साईबो को पाप

  • सुभाष तराण

1815 के बाद जब जौनसार-बावर और देवघार फिरंगी सरकार के अधीन आया तो उन्होने सबसे पहले पडौस की शिमला रेजीडेंसी को देहरादून से जोडने के लिये एक नए अश्व मार्ग का निर्माण किया. यह रास्ता मसूरी, यमुना पुल नागथात चकराता त्यूनी मुन्धोल से मुराच़, छाज़पुर, खड़ा पत्थर, कोटखाई होते हुए शिमला तक जाता था. कारी-किश्ते के अलावा इस रास्ते पर घोड़े पालकियों पर सफर करने वाले अंग्रेजी हाकिमों ने बरे-बेगार की जिम्मेदारी स्थानीय स्याणों को दे रखी थी. अंग्रेजी साहिबों के आवागमन के दौरान गाँव व सदर (क्षेत्र) स्याणे बड़ी मुस्तैदी के साथ अपने अपने इलाकों में उनकी खिदमत का प्रबंध करते और हारी बेगारी करवाने के लिये अपने गाँव और क्षेत्र के भोले भाले लोगों को उनकी सेवा में पठाते. बोझा ढोने को अपनी नियती मानने वाले इस क्षेत्र के लोग भी बिना किसी हिला हवाली के ईमानदारी के साथ खुद को प्रस्तुत करते और इंग्लिश बहादुरों से आना- दो आना इनाम पाकर खुद को भाग्यशाली समझते.

डेरसा के स्याणा ने गाँव के जिन लोगों को नामांकित किया उन मे से एक शख्स की माँ बहुत बीमार थी. उस आदमी ने स्याणे के आगे फरियाद लगाई – मेरी माँ सख्त बीमार है, ऐसे हालात में इस बार मुझे बेगार के लिए न भेजा जाए. मुझे अगली बार भेज दिजिएगा, लेकिन स्याणे ने उसकी एक न मानी.

 

साईबो को पाप नामक स्थान पर लेखक

इसी फेहरिस्त में एक बार एक साहिब की पालकी मय चारकों के जब त्यूनी से मुन्धोल पहुंचने को हुई तो मुंधोल के चौकीदारों ने वहाँ से आगे मुराच़ तक के लिए बेगारी का फरमान डेरसा गाँव के स्याणा को भिजवा दिया. डेरसा के स्याणा ने गाँव के जिन लोगों को नामांकित किया उन मे से एक शख्स की माँ बहुत बीमार थी. उस आदमी ने स्याणे के आगे फरियाद लगाई – मेरी माँ सख्त बीमार है, ऐसे हालात में इस बार मुझे बेगार के लिए न भेजा जाए. मुझे अगली बार भेज दिजिएगा, लेकिन स्याणे ने उसकी एक न मानी.

फिरंगियों को पालकियों में लादे बेगारुओं का जत्था जब चौंरी गाँव पार कर मुरनल़ थाच़ पहुंचा तो साहब की तबियत शिकार करने की हो उठी. साहिब ने पालकी नीचे रखने का हुक्म दिया और सभी बेगारुओं को जंगल में शिकार का पता लगाने के लिए इधर उधर हाँक दिया.

परमात्मा का नाम लेकर वह आदमी अपने गाँव से यह सोचकर मुंधोल आ गया कि वह अपनी माँ की बीमारी की बात सीधे लाट साहिब के दरबार में अर्ज करेगा और इस बार की बेगार से छूट पा जाएगा लेकिन लाट साहिब कहाँ पसीजने वाला हुआ. संसाधन से समझौता करना साहिबों की फितरत में थोडे ही होता है. हर तरफ से निराश डेरसा गाँव के उस ना मालूम शख्स ने अगले सुबह अंग्रेज बहादुर की पालकी में कंधा लगाया और चौंरी के रास्ते अगले पड़ाव मुराच़ की तरफ कूच कर दिया.

फिरंगियों को पालकियों में लादे बेगारुओं का जत्था जब चौंरी गाँव पार कर मुरनल़ थाच़ पहुंचा तो साहब की तबियत शिकार करने की हो उठी. साहिब ने पालकी नीचे रखने का हुक्म दिया और सभी बेगारुओं को जंगल में शिकार का पता लगाने के लिए इधर उधर हाँक दिया.
डेरसा गाँव के उस भोले भाले दमित शख्स ने अब तक खूंखार मंसूबे अख्तियार कर लिए थे. वह मौके की तलाश में था. शिकार की टोह लेने के बहाने वह मुराच़ की तरफ जाने वाले रास्ते में थोड़ी दूर तक गया और तुरत लौट आया.

