बेहद कड़वी, लेकिन जीवनरक्षक है कुटकी
- जे. पी. मैठाणी
मध्य हिमालय क्षेत्र में भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान के हिमालयी क्षेत्रों में बुग्यालों में जमीन पर रेंगने वाली गाढ़े हरे रंग की वनस्पति है कुटकी. उत्तराखण्ड के हिमालयी क्षेत्र जो अधिकतर 2000 मीटर यानी 6600 फीट से ऊपर अवस्थित हैं उन बुग्यालों में कुटकी पायी जाती हैं. इसका वैज्ञानिक नाम पिक्रोराइज़ा कुरूआ है. यह वनस्पति गुच्छे में उगती है और इसकी जड़ें काली भुरभुरी उपजाऊ भूमि में दूब घास की जड़ों की तरह फैलती है. पौधे की ऊँचाई 8 से 10 इंच तक ही होती है. पत्तियां किनारों पर कटी हुई और फूल सफेद-हल्के बैंगनी गुच्छे में लगते हैं. बीज बेहद बारीक होते हैं. इसलिए बीजों का संग्रहण काफी कठिन होता है. बीज बनने पर स्वतः झड़ जाते हैं और उनसे बसंत ऋतु के साथ-साथ नई पौध तैयार हो जाती है. कुटकी को एक बार रोपित कर देने के बाद उसी पौध से कई वर्षों तक नई पौध बनायी जा सकती है. कुटकी की सुखाई गई जड़ों का प्रयोग आयुर्वेद में किया जाता है.
कैसे करें कुटकी की खेती-
कुटकी के बहुवर्धन और खेती के लिए गुच्छों में उगी पौधों को स्केटर, कैंची या हाथों से अलग-अलग कर लिया जाए. दूसरी तरफ बरसात के शुरू होते ही ऐसे खेत जो 2000-2800 मीटर की ऊँचाई के बीच हों उन खेतों में कम से कम दो बार खुदाई कर पत्ती और गोबर की पूर्णतः तैयार खाद को मिला लें और अब लाईन से 4-6 इंच की दूरी पर एक-एक कर पौध रोप दें.
यह ध्यान रखना होगा कि; जब पौध रोपित की जा रही है तो यह मानसून का समय है तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं होगी. पौध के बीच लगभग 30 दिन तक किसी प्रकार की निराई-गुड़ाई ना करें. क्योंकि इससे पौध की जड़ें मिट्टी में स्थान नहीं बना पाती हैं. एक माह बाद ही खरपतवार निकालने का कार्य किया जाना चाहिए और इसे नियमित रूप से हर पंद्रह दिन के अंतराल पर करते रहना जरूरी है. निराई-गुड़ाई के दौरान जो जड़ें अगर बाहर निकल जाएं तो सावधानीपूर्वक पौध की जड़ ढंग से मिट्टी में दबा देनी चाहिए.
ढालदार और पानी ना रूकने वाली भूमि कुटकी की खेती के लिए सबसे बढ़िया मानी जाती है. जड़ी-बूटी शोध संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सी.पी. कुनियाल बताते हैं कि खेतों के भिट्टों, मेढ़ की बाहरी तरफ भी कुटकी की खेती बहुत बढ़िया होती है. एक नाली में लगभग 2200 पौध लगानी चाहिए.
जाड़ों की बारिश, बर्फबारी से पहले पूर्ण रूप से तैयार गोबर और पत्तियों की खाद कम से कम 80 किलो प्रति नाली डाल देनी चाहिए. बर्फ के नीचे कुटकी की जड़ें सुप्तावस्था में पड़़ी रहती हैं जो बर्फ पिघलने के साथ ही तेजी से अंकुरित होकर गुच्छों के रूप में विकसित होती हैं.
कुटकी की खेती के लिए समतल भूमि आवश्यक नहीं है. ढालदार और पानी ना रूकने वाली भूमि कुटकी की खेती के लिए सबसे बढ़िया मानी जाती है. जड़ी-बूटी शोध संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सी.पी. कुनियाल बताते हैं कि खेतों के भिट्टों, मेढ़ की बाहरी तरफ भी कुटकी की खेती बहुत बढ़िया होती है. एक नाली में लगभग 2200 पौध लगानी चाहिए. हालांकि कुटकी की फसल 28 महीने में तैयार होती है लेकिन मानसून में रोपित कुटकी की पौध से अगले वर्ष अप्रैल-मई में जड़ों को खोदकर जड़ों की कटिंग तैयार की जा सकती है. ध्यान रहे जड़ के साथ कम से कम 3-4 इंच का तना और रूट सिस्टम भी हो. डॉ. कुनियाल बताते हैं कि कटिंग से कुटकी उगाने पर उसके गुणों में किसी भी प्रकार का कोई ह्रास नहीं होता है.
