गुजरात यात्रा – सोमनाथ से द्वारिकाधीश तक
- डॉ. हरेन्द्र सिंह असवाल
यात्रायें मनुष्य जीवन जीवन की आदिम अवस्था से जुड़ी हुई हैं. चरैवेति चरैवेति से लेकर अनन्त जिज्ञासायें मनुष्य को घेरे रहती हैं. इस बार दिल्ली की लंबी प्रदूषित अवधि ने मुझे बाहर निकलने के लिए इतना विवश किया कि बिना किसी योजना के मै निकल गया जयपुर. जयपुर से डस्टर से चार लोग निकल पड़े. कहाँ जाना है? कहाँ रुकना है? कुछ पता नहीं. आजकल ओयो रूम्स हैं न. जहाँ तक पहुँचेंगे वहीं ओ यो रूम्स देख लेंगे. पुराने ज़माने में लोग यात्रा पर निकलते थे तो चट्टियों पर रुकते थे. ये चट्टियां हर नौ मील पर हुआ करती थी. अक्सर यात्री हर दिन नौ मील की दूरी तय करते और अपने रात्रि पड़ाव तक पहुँच जाते. वे धार्मिक यात्रायें होती थी. जिसमें पुण्य प्राप्ति और मुक्ति की कामना से श्रद्धालु निकला करते थे. मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. मैं तो दिल्ली की तंग और उबाऊ ज़िन्दगी से थोड़ा सुस्ताना चाहता था. प्रदूषण से कुछ दिन दूर रहना चाहता था. इसलिए निकल पड़ा. जयपुर से जब गुजरात पहुँचा तो पहला शहर जिसने मन को झकझोरा वह था गोधरा. जैसे ही नाम पढ़ा दिमाग़ में एक घटनाक्रम दौड़ पड़ा. पुरानी सूचनाएँ, रिपोर्ट्स, जली हुई ट्रेन और फिर लंबी बहसें जो आज तक ख़त्म नहीं हुई, गोधरा के साथ जीवन्त हो गई. गुजरात माडल की बात सुनी थी, देखा हाईवे पर दोनो ओर बनी बड़ी-बड़ी फ़ैक्टरियां, बड़े-बड़े गोदाम, वेयर हाउस और माल वाहक ट्रकों की लंबी -लंबी क़तारें. सड़कें सब ठीक ठाक. खाना सस्ता और दूध दही छाछ तीनों वक्त उपलब्ध. आख़िर गुजरात मॉडल होता क्या है? रास्ते में चरवाहे के कान सोने के कुंडलों से लदे देखे. जंगल में किसे दिखा रहा होगा? गांधी जी वाली काठियावाड़ी घुटनों तक की धोती, हर मील पर मन्दिर माँस मछली आपको कहीं नज़र नहीं आयेगा. मैने पूछा फिर इतनी बकरियाँ और मछलियाँ कहाँ जाती हैं? किसके लिए पालते हैं? सब ब्यापर के लिए. ओजत नदी के किनारे रईस नारियल पानी बेच रहा था. रईस भी नारियल बेचेगा तो ग़रीब क्या बेचेगा? नारियल पानी बीस रुपये का. खूब हरा भरा. सड़क के दोनो छोर हरे भरे.
सुरेन्द्र नगर चोटनी में रात्रि विश्राम के बाद सुबह उठे और सोमनाथ पहुँच गये. सोमनाथ के दर्शनों को गये तो थोड़ा रुकना पड़ा पता चला पूर्व प्रधान मन्त्री देवगौड़ा सपरिवार पूजा दर्शन के लिए आये हैं. वे एक तरफ पूजा पाठ करते रहे दूसरी ओर सोमनाथ के दर्शनार्थी दर्शन करते रहे. मैडम देव दौड़ा कुछ देर और वहाँ प्रतिमा के सामने खड़ी रही. हम लोग दर्शन करके बाहर आ गये. देवगौडा परिवार कर्नाटक के लिंगायत संप्रदाय के मानने वाले हैं इसलिए शिव का प्रथम ज्योतिर्लिंग उनके आराध्य हुए. गुजरात के हर मन्दिर के प्रांगण में सामान घर बने हैं जहाँ आप अपना सारा सामान रख सकते हैं. कहीं भी कैमरा, फोन और किसी तरह का इलेक्ट्रोनिक डिवाइस अन्दर ले जाने की अनुमति नहीं है हमारा ड्राइवर गाड़ी की चाबी ले गया जिसे वापस फिर सामान घर तक आना पड़ा. यह सब सुरक्षा की दृष्टि से अच्छा भी है लेकिन मन्दिर परिसर तक कैमरों पर पाबन्दी थोड़ा खलती है कि आप एक भी अच्छी तस्वीर न ले सकें. मन में अनेकसवाल उठ रहे थे ये सोमनाथ वही जिसे लुटेरों ने कई बार लूटा. भगवान शिव का प्रथम ज्योतिर्लिंग. समुद्र के किनारे लहरों के नाद से, गर्जन-तर्जन से गुंजायमान सोमनाथ. निराला की राम की शक्तिपूजा में समुद्र का वह स्वरूप याद आ गया-
है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार
खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन चार
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल
भूधर ज्यों ध्यान मग्न , केवल जलती मशाल.
– सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, राम की शक्ति पूजा, से.
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल की व्याख्या किसी क्लास रूम में नहीं हो सकती. वह यहीं सोमनाथ मन्दिर के प्रागंण में बैठ कर ध्यान लगाके महसूस की जा सकती है. अप्रतिहत क्या है, निराला का शब्द संसार बंगाल का समुद्र देखने से ही बन सकता था, जिस व्यक्ति ने समुद्र न देखा हो वह इस शब्द को न तो गढ़ सकता है और न उसकी महिमा को जान सकता है. लगातार लहरों के किनारे से टकराने वाले शोर से एक ख़ास क़िस्म की अनवरत ध्वनि पैदा होती है, लहरों के आवर्त से उठना और गिरना और फिर आपस में टकरा कर फेनाकार रूप ग्रहण करना और उससे पैदा होने वाले शोर का वातावरण में गूंजना, यही वह अप्रतिहत गरज रहा अम्बुधि विशाल है. इसे मैने वहाँ महसूस किया. सागर तो पहले भी बहुत देखा था लेकिन ध्यानमग्न सोमनाथ मन्दिर के पीछे समुद्र का गरजना जैसे एक भिन्न अर्थ दे रहा था. जैसे राम हताशा में थे वैसे ही सोमनाथ भी बार बार लूटे जाने की हताशा में था, आजादी के समर को उसी गुजरात की भूमि ने एक ऐसा योद्धा और सन्त दिया जो जैसे सोमनाथ की पीड़ा को पहचान रहा था. उसने भी शक्ति की मौलिक कल्पना की, यह आजादी का युद्ध ताकत से नहीं, हिंसा से नहीं अहिंसा से जीता जा सकता है. शक्ति की मौलिक कल्पना करके ही अंग्रेज़ों को जीता जा सकता था. लगा जैसे गांधी जी के मन की बात सिर्फ निराला ही पढ़ पाये. सोमनाथ के पीछे का समुद्र विकराल समुद्र नज़र आया. सोमनाथ मन्दिर को आजादी के बाद भारत सरकार ने पुन: निर्मित करवाया. वास्तुकला का विरल नमूना यह मन्दिर आज भी भारतीय जन मन की श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है.
आख़िर सोमनाथ लुटेरों को क्यों आकर्षित करता रहा? गुजरात में ऐसा क्या है जो हर बार लुटकर वह फिर समृद्ध होता रहा? यह सवाल मेरे मन को कचोटता रहा. जिस गुजरात में धर्मप्राण लोग हैं वहाँ बार-बार की लूटपाट के पीछे कोई तो भौतिक कारण होना चाहिए. इस सवाल पर अन्तिम पड़ाव पर चर्चा करूँगा. पहले गुजरात देख लेता हूँ.
सोमनाथ से मन किया गीर के शेरों से मुलाक़ात की जाए. जिस धरती में बब्बर शेर खुले गाँव देहात में घूमते हैं वहाँ का के मन मिज़ाज को भी समझा जाये. सोमनाथ से हमने गुगल गुरू की मदद ली और गीर फ़ॉरेस्ट डाल दिया काफी चलने के बाद जब लोगों से गीर के शेरों के बारे में पूछा पता चला हमने ग़लत जगह सर्च कर ली है. लोंगों से पूछते लेकिन गुजराती भाई बरोबर कहकर आगे जाने को कहते. लेकिन जब एक सज्जन जो ठीक ठाक हिन्दी बोल सकते थे पता किया तो पता चला हम गीर सेन्चुरी में जा रहे हैं. गीर शेर तो सासण कहलाता है, वह अलग रास्ते है तो हमने फिर दीव जाने का रास्ता लिया और पाँच बजे हम दीव पहुँच गये.
