जा’, इस तरह बिकता है एक स्त्री का स्त्रीत्व, एक माता का मातृत्व,एक इंसान की इंसानियत? वह पीता रहा उसकी लाचारी को. स्त्रीत्व को तो वह कब से पी रहा था.” (ओ इजा’,पृ.80)

मधुली की इजा मन से तो चाहती थी लगातर उसकी अस्मत को लूटने वाले उस कलमुंहे लम्पट पटवारी का अपनी दराती से गला रेत दे मगर वह ऐसा इसलिए नहीं कर सकी क्योंकि उसके मलभीतेर (अंदर के कमरे में ) सोए हुए दो बच्चों को बचाने वाला उसके परिवार में कोई नहीं था. पटवारी के पाशविक कुकृत्य के कारण उसकी जो चीत्कार निकली उसको सुनने वाला भी उस समय कोई नहीं सिवाय भीतर सोए हुए उसके दो बच्चों के.असहाय और अबोध बालकों ने अपनी इजा के इस करुण क्रंदन को सुना तो चिल्लाने लगे-
“इजा इजा क्या हुआ?
इजा तू क्यों रो रही है?”
दरअसल, इजा के साथ हो रहा यह घिनौना दुष्कृत्य और मलभतेर के बच्चों का करुण क्रंदन इस उपन्यास की हैवानियत का यह त्रासद प्रसंग बहुत ही बीभत्स और रोंगटे खड़े कर देने वाला है.’ओ इजा’ की दर्दभरी पुकार उपन्यास की इसी घटना से उभरा आर्त्तस्वर है.

प्रगति के नाम पर सत्ता संस्थाओं और उनके कारिंदे एक बेबस महिला पर जिसका पति मर गया है किस तरह जुल्म ढाते हैं, उसे कानून का भय दिखा कर उसके स्त्रीत्व की अस्मिता से खेलने का नँगा नाच किस बेशर्मी से दिखाते हैं? उन सब विभीषिकाओं का इस उपन्यास में अत्यन्त मार्मिक चित्रण हुआ है.

इससे आगे का विवरण तो और भी हृदय विदारक और कारुणिक है.मधुली की इजा में नारी का चंडी रूप उजागर होने लगता है.वह उस पशुदानव का सिर काट देने के लिए अपनी दराती हाथ में ले लेती है किंतु उस दरिंदे का सिर नहीं रेत पाती.विवशता तो देखिए उसके हाथ एक दम रुक जाते हैं,यह सोच करके कि उस दरिंदे की गर्दन काट देने के बाद उसका क्या होगा? उसके दो मासूम बच्चों का क्या होगा?-

“मधुली की इजा को कहां नींद आने वाली थी. वह रात भर सोचती रही- कहां जाए क्या करे.बाहर घुप अंधेरा ही था.पटवारी निढाल पसरा हुआ था बेसुध. सामने ही रखी दराती उठाई और सोचा एक जोर का वार करके दुनिया के नहीं, तो इस अत्याचारी को तो मार ही दे. दराती उठा कर पास तक आयी.जैसे ही वार करने को हाथ उठाया, भीतर से बच्चे की आवाज आई- ‘इजा हमें बाहर निकाल’.उसका हाथ अपने आप ही रुक गया. वह उसकी गर्दन तो एक झटके में काट सकती है.लेकिन उसकी गर्दन काट देने के बाद उसके पीछे भी तो दो मासूम हैं उनकी जिंदगी का क्या होगा. इस घर में अगर इस हैवान की लाश मिली तो इन बच्चों को पूरी जिंदगी कौन जीने देगा. उसका अपराध न होने पर उसके साथ ऐसा अपराध हो रहा है.इन्हें तो आज से ही अपराधी घोषित कर दिया जाएगा. क्या उसकी तरह उसकी बेटी भी हमेशा किसी पटवारी के वहां हाजरी देने जाएगी? क्या वह उसे जिन्दगी भर किसी पटवारी से शरीर के हर अंग का मुआयना करवाने के लिए छोड़ जाएगी? नहीं,नहीं वह ऐसा नहीं कर सकती.हाथ की दराती नीचे फेंक, वह एक झटके में बाहर की तरफ निकल गई. सोचा-कुछ भी नहीं तो रोज रोज इस पापी के हाथों मरने से तो अच्छा खुद मर सकती हूँ. उसने चुपके से दरवाजा खोला और अंधेरे में बेतहाशा पागलों का रूप लिए भागने लगी.” -(‘ओ इजा’,पृ.80)

प्रगति के नाम पर सत्ता संस्थाओं और उनके कारिंदे एक बेबस महिला पर जिसका पति मर गया है किस तरह जुल्म ढाते हैं, उसे कानून का भय दिखा कर उसके स्त्रीत्व की अस्मिता से खेलने का नँगा नाच किस बेशर्मी से दिखाते हैं? उन सब विभीषिकाओं का इस उपन्यास में अत्यन्त मार्मिक चित्रण हुआ है.

अंत में कहना चाहुंगा कि एक पुरुष प्रधान समाज की दबंगई और सामाजिक उत्पीडन से सताई गई विधवा नारी की आंतरिक पीड़ा का जो शब्दबोध और युगबोध इस ‘ओ इजा’ उपन्यास के माध्यम से उभर कर आया है, उसके कारण श्री शम्भूदत्त सती को एक उत्कृष्ट आंचलिक साहित्यकारों की श्रेणी में गिना जाने लगा है.

इस ‘झंड़ीधार’गांव की विडंबना यह भी है कि विधवा मधुली की इजा के सभी भाई बिरादर उस हैवान पटवारी के खौफ से उसकी सहायता करने के बजाय उससे किनारा करने में ही अपना भला समझते हैं. सारे गांव में कोई भला और मददगार चरित्र है तो वह है-‘पधान बूबू’ का,जो मधुली की इजा को समय समय पर जीने भर की सांत्वना देता रहता है. मधुली की इजा बलात्कारी पटवारी के आतंक से तंग आकर नदी गधेरे में छलांग मारकर आत्महत्या करना चाहती है तो पधान बूबू का वात्सल्यमय हाथ ही उसे मरने से बचा लेता है.

अंत में कहना चाहुंगा कि एक पुरुष प्रधान समाज की दबंगई और सामाजिक उत्पीडन से सताई गई विधवा नारी की आंतरिक पीड़ा का जो शब्दबोध और युगबोध इस ‘ओ इजा’ उपन्यास के माध्यम से उभर कर आया है, उसके कारण श्री शम्भूदत्त सती को एक उत्कृष्ट आंचलिक साहित्यकारों की श्रेणी में गिना जाने लगा है.

जारी…

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

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