ललित फुलारा लगातार ‘पहाड़वाद’ के सवाल को उठा रहे हैं. दिल्ली/एनसीआर में बड़े ओहदों पर बैठे पहाड़ियों की अपनों के प्रति निष्क्रियता और पहाड़ी अस्मिता पर जोरदार कटाक्ष कर रहे हैं. इसे लेकर विवाद भी हो रहा है. युवा समर्थन कर रहे हैं तो कई लोगों को उनकी यह बातें चुभ भी रही है. हिमांतर ने इसी विषय पर उनसे पूछा था जिसके जवाब में उन्होंने हमें यह लेख लिखकर दिया है-
- ललित फुलारा
प्रिय साथियों/पहाड़ियों…
जब मैं स्नातकोत्तर का विद्यार्थी था, तो हर तरह के ‘वाद’ का विरोध करता था. मुझे लगता था ये चीजें हमारे भीतर हर तरह की कट्टरता को बढ़ावा देती हैं. भाषाई अस्मिता/क्षेत्रीय अस्मिता का धुर विरोधी भी रहा. अपनी सत्ता के भाव का अर्थ ही है, अपने भीतर अहंकार का भाव लाना, श्रेष्ठता का बोध होना. पर भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता से मुझे बेहद लगाव और प्रेम रहा….
जब मैं ‘पहाड़वाद’ कह रहा हूं, तो आपको इसका सीधे-सा अर्थ अपने क्षेत्र/राज्य (उत्तराखंड) के व्यक्ति के आर्थिक उत्थान से लेना है. सांस्कृतिक उत्थान/ भाषाई उत्थान तभी होगा जब आपके अपने व्यक्ति का आर्थिक उत्थान होगा. मेरा सीधा-सा कहना है कि जिस तरह से दूसरे राज्यों के लोगों के भीतर अपने व्यक्ति के उत्थान/सहायता की तीव्र ललक होती है, वैसी हमारे भीतर क्यों नहीं होती या है? इसिलिए मैंने पहाड़ियों को भीरू कहा?
दुनिया का सबसे आदर्श सिद्धांत ‘मानववाद’ ही है, पर आदर्श जो है, वो असल मायने में है और नहीं भी है! जब मैं ‘पहाड़वाद’ कह रहा हूं, तो आपको इसका सीधे-सा अर्थ अपने क्षेत्र/राज्य (उत्तराखंड) के व्यक्ति के आर्थिक उत्थान से लेना है. सांस्कृतिक उत्थान/ भाषाई उत्थान तभी होगा जब आपके अपने व्यक्ति का आर्थिक उत्थान होगा. मेरा सीधा-सा कहना है कि जिस तरह से दूसरे राज्यों के लोगों के भीतर अपने व्यक्ति के उत्थान/सहायता की तीव्र ललक होती है, वैसी हमारे भीतर क्यों नहीं होती या है? इसिलिए मैंने पहाड़ियों को भीरू कहा? शिथिल प्राणी कहा. विगत की बातें इस संबंध में मधुर हो सकती हैं पर आगत का क्या? जो आंखों के सामने है उसका क्या? अपने दिल पर हाथ रखकर पूछिए, तो आपके भीतर अपने व्यक्ति के उत्थान के प्रति कितना समर्पण और ललक है.
आपको इसके लिए लंबी चौड़ी पोस्ट नहीं पढ़नी पड़ेगी, आपका दिल, दीमाग तक उत्तर पहुंचा देगा. काबिलियत व्यक्ति को आगे बढ़ाती है, पर अपनों का हाथ उसके मुकाम दिलाता है. लेकिन दुर्भाग्य है कि दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले पहाड़ी इस मामले में दोयम दर्जे के हैं. जो पहाड़ी समाजवादी मूल्यों के तहत अपने घर के हरेले को दूसरे के द्वार तक पहुंचाते हैं/अपनी समृद्धि के बंटवारे का त्योहार मनाता है, वो ही व्यक्ति जब संगठित होकर अपनों के लिए कुछ करने की बात आती है, तो पीछे हट जाता है. आप चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, क्या वहां अपने व्यक्ति के लिए जगह नहीं बना सकते. नौकरियों पर अपने लोगों को क्यों नहीं रख सकते?
कई लोगों को मेरा ऐसा लिखना खटक रहा है. इसलिए भी क्योंकि मैं कभी वाम और दक्षिण के दल में इस तरह से शामिल नहीं हुआ. क्या आपका पहाड़वाद/भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता वाम और दक्षिण पर अटकी हुई है. क्या यह सच नहीं है कि पहाड़ के नाम पर राजनीतिक दलों/ प्रतिष्ठित संस्थाओं और व्यक्तियों से सिर्फ धन की ही उगाही हुई. आपको किसी नौजवान की सहायता के लिए पहले उसे अपने एजेंडे में लाना है/लाना होता है. ऐसा क्यों?