बर्ड सेंचुरी (पक्षी अभयारण्य) जालन्धर बीच यही सब दीव में देखने लायक है. इन सब में नादिया गुफायें देखने लायक हैं. पानी के कटाव से न जाने कब प्रकृति ने जैसे इन्हें अपने हाथों रचा, गुफ़ाओं के अन्दर बीच-बीच में प्राकृतिक रूप से निकलती धूप और जड़ों के झूले खूब मन मोहक हैं. जब जायें तो प्रकृति के इन नज़ारों को ज़रूर देख कर आयें.
दीव केन्द्र शासित राज्य है और मनुष्यों की चारागाह है. माँस, मदिरा के शौक़ीन सुबह से शाम तक यहीं पड़े रहते हैं. जो भी गुजराती पीने खाने का शौक़ीन है वह दमन, दीव में शनिवार से रविवार तक यहीं मिलेगा. बन्दिशें किस तरह से व्यग्रता को बढ़ाती हैं वह दीव में देखा. एक गेट पार करते ही युवा बियर और शराब में डुबकी लगाने लगते हैं. सुबह घोघला बीच से लेकर नागुवा बीच मलाला बीच और फ़ोर्ट के सामने सारे बार युवाओं के झुंड, रेस्तराँ, बार, होटल सब फ़ुल. नागुवा बीच पर सर्किट हाउस देखा. रहने के लिए अच्छी जगह लगी. सरकारी सर्किट हाउस चाहे रखरखाव में ठीक न हों लेकिन जिस जगह वे स्थित हैं वह जगह ही उस कमी को दूर कर देसी. बर्ड सेंचुरी (पक्षी अभयारण्य) जालन्धर बीच यही सब दीव में देखने लायक है. इन सब में नादिया गुफायें देखने लायक हैं. पानी के कटाव से न जाने कब प्रकृति ने जैसे इन्हें अपने हाथों रचा, गुफ़ाओं के अन्दर बीच-बीच में प्राकृतिक रूप से निकलती धूप और जड़ों के झूले खूब मन मोहक हैं. जब जायें तो प्रकृति के इन नज़ारों को ज़रूर देख कर आयें. जब गुफ़ाओं से निकले तो अब लगा यहाँ क्या करेंगे. फिर गुगल गुरु की मदद ली और दीव से द्वारिकाधीश मन्दिर लगभग 350 किलोमीटर. गीर सासण का पता किया तो सफ़ारी के लिए कम से कम एक दिन पहले बुक करानी पड़ती है, इरादा बदला और चल पडे द्वारिका के लिए.
साधू तेरी राह नहीं, क़दमचलें जिस ओर वहीं पर ढूंडे ठौर. हम भी चल पडे. वापस सोमनाथ होते हुये जूनागढ़, पोरबन्दर, काठियाबाड़ सिर्फ साइनबोर्डों से पता चलता रहा. पोरबन्दर में मन हुआ कि रुकें और गांधी जी को याद कर लूँ लेकिन समय अनुकूल नहीं था. पोरबन्दर अपने आप एक पूरी यात्रा माँगता है इसलिए भूमि को ही नमन करके आगे बढ़ गये. यह सारा रास्ता समुद्र के किनारे से होकर गुज़रता है. पानी की बोतल बीस रुपये और नारियल पानी भी ताज़ा ,मीठा बीस रुपये. तय किया पानी की जगह नारियल पानी ही पियेंगे और हमने वही किया. जब हम दीव से चले तो कुछ लोगों ने राय दी गुजरात में आपको कुछ नहीं मिलेगा, यहीं से रख लो तो मैने कहा जो वहाँ नहीं मिलेगा उसे रखने का कोई मतलब नहीं, वहाँ जैसा मिलेगा वैसे ही रहेंगे. जेहि विधि राखे राम ताहि विधि रहि हैं, रास्ते में माधोपुर पड़ा. मधुबन में भगवान कृष्ण ने रुक्मणी से विवाह किया था. ये वही माधोपुर है माधोपुर बीच पर सुन्दर मोती और शंख देखे सतरंगी मोती जो मछली के मुँह से निकलते हैं ऐसे नग देखे. ऊँट सवारी के लिए सजे हुए देखे फिर वही नारियल पानी पिया. लंबी कोस्टल यात्रा में यह नारियल पानी सबसे फ़ायदे मंद है. एक तो थकान नहीं लगेगी दूसरे शरीर में पानी और मिनरल की कमी नहीं होगी. पूरी यात्रा में कभी भी पानी संबंधी कोई परेशानी नहीं हुई. प्रकृति अपने आप सन्तुलित करती है. रेगिस्तान में पानी की कमी के लिए तरबूज़ पैदा किया, खाओ पानी की पूर्ति स्वत: हो जायेगी और खारे समुद्र के किनारे मीठा पानी नारियल में भर दिया कि पियो और मस्त रहो.