उस शख्स को पालकी की तरफ लौटता देख साहिब ने सवाल दागा -टुमको शिकार डिखा ?

शख्स ने सर हाँ मे सर हिलाते हुए साहिब को अपने साथ आने का ईशारा किया.

साहिब अपनी राइफल कंधे पर लाद कर उस शख्स के पीछे हो लिया.

मुरनऌ से मुराच़ के रास्ते पर लगभग मील भर का रास्ता तय करने के बाद अचानक से खड़ी उतराई आन पड़ती है. इस उतराई की शुरुआत में ही सामने एक गुंबद की शक्ल की खडी चट्टान है. इस चट्टान के दूसरी तरफ नीचे को गहरी खाई है.

साहिब को शिकार दिखाने के बहाने वह शख्स सीधे चट्टान पर चढ गया. शिकार के लालच में साहिब भी चट्टान पर चढ गया.

साहिब ने इशारे में डेरसा गाँव के उस शख्स से इशारे में पूछा.

शिकार कहाँ है?

शख्स ने चट्टान से नीचे झांकते हुए साहिब को उंगली से बताया, वो, उधर नीचे.

साहिब ने बंदूक सामने कर जैसे ही नीचे की तरफ झाँका, पीछे की तरफ से पड़ने वाले धक्के ने उसे उसकी साहबी समेत नीचे खाई के सुपुर्द कर दिया. सारे इलाके में यह खबर आग की तरह फैल गयी कि फलाने अंग्रेज साहब शिकार के फेर में अपनी जान गवां बैठे.

माराज, अंग्रेज तो विधर्मी थे, हमारे धरम और देवताओं को नही मानते थे. उन्होंने हम पर अत्याचार किए, हमे गुलाम बनाया. देवता ने एक नही मानी, कहने लगे वह भी तुम्हारी तरह ही इंसान तो था. बेमौत मरा है. उसका पाप तो पूजना ही पड़ेगा. इसके अलावा कोई विकल्प नहीं.

इस दुर्घटना पर भारत की अंग्रेज सरकार ने जांच कमिटी बिठाई. डेरसा गाँव के इकलौते चश्मदीद, चाकरों- बेगारुओं के बयानों के आधार पर सरकारी फाईल तथा जहाँ यह दुर्घटना घटी थी, यह दर्ज किया गया कि फलाने साहिब अपना फर्ज निभाते हुए इस जगह से फिसल कर फौत हो गये. डेरसा गाँव का वह शख्स घर आ गया. सन् सैंतालीस में अंग्रेज अपने मुल्क विलायत चले गये. उसका यह राज राज ही रह जाता लेकिन अगली कुछ पीढी बाद देव दोष के चलते यह राज सामने आ गया कि साहिब की मौत का असल जिम्मेदार कौन है.

गाँव क्षेत्र के मौजीज लोंगों ने देवता से तर्क वितर्क किए. माराज, अंग्रेज तो विधर्मी थे, हमारे धरम और देवताओं को नही मानते थे. उन्होंने हम पर अत्याचार किए, हमे गुलाम बनाया. देवता ने एक नही मानी, कहने लगे वह भी तुम्हारी तरह ही इंसान तो था. बेमौत मरा है. उसका पाप तो पूजना ही पड़ेगा. इसके अलावा कोई विकल्प नहीं.

मुझे नहीं मालूम कि डेरसा गाँव के उस शख्स के वारिस “साईबो के पाप” को अब भी पूजते है या नहीं लेकिन यह जगह आज भी “साईबो को पाप” के नाम से जानी जाती है.

एक जमाने में मुरनऌ और मुराच़ के बीच देहरादून शिमला पैदल मार्ग पर जिस जगह पर अंग्रेज बहादुर की स्मृति में देवदार के पेड़ पर एक तख्ती चस्पा हुआ करती थी, ठीक उसी जगह डेरसा गाँव के उस शख्स के वारिसों ने अपने पुरखे द्वारा हुई हत्या के एवज में प्रत्येक बार-त्यौहार से लेकर साल भर पडने वाले साजे-संग्रांद के दिन गिर कर मरे साहिब के पाप को जिमाना-पूजना शुरू कर दिया. मुझे नहीं मालूम कि डेरसा गाँव के उस शख्स के वारिस “साईबो के पाप” को अब भी पूजते है या नहीं लेकिन यह जगह आज भी “साईबो को पाप” के नाम से जानी जाती है.

(लेखक एथलीट, विचारक, कथाकार, पर्वतारोही एवं कवि हैं)

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