मैं जिन भी युवाओं से मिलता हूं उनकी यही पीड़ा होती है कि वो आस लगाकर अपने व्यक्ति के दर पर जाते हैं.उम्मीद आंखों में सझोए रहते हैं. लेकिन कथित ‘अपना व्यक्ति’ अपनी महानता के दिखावे के खोल से बाहर ही नहीं निकल पाता. कोई मतलब नहीं है, आपने हजारों किताबें लिखी हैं/लाखों कविताएं प्रकाशित हुई. लच्छेदार भाषण दिया. सुंदर-सी कहानी गढ़ दी. कई मंच बनाए, कई संस्थाएं खोली. आपने अपनों के लिए क्या किया? उत्तर यह चाहिए.
आप देख लीजिए जब तक कोई पहाड़ी किसी पद और प्रतिष्ठा पर होगा, कभी अपने व्यक्ति के लिए कुछ नहीं करेगा और जब पदविहीन होगा, तो उसके भीतर ‘पहाड़वाद’ आ जाएगा. खासकर बुढ़ापे में, क्यों? जवानी में क्या झग मारी आपने. किस बात की नाराजगी? कई लोगों को मेरा ऐसा लिखना खटक रहा है. इसलिए भी क्योंकि मैं कभी वाम और दक्षिण के दल में इस तरह से शामिल नहीं हुआ. क्या आपका पहाड़वाद/भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता वाम और दक्षिण पर अटकी हुई है. क्या यह सच नहीं है कि पहाड़ के नाम पर राजनीतिक दलों/ प्रतिष्ठित संस्थाओं और व्यक्तियों से सिर्फ धन की ही उगाही हुई. आपको किसी नौजवान की सहायता के लिए पहले उसे अपने एजेंडे में लाना है/लाना होता है. ऐसा क्यों?
दिल्ली-एनसीआर में पहाड़ प्रेम बस मंचीय/संस्थाओं तक ही रहा है. पहाड़ के जानकार होने की होड़ रही. जबकि आपके पहाड़ी नौजवान दर-दर भटके. कई वापस गए और कई घिसते रहे…. आपने क्या किया? कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं. उन्होंने अपने लोगों के लिए बहुत कुछ किया हो सकता है. यहां बात ऐसे लोगों की नहीं हो रही…. ऐसी संस्थाओं की नहीं हो रही. इसलिए नाराजगी न रखकर नौजवानों के साथ आइए और सोचिए भविष्य कैसा हो? क्या वैसा ही हो जैसे आप दर-दर भटकते रहे. अपने आदमी के कुछ करने की आस लगाते रहे…और वो आपको घुमाता रहा. मैं अगर कह रहा हूं कि मंच मिलते ही पहाड़ प्रेम भावुक होकर बहता है तो क्या गलत है? एकदम सच है. मंच से नीचे आते ही पहाड़ प्रेम और पहाड़ के लोगों के लिए कुछ करने की सोच गधरे में बह जाती है. गधेरे में बहना ही सत्य है बाकी सब प्रपंच है….
संस्थाएं सिर्फ दिल्ली की आबादी में शामिल हुए 35 से 38 फीसदी प्रवासी उत्तराखंडियों को राजनीतिक पार्टियों के पाले में डालने का ही काम करती हैं/करते आई हैं. नाराज होने और भाषण देने की जगह अपने भीतर के अहंकार/श्रेष्ठताबोध को नीचे रखो/नाक छोटी करो और अपने आदमी के काम आओ…
युवाओं को बड़ी-बड़ी बातें नहीं चाहिए उनको आपका समर्पण चाहिए. जब आप अपने नौजवानों का विश्वास जीतोगे तभी तो विशेषज्ञ का दर्जा पाओगे. मानवीय प्रवृत्ति है जब पाने की भारी आती है तो बंदरबांट….. आप संस्थाएं चलाओ, मंचों पर आसीन रहो, हमको कोई परेशानी नहीं है. आप इनके साथ ही नौजवानों के समूहों से मिलो और उनका मार्गदर्शन भी करो….. जानने की कोशिश करो आपके क्षेत्र के कितने पढ़े लिखे नौजवान बेराजगार घूम रहे हैं, काबिलियित नहीं बल्कि…आप समझते ही हैं. संस्थाएं सिर्फ दिल्ली की आबादी में शामिल हुए 35 से 38 फीसदी प्रवासी उत्तराखंडियों को राजनीतिक पार्टियों के पाले में डालने का ही काम करती हैं/करते आई हैं. नाराज होने और भाषण देने की जगह अपने भीतर के अहंकार/श्रेष्ठताबोध को नीचे रखो/नाक छोटी करो और अपने आदमी के काम आओ…
इससे पहले उन्होंने अपने फेसबुक पोस्ट में जो लिखा था उसे भी पढ़ें:
अगर आप पहाड़ी हैं तो पोस्ट कतई न पड़ें/ जागने की जगह सोए रहने में ही आपकी तरक्की/भलाई है
A जी मेरे सालों पुराने मित्र हैं. उनसे करीब एक घंटे बात हुई और सारी बात ‘पहाड़वाद’ पर ही केंद्रित रही. मैंने साफ कहा/ और मैं इस बात से पूरा इत्तफ़ाक़ भी रखता हूं. ‘पहाड़ी सबसे भीरु होते हैं. गोबर के कीड़े ही बने रहना चाहते हैं. उनके भीतर क्षेत्रीय अस्मिता/ क्षेत्रवाद की भावना मरी हुई होती है. अपने आदमी को ऊपर उठाने के मामले में ‘पहाड़ी’ सबसे मुर्दा इंसान है. मदद के मामले में सबसे शिथिल प्राणी. नेताओं से लेकर पत्रकार/अकादमी से लेकर दूसरे महकमें, तमाम जगह आपको उनके भीतर की मुर्दा शांति देखने को मिल जाएगी.