अगर यात्रा को आप बिना किसी पूर्व आयोजना या प्लानिंग के करें तो आप कभी निराश नहीं होंगे और यदि हजार तरह की प्लानिंग करके चलें तो हर तरह की अड़चनें खड़ी हो जायेंगी. माधोपुर बीच से जब हम निकले तो यहाँ रास्ता कई जगह ठीक नहीं था. सड़क पर काम हो रहा था इसलिए गति धीमी रही. रास्ते में चाय पीने के लिए नरवई बाजार में रुके. यहाँ पर नरवई माता का मन्दिर है. दर्शनार्थी रुक कर दर्शन लाभ कर सकते हैं. हम यहाँ रुके लेकिन चाय के लिए. चाय गुजरात में प्लेट में मिलती है. जल्दी ठंडी हो जाती है. शायद व्यापारी उसमें समय नहीं लगाना चाहते. पूरे गुजरात में खाने पीने के बारे में लगा जैसे उनका खाने पर ज़ोर नहीं. थेपला, खांकरा, फाफड़ा सब बने बुने मिल जायेंगे. नरवई में हमने पेड़े खाये. बहुत बढ़िया पेड़े. दस रुपये का एक और दूसरा ताज़ा ताज़ा फाफड़ा बनवाया और खाया. जलेबी भी एक बार बना कर रख देते हैं और लोग उसे ठंडी ही खा लेते हैं. गरमागरम जलेबी से उनका कोई लेना देना नहीं. नरवई में मेवे की एक और मिठाई खाई वह पेड़े से बड़ा आकार में और मीठा थोड़ा कम था. रास्ते में उसे खाया तो उंगलियां चाटते रह गये. बहुत ताज़ा और सुस्वादु मिठाई थी. रात नौ बजे के बाद हम द्वारकापुरी पहुँचे. रहने का वहाँ भी कोई प्रबन्ध नहीं किया था. रास्ते से ही भाई साहब को फोन लगाया वहाँ कुछ व्यवस्था करें सो गुजरात सरकार के सर्किट हाउस में व्यवस्था हो गई, लेकिन वहाँ पहुँच कर पता किया कि हमारे नाम से कोई बुकिंग नहीं है तो दूसरे गेस्ट हाउस में गये वहाँ भी बुकिंग नहीं थी. वापस फिर से स्वागत कक्ष में बात की, वही जबाब. लगा जब डॉ कोहली राज्यपाल थे तब आये नहीं अब आया हूँ तो जगह नहीं मिल रही. कोहली जी के साथ तीन साल एक ही निभाग में पढ़ाने का अवसर देशबन्धु कालेज में मिला था तब से जानता हूँ. रिसेप्सन वाले से फिर बात की उसने मैनेजर से बात करवाई उन्हें बताया तो वे बोले थोड़ा रुको मैं देखता हूँ, तब पता चला रूम हमारे नाम से नहीं किसी के गेस्ट के रूप में बुक था तब जाकर चिन्ता मुक्त हुए. अब समस्या खाने की थी. गेस्ट हाउस वालों ने बताया बाहर सामने ही गुजराती समाज की धर्मशालाएँ हैं वहाँ अच्छा और सस्ता खाना मिलेगा .उनका सारा ज़ोर सस्ते खाने पर थाऔर हमारा खाना मिल जायेइस पर. हमें खाने की चिन्ता थी सस्ते की नहीं पूरे दिन पानी और फाफड़ा पर निकाला था. नज़दीक ही गुजराती समाज की दो भव्य धर्मशालाएँ थीं. कडेवा समाज की धर्मशाला में गये तो वहाँ सिर्फ गुजराती खाना था ,उन्होने कहा साथवाली में पंजाबी थाली भी मिलेगी. हम दूसरी में पहुँच गये साढ़े दस बज गया था कम ही लोग खानेवाले बचे थे. वहाँ एक राजस्थानी हिन्दी बोलनेवाला मिला उसको खाने का ऑडर दिया अन्त में छाछ पिया, खाने के साथ गुजरात में हमने कई गिलास छाछ जिसे छाज के रूप में उच्चारित करते हैं पी गये यह ज़ीरा छाछ ताज़ी और सचमुच में स्वादिष्ट लगी. नारियल पानी और छाज गुजरात यात्रा की ये उपलब्धि हैं.