वर्तमान में 20 से 25 टन कुटकी की जड़ों की मांग है. जबकि अभी तक बमुश्किल 4 टन कुटकी की उत्पादन उत्तराखण्ड में हो पा रहा है. वर्तमान में कुटकी की सूखी जड़ों का भाव रू0 1400-1600 प्रति किग्रा0 है. एक नाली भूमि से कम से कम 26 से 30 किग्रा0 जड़ों का उत्पादन होता है. इस प्रकार एक नाली भूमि से किसान को पहले दो वर्ष बाद लगभग 3 लाख 90 हजार रूपये की आमदनी संभावित है.
हिमनी देवाल के कुटकी उत्पादक आनंद पटाकी जो पिछले 10 वर्षों से कुटकी की खेती से अच्छा रोजगार चला रहे हैं, बताते हैं कि- इस वर्ष उनके पास 5 लाख के करीब कुटकी की कटिंग्स तैयार है. उनका दावा है कि 1 नाली भूमि से 50 हजार पौध तैयार की जा सकती है. इस प्रकार दो रूपये की भी एक पौध बिकी तो किसान 1 लाख रूपये एक नाली से ही कमा सकता है. लेकिन इसके लिए धैर्य और मेहनत आवश्यक है.
ह्यूमन इंडिया सोसायटी के सलाहकार डॉ. जितेन्द्र बुटोला मानते हैं कि उत्तराखण्ड के जनपद चमोली और बागेश्वर में कुटकी उत्पादन का जोन फिक्स है. यानि ऐसे स्थान या गाँव जहाँ सीधे ग्लेशियर की ठंडी हवायें आती हैं. उन स्थानों में कुटकी बहुत बढ़िया उगती हैं काली मिट्टी वाली ढालदार भूमि कुटकी की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है. वर्तमान में 20 से 25 टन कुटकी की जड़ों की मांग है. जबकि अभी तक बमुश्किल 4 टन कुटकी की उत्पादन उत्तराखण्ड में हो पा रहा है. वर्तमान में कुटकी की सूखी जड़ों का भाव रू0 1400-1600 प्रति किग्रा0 है. एक नाली भूमि से कम से कम 26 से 30 किग्रा0 जड़ों का उत्पादन होता है. इस प्रकार एक नाली भूमि से किसान को पहले दो वर्ष बाद लगभग 3 लाख 90 हजार रूपये की आमदनी संभावित है.
कुटकी के उपयोग-
कुटकी की जड़ तथा प्रकन्द को सुखा कर बेचा जाता है. इसका प्रमुख गुण इसका सर्वाधिक कड़वा होना है. यह चिरायता से भी कड़वी होती है. इसमें पिक्रोटिन 1 और पिक्रोटिन 2 ग्लूकोसाइड होता है. यही नहीं कुटकी में पिक्रोरीज़िन और कुटकोसाइड रसायन होने की वजह से इसका उपयोग पीलिया, एक्यूट वायरल हैपेटाइटिस, बुखार, एलर्जी, अनिद्रा और अस्थमा के साथ-साथ त्वचा के रोगों में भी किया जाता है. राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड के सलाहकार डॉ. एस0एस0 कोरंगा बताते हैं कि कुटकी का उपयोग डायबिटीज़ में भी किया जाता है. इसकी 2 आधी इंच की सूखी जड़ों को रात भर पानी में भिगोकर सुबह खाली पेट उसका पानी पी लें तो पेट के कई रोग जैसे- अपच, उदराग्नि, कब्ज और डायरिया के लिए किया जाता है. सफेद दाग बिच्छू के डंक, मलेरिया, जोड़ों के दर्द, मिर्गी में भी कुटकी का प्रयोग किया जाता है.
कुटकी पौध में लगने वाले रोग-
वैसे कुटकी पर कोई विशेष रोग नहीं होता है लेकिन पत्ती छेदक कीट, पाउडरी मिल्ड्यू या कुरमुला इसकी फसल को नुकसान पहुँचा सकते हैं. लेकिन इसके लिए रसायनिक खाद का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए. भूल कर भी कुटकी के खेतों में कच्चा गोबर ना डालें.
पौध कहाँ मिलेगी-
- जड़ी-बूटी शोध संस्थान गोपेश्वर, चमोली
- आनंद पटाकी, कुटकी उत्पादक किसान- हिमनी, देवाल- व्हाट्सएप नं0- 8755754752
कुटकी की खेती का प्रशिक्षण-
- बायोटूरिज़्म पार्क पीपलकोटी
- 3 दिवसीय प्रशिक्षण शुल्क- रू. 1500 प्रतिभागी
- न्यूनतम प्रशिक्षणार्थी- 10
प्रशिक्षण के लिए संपर्क करें-
- अलकनन्दा घाटी शिल्पी फैडरेशन, पीपलकोटी
- संपर्क नं. एवं व्हाट्सएप – 8126653475
(लेखक पहाड़ के सरोकारों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपलकोटी में ‘आगाज’ संस्था से संबंद्ध हैं)
‘आगाज’ के बारे में जानने के लिए click करें https://www.biotourismuk.org/