पहाड़ी-पहाड़ी से सीधे मुंह बात तक नहीं करता. घमंड के मामले में पहाड़ी की नाक सबसे ऊपर होती है. दो पहाड़ी कभी आपस में एकजुट नहीं हो सकते. उनकी नाक उनके एकजुटता के बीच में आ जाती है. पहाड़ी-पहाड़ी को कभी उठा नहीं सकता, गिरा जरूर देगा. पहाड़ी एकमात्र ऐसा जीव इस धरती पर मिलेगा जो पहाड़ी होते हुए भी अपनी पहचान बताने में कतराएगा. जो व्यक्ति अपनी परिवेश और पहचान से कतराता है, वो अपने क्षेत्र के व्यक्ति का कितना हितैषी होगा यह आप जान सकते हैं. पहाड़ी-पहाड़ी से विवाद जरूर कर लेगा, लेकिन एकजुट नहीं हो पाएगा और न ही प्रेम कर पाएगा.
आपने कभी देखा है दो पहाड़ियों को अपनी भाषा में बात करते हुए. पहाड़ी रो धोकर अगर कोई संगठन/गुट भी बना लेंगे तो युवा पीढ़ी की मदद की जगह, आपसी लड़ाई में ही उलझे रहेंगे. पहाड़ी सिर्फ पहाड़ी का इस्तेमाल करना जानता है, मदद नहीं. मैं पहाड़वाद का सौ फीसदी समर्थक हूं. मुझे जानने वाले इस बात को जानते भी हैं. मैं रहूंगा भी. मुझे इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती. मैं युवा पीढ़ी के पहाड़ियों से कहना भी चाहूंगा, अपने भीतर क्षेत्रीय अस्मिता/क्षेत्रवाद/पहाड़वाद की भावना रखें. हर संभव अपने आदमी की मदद करें. धब्बा लगे या चाहे दाग- लगने दो, भाड़ में जाए. ऐसी बेदाग छवि अपने को नहीं चाहिए. जो पहाड़ी आपके काम नहीं आ सकते/आए, उनको ब्लॉक कर दो, बेवजह का सम्मान मत दो. गरियाओ सालों को क्योंकि इनकी पीढ़ी की गलतियों ने बहुत से पहाड़ियों का जीवन बर्बाद किया है. बड़ी पोस्ट पर जो पहाड़ी हैं, उनका बिल्कुल सम्मान मत करो, तभी करो जब किसी भी मामले में उन्होंने आपकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाया हो….. पुरानी पीढ़ी को भूल जाओ और नई पीढ़ी के लोगो संगठित रहो. समूह में रहो/ अपने भीतर प्रबल क्षेत्रवाद की भावना रखो, बिना हिचकाए/बिना डरे/….
लिखने को बहुत कुछ है, अनुभवों का खजाना है- अगर कोई पहाड़ी आपके काम नहीं आए तो आप अपने जीवन में इस बात का उसूल बना लो कि मैं हर हाल में पहाड़ी व्यक्ति की मदद करूंगा, आपका जीवन सफल हो जाएगा और आपके क्षेत्र के व्यक्ति समस्याएं भी कम. आप चाहे किसी भी क्षेत्र में हो जमकर पहाड़वाद करो. ज्ञान मत दो. अपने व्यक्ति के काम आओ. शुक्रिया. A जी देख लीजिए. मैं साफ कह रहा हूं मैं अपने जीवन में खुलकर पहाड़वाद करूंगा, मुझे किसी का कोई डर नहीं, मुझे ऐसी छवि का अचार भी नहीं डालना, जिसको जो बनानी है बनाओ.
(लेखक अमर उजाला में चीफ सब एडिटर हैं. ज़ी न्यूज और न्यूज 18 सहित कई संस्थानों में काम कर चुके हैं.)
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ललित भाई तहेदिल से सहमत लोग , कथितआन्दोलनकारीओं ने नहीं समझा , बात बड़ी है इसलिए इस पर बात करनी है।