गुजरात मॉडल से एक बात सामने यह आई कि यहाँ के लोग बहुमंज़िला इमारतों में बहुत पहले से रहने लगे थे. जिससे खेती की ज़मीन बची रही और बाजार या मॉल की संस्कृति यहाँ पनपने लगी. गुजरात का हर शहर बहुमंज़िला इमारतों से भरा है. दिल्ली जैसे शहरों में हम आज भी बहुमंज़िला इमारतों में रहना नहीं सीख पाये. कोठियों हवेलियों, और अब फ़ार्महाउस जैसे घरों में रहना बड़प्पन समझते हैं. जहाँ जगह नहीं वहाँ इस तरह के घरों को फ़िज़ूल खर्ची और दिखावा ही मानना चाहिए. गुजराती पूरे दिन कमायेगा. शाम को सामूहिक भोजनालयों में एक सा सादा खाना खायेगा और अपने फ़्लैट में सोने जायेगा. यहाँ उल्टा है. गुजरात मॉडल में ये अपने-अपने समाजों की धर्मशालाएँ और भोजनालय सारे देश में मिल जायेंगे वे रात को खाना खाते समय साल में घूमने का भी सारी योजना बना लेंगे. महिलाएँ भी व्यापार और घर दोनो पर बरोबर नज़र रखती हैं. माँस, मदिरा और विलासिता ना के बराबर. घूमने भी निकलेंगे तो चौका चूल्हा साथ बस में रख कर चलेंगे. 2005 में जब मैं अमरनाथ यात्रा पर गया तो श्रीनगर ख़य्याम रोड के रेशी होटल में जब उनकी बस रुकी तो दोनो बसों के सवारी कमरों में गये और बसों से ही सारे चूल्हे बर्तन निकाल कर कुछ लोग भोजन की तैयारी में जुट गये. संध्या के बक्त जब मेरी बात टूर ऑपरेटर विद्या बेन से हुई तो उसने बताया बड़ौदा से आये हैं . बातों बातों में बिद्याबेन ने अपनी परेशानी बताई कि सब्ज़ी लेने के लिए बाजार जाना है और इतनी बड़ी बस कैसे ले जाएँ मैने कहा हमारी टाटा सूमो ले जाओ तो बहुत खुश हो गई . मुझे पूछा तुम खाना कहाँ खाते हो तो मैने कहा हम झील के आस -पास चले जाते हैं. उन्होंने तुरन्त कहा अब जाने की ज़रूरत नहीं जब तक हम यहाँ हैं खाना हमारे साथ. हमने गाड़ी उन्हें दी और हमें भोजन मिल गया. विद्याबेन चाय के लिए एक सीटी मारती खाने के लिए दो और डिनर के लिए तीन मैने पूछा यह सीटी का क्या मसला है बोलीं अब मैं हर कमरे मे कहने तो नहीं जा सकती कि चाय या खाने आओ,ये सबको समझा दिया है. सीटी बजते ही सब पहुँच जाते हैं. भारत में दो तरह के टूरिस्ट हैं एक बंगाली और दूसरे गुजराती. बंगाली गंगा के साथ साथ चलता है और उत्तराखंड के हर नदी, गाड, गदेरे तक छान मारता है. वह धार्मिक कम जिज्ञासु क़िस्म का यात्री है जबकि गुजराती धार्मिक यात्री ही ज़्यादा है. वह अपना थेपला, फाफड़ा, खांखरा, सब साथ लेकर चलता है जबकि बंगाली जहाँ भी मछली भात मिल जाये उधर चल देता है.
द्वारिकाधीश लगभग साढ़े नौ बजे पहुँचे. गुजरात सरकार के सर्किट हाउस में रात्रि विश्राम के बाद सुबह मन्दिर दर्शन के लिये गये. मैने पहले तय किया था कुर्ता पजामा पहनूँगा लेकिन जब ये पता लगा कि मन्दिर के पीछे ही समुद्र है तो मन हुआ बरमूडा पहन कर जाना ही ठीक रहेगा पानी में कुर्ता पजामे में दिक़्क़त होगी, सो बरमूडा पहल लिया लेकिन जैसे ही मन्दिर परिसर में गया पंडितों और भक्तों ने कहा कि पूरा कपड़ा पहन कर ही अन्दर जा सकते हो तो लगा अब क्या करूँ लेकिन समाधान साथ ही पंडों ने बता दिया सामने की दुकान से किराये पर धोती ले लो सिर्फ बीस रुपये में मिल जाती है बरमूडे के बाहर बाँध लेना दर्शनों के बाद धोती वापस कर देना, समस्या और समाधान वहीं के वहीं. अपना सारा सामान फिर जमा करा दिया और दर्शनों के लिए मन्दिर में पहुँचे, पंडे पुरोहित जैसे सभी जगह जी का जंजाल बन जाते हैं वह सभी जगह एक जैसा ही है. वे कहानियाँ बनायेंगे, आपकी धार्मिक वृत्ति और जेब टटोलेंगे और फिर पाप पुण्य का जाल फैलाकर खींचने लगेंगे. उनसे हमने पीछा छुड़ाया. दर्शनों के बाद मन्दिर के पींछे सुदामा सेतु पर और समुद्र के ज्वार का पानी जो अन्दर तक आ जाता है वह पार करके समुद्र के किनारे ऊँट, मौन्स्टर बाइक, का मज़ा लिया साथ ही शंख देखे. कहते हैं द्वारिका के शंख आवाज़ की दृष्टि से सबसे अच्छे होते हैं तो खूब शंख बजा बजाकर देखे. बहुत से लोग तो बजा ही नही पाये. असल में शंख बजाना भी एक कला ही है. शंख बजाकर मैने शंख बेचने वाले की वाह से जैसे साब्बासी जैसा महसूस किया फिर दो एक और लोगों ने भी मुझसे शंख बजाकर अपने लिए भी ख़रीद लिये. सुदामा सेतु से जैसे ही हम निकलने लगे तो ऑटो वालों ने घेर लिया. उन्होने बताया नज़दीक ही भड़केश्वर महादेव हैं वहाँ आने जाने का उसने सौ रुपये माँगे तो हमने गाड़ी छोड़ कर उसी में जाना वाजिब समझा. भड़केश्वर समुद्र के किनारे अच्छी जगह लगी. समुद्र की लहरें यहाँ परखूँ भड़कती हुई किनारों से टकराती हैं शायद इसी लिए भड़केश्वर महादेव कहलाते होंगे.
समुद्र की लहरें और उनका शोर पत्थरों पर लहरें जब पछाड़ मारती हैं तो सफ़ेद झाग, बुलबुलों का अद्भुत नज़ारा दिखाई देता है यहाँ भक्त कम प्रकृति प्रेमी समुद्र का आनन्द ले सकते हैं. शान्त किनारे और विलोड़ित समुद्र यहाँ दिखेगा. दो एक घंटा यहाँ मज़े से बिताया जा सकता है. लहरों को समुद्र के किनारे, पत्थरों पर बैठकर हर लहर उसका आकार, प्रकार और ध्वनि पढ़ी जा सकती है. जब हम भड़केश्वर महादेव से वापस मन्दिर के लिए चले तो ऑटो चालक ने बताया आप को भेंट द्वारका जाना चाहिए. मुझे लगा था भेंट द्वारिका वहाँ से दूर होगा लेकिन उसने बताया यहाँ से सिर्फ तैंतीस किलोमीटर है तो हमने तुरन्त जाने का इरादा कर लिया. ऑटो चालक ने बताया आप किसी से भी ओखा का रास्ता पूछ लेना सब बता देंगें. उस रास्ते जो भी जा रहा होगा वह वहीं जायेगा. रास्ता कहीं पूछना नहीं पड़ा. रास्ते में ही टाटा नमक की विशाल फैक्ट्री देखी. गुजरात, नमक और आजादी किसे नहीं पता. सविनय अवज्ञा, नमक आन्दोलन, दांडी मार्च, पूरे देश को गुजरात के उस नमक का आभार मानना चाहिए. कई बार लगता है उसकी अवज्ञा वहीं से हो रही है. गांधी जी इस सफ़र में बार-बार याद आते रहे. कारण कई थे. साथ में जो लोग थे वे उस वैचारिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि के नहीं थे कि इन मुद्दों पर बात करता. कई बार यह अच्छा भी होता है कि अपने विचार को मन ही मन बढ़ने दें बिना किसी बहस के. बहस से रचना भटकने लगती है .
यात्रा का अन्तिम पड़ाव रही भेंट द्वारिका या बेट द्वारिका. यह एक तरह से कृष्ण यात्रा का अन्तिम पड़ाव भी कहा जा सकता है. भेंट द्वारिका ओखा से पाँच किलोमीटर समुद्री यात्रा करने पर पहुँचना होता है. भेंट द्वारिका से नाव से यात्रा करनी होती है. जिस नाव में हम बैठे उसमें एक सौ अस्सी यात्री सवार थे. कोई सुरक्षा का उपाय नहीं लाइफ़ जैकेट के बिना. कृष्ण ही नया पार लगाने वाले हैं. जब हम नाव पर बैठे तो पक्षियों का एक पूरा झुंड हमारे ऊपर मँडराते हुये साथ चल रहा था लोग उन्हें नाव से ही दाना फेंकते और पक्षी उन्हें हवा में ही अपनी चोंच में दबा देते, कई बार वे आपस में टकराते. बैठने के लिए बहुत कम जगह काफी लोग खड़े रहते हैं हम भी बीच में जो एक लकड़ी का पोल था उसे ही पकड़ कर खड़े रहे. पार होने पर भेंट द्वारिका में उतर गये. यह स्थल कृष्ण भगवान का निवास स्थल भी कहा जाता है. गोमती द्वारिका जहाँ भगवान का दरबार और राजधानी मानी जाती है वहीं भेंट द्वारिका सपत्नीक निवास स्थल है. इसी स्थल पर मित्र सुदामा से भगवान की मुलाक़ात हुई और यहीं भक्त नरसी मेहता की हुंडी भरने वाला स्थल माना जाता है. नरसी मेहता वही भक्त है जिन्होंने –
वैष्णव जन तो तैने कहिए जो प्रीत पराई जाने रे.
पर दुख्खे उपकार करे तोये ,मन अभिमान न आने रे..
यह गांधी जी की चेतना का मूल राग है, और आजादी के आन्दोलन का मूल मन्त्र भी. यह स्थान मीरा के मूर्ति में विलय का स्थान भी माना जाता है. कहते हैं इस मन्दिर का निर्माण बल्लभाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी में करवाया था यह बल्लभ संप्रदाय की बैठक कही जाती है. उदासीन संप्रदाय वाले भी यहीं चौरासी धुना जो यहाँ से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, को अपनी मूल पीठ मानते हैं. यहीं पर ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनतकुमार और सनातन भी यहाँ आये थे. अपने अस्सी अनुनाइयों के साथ यहाँ आये तो चौरासी कहलाये और श्रृष्टि की रचना और चौरासी लाख योनियाँ से मुक्ति का ज्ञान दिया, इसलिये श्रद्धालु लोग यहाँ आकर अपनी मुक्ति की कामना से आते हैं. यहाँ जो पहुँच गया उसे चौरासी लाख योगियों में नहीं भटकना पड़ता.
सुदामा अपने मित्र कृष्ण से मिलने इसी स्थान पर आये थे और यहीं भगवान कृष्ण ने अपनी लीला से दो मुट्ठी चावल खा कर दो लोक सुदामा को दान कर दिये. मित्र के दुख से दुखी कृष्ण ने यहीं मित्र के पैर आँसुओं से धो दिये.
पानी परात को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल सौं पग धोये,
हाय महा दुख पाय सखा तुम आय इते न किते दिन खोये.
इसीलिए भेंट द्वारिका का प्रसाद भी चावल ही हैं भक्त यहाँ चावल चढ़ाते हैं और यही चावल उन्हें ईश कृपा के रूप में दी जाती है. कभी सुदामा अपनी सौग़ात के रूप में चावल ले गये थे. लेकिन अब पंडित जिस चतुराई से भक्तों को कहते हैं जो कुछ आपके पास है वह यहाँ समर्पित कर दो, यहाँ जो भगवान ने दिया वह उसी को समर्पित कर दो- त्वदीय वस्तु गोविन्दम् त्वमेव तुभ्यं समर्पियामी, कह कर उनसे भेंट चढ़ाने के लिए कहते हैं पर्ची कटवाकर नाम जाति स्थान को दर्ज कराकर प्रसाद रूप में दो दाने चावल के देते हैं कलियुग में ठीक उल्टा ही होता है. यह तो शास्त्रों में भी लिखा है. लोग यहाँ भगवान के दर्शनों के लिए आते हैं कुछ कामनाओं के साथ. ये सोचकर ख़ाली हाथ आये हैं झोली भरकर जायेंगे लेकिन पंडे पुरोहित हर धर्मस्थल पर उन्हें ही ख़ाली करने की जुगत में रहते हैं. भगवान ने सुदामा को सब कुछ दिया पंडे पुरोहित सबकुछ छीन लेते हैं. धर्म का पाखंड का ऐसा ताना बाना बुनते हैं कि आप उनकी चंगुल से छूट नहीं सकते.
मीरा बाई के बारे में द्वारिका के पंडित बताते हैं मीरा बाई यहीं कृष्ण की मूर्ति में समा गई. वही मूर्ति जिसे वे भक्तों को ये बताते हैं कि यह मूर्ति स्वयं रुक्मणी ने अपने हाथों से बनाई थी. मीरा की अनन्य भक्ति द्वारिका में ही समाहित हो गई. कोई कहे मंहगो, कोई कहे सहंगो, मै तो लिए हूँ अमोलक मोल. कहने वाली मीरा सोने की द्वारिका जहाँ समाहित हुई वहीं समाहित हो गई.
मीरा बाई के बारे में द्वारिका के पंडित बताते हैं मीरा बाई यहीं कृष्ण की मूर्ति में समा गई. वही मूर्ति जिसे वे भक्तों को ये बताते हैं कि यह मूर्ति स्वयं रुक्मणी ने अपने हाथों से बनाई थी. मीरा की अनन्य भक्ति द्वारिका में ही समाहित हो गई. कोई कहे मंहगो, कोई कहे सहंगो, मै तो लिए हूँ अमोलक मोल. कहने वाली मीरा सोने की द्वारिका जहाँ समाहित हुई वहीं समाहित हो गई. पंडितों का कहना कि द्वारिका तो डूब गई लेकिन भगवान की मूर्ति बच गई. सत्य जो भी हो भक्त सत्य की तलाश में नहीं भक्ति की शरण में होता है. मीरा का भी लुप्त होना सत्य है या समुद्र में विलीन होना, यह आप पर छोड़ रहा हूँ. समुद्र सबको शरण देने वाला सन्तों ने ही तो कहा है-
का न अनल जलाय सके, का न समुद्र समाय?
यही कुछ मीरा के साथ भी हुआ होगा. जहाँ द्वारिका समा सकती है वहाँ मीरा भी समा गई होगी इसमें क्या आश्चर्य हो सकता है.
अन्त में कहना चाहता हूँ आप अपना देश देखें चाहे भक्त के रूप में देखें चाहे जिज्ञासु के रूप में, देखें ज़रूर. यह विचित्र आस्थाओं मान्यताओं, रीति –रिवाजों, खान पान की विविधताओं प्राकृतिक विभिन्नताओं से भरा हुआ है. यहाँ मूर्खता से विद्वान बनाने और विद्वता से मूर्ख बनने के सारे उप क्रम हैं. आप न माने भगवान न माने लेकिन जब आप वहाँ जाते हैं तो अनायास आप उन सबका हिस्सा कब हो जाते हैं आपको पता ही नहीं चलेगा. आस्तिक को ऐसे ही धर्मस्थलों पर लुटते हुए नास्तिकता का बोध होता है और नास्तिक को लोंगों की अपार कष्ट और पीड़ा सहते हुए भी वहाँ तक पहुँचते देख कर पता नहीं कब आस्था घेर लेती है कह नहीं सकता. यह विचित्र देश है जाने तो सही, निकलें तो सही, देखें तो सही, धीरे-धीरे समझ आ जायेगा, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसतां हमारा .
(लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं)