भुवन चंद्र पंत
इस वर्ष अधिकमास अथवा पुरूषोत्तम मास सावन के महीने में पड़ रहा है. सावन का महीना हर सनातनी के लिए शिवार्चन अथवा पार्थिव पूजन का पवित्र महीना माना जाता है. लेकिन इस माह में अधिकमास होने से कई लोगों में यह शंका होना स्वाभाविक है कि क्या इस साल श्रावण माह में शिवार्चन अथवा पार्थिव पूजा की जा सकेगी अथवा नहीं? पुरोहितवर्ग में मतैक्य न होने से लोग भ्रमित हैं. पुरोहितों का एक वर्ग कहता है कि इस बार श्रावण माह में शिवार्चन नहीं किया जा सकेगा, जब कि दूसरा वर्ग कहता है कि जो नियमित रूप से करते आये हैं, वे तो शिवार्चन कर सकते हैं जब कि जो पहली बार शिवार्चन की शुरुआत कर रहे हों, वे अधिकमास से शिवार्चन की शुरुआत न करें. दूसरी ओर पुरोहितों का एक बड़ा वर्ग का कहना है कि अधिकमास यदि श्रावण माह में पड़ रहा है, तो यह शिवार्चन के लिए सबसे उपयुक्त काल व अधिक पुण्य व फलदायी है. क्योंकि मांगलिक कार्यों को छोड़कर दान, पुण्य, जप-तप के लिए अधिमास का समय कई गुना अधिक पुण्यफल देने वाला है.
इससे पहले कि इस पर विस्तार से चर्चा करें, आइये! जानते हैं कि अधिकमास,अधिमास, मलमास अथवा पुरुषोत्तम होता क्या है ? सनातन संस्कृति के अनुसार ज्योतिष काल गणना दो तरह से होती है – पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा-गति और चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा-गति के अनुसार. इसे ही सौरमास व चान्द्रमास के नाम से जाना जाता है. वर्ष में सूर्य बारह महीनों में बारह राशियों में संक्रमण करता है, और इसी संक्रमण के दिन को संक्रान्ति नाम दिया गया है. जैसे मेष, कर्क, मकर संक्रान्ति आदि आदि. पृथ्वी को सूर्य का चक्कर लगाने में 365 दिन, 5 धण्टे, 48 मिनट और 46 सेकिण्ड का समय लगता है. इस प्रकार हम देखते हैं, कि सौर मास के अनुसार संक्रान्ति पर मनाये जाने वाले पर्व जैसे मेष संक्रान्ति (विखौती) कर्क संक्रान्ति (हरेला) मकर संक्रान्ति (उत्तरायणी) अमूमन हर वर्ष निश्चित तिथि को ही होते हैं, ये बात दीगर है कि कभी-कभी एक दिन आगे पीछे हो सकता है.
आंग्ल कैलेण्डर की तरह इसमें हर माह एक निश्चित दिनों का नहीं होता, बल्कि हिन्दी माहों में ज्योतिषीय गणना के अनुरूप हर महीने के दिन घट अथवा बढ़ सकते हैं और कोई महीना 32 दिनों का भी होता है. जैसे कि इस वर्ष आषाढ़ माह 32 दिन का है. लेकिन सौरवर्ष की तरह चान्द्र वर्ष इतने दिन का नहीं होता. बल्कि चान्द्र वर्ष 354 दिन यानि सौर वर्ष से 11 दिन कम होता है. सनातन संस्कृति में अधिकांश पर्व चान्द्रमास के अनुसार तिथियों पर मनाये जाते हैं, जैसे नवरात्रि, श्रावणी पूणिर्तमा पर रक्षाबन्धन, दशहरा, दीपावली, शिवरात्रि, होली आदि. इस प्रकार 11 दिनों का यह अन्तर 3 साल में लगभग एक महीने से अधिक हो जाता है. इसी को सन्तुलित करने अथवा यों कहें कि सौरमास से सामंजस्य बिठाने के लिए ही हर तीसरे वर्ष अधिकमास अथवा अतिरिक्त मास की व्यवस्था ज्योतिष गणना में की गयी है. अगर इस तरह की व्यवस्था न होती तो हर वर्ष हमारे चान्द्र मास के आधार पर मनाये जाने वाले पर्व 11 दिन पहले हो जाया करते. इस तरह दीपावली, होली आदि हर तीन साल के बाद एक माह पहले हो जाती. यानि होली, दीवाली आदि कभी जाड़ों में, कभी बरसात में तो कभी गर्मियों में होती. जैसा कि इस्लामिक त्योहार ईद में होता है, क्योंकि इस्लाम केवल चांद को ही आधार मानकर चलता है. इसलिए इस्लामिक कैलेण्डर में ईद का समय निरन्तर बदलते रहता है. जब कि सनातन संस्कृति में अधिकमास की ज्योतिषीय गणना के कारण चान्द्रमास के पर्व पुनः अपने समय पर वापस लौट आते हैं. अधिमास का यही क्रम हर तीसरे वर्ष पुनः आते रहता है.
पर्वतीय क्षेत्रों में सावन या श्रावण मास, सूर्य के कर्क राशि में संक्रमण यानि हरेला पर्व से मानते हैं, जो कि इस वर्ष 17 जुलाई को है , इसी दिन के बाद शिवार्चन अथवा पार्थिवपूजन किया जाता है, जब कि देश के अन्य भागों में चान्द्र मास के अनुसार श्रावण कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से श्रावण मास माना जाता है और इसी तिथि से एक माह पर्यन्त शिव पूजन किया जाता है जो इस 4 जुलाई से शुरू हो चुका है. यानि जो लोग अधिकमास के कारण शिवपूजन न होने के तर्क पर विश्वास करते हैं, वे चान्द्रमास के अनुसार 04 जुलाई से 17 जुलाई तक शिवपूजन कर सकते हैं , जो अधिमास अवधि से पहले है. लेकिन सौरमास यानि श्रावण के 01 गते से श्रावण मास मानने वाले पर्वतीय समाज के लोगों के लिए इस आधार पर केवल 17 जुलाई का ही दिन पार्थिव पूजन के लिए मिलता है, क्योंकि 18 जुलाई 2023, श्रावण शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अधिकमास प्रारम्भ हो जायेगा जो 16 अगस्त 2023 तक चलेगा.
अब मुख्य सवाल पर आते हैं, कि क्या अधिकमास में शिवार्चन या पार्थिवपूजन किया जा सकता है? इसके लिए पौराणिक आख्यानों का आश्रय लेते हैं. हमारे मनीषियों ने हर माह के लिए एक अधिपति देवता निर्धारित किये, इस प्रकार बारह मासों के लिए 12 अधिपति देवता तो निर्धारित थे, लेकिन इस तेरहवें मलमास (मलिनमास) के लिए अधिपति बनने को कोई देवता तैयार नहीं हुए, इस परिस्थिति में ऋषि मुनियों ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वे इस माह का भार अपने ऊपर लें. ऋषियों के आग्रह पर भगवान विष्णु ने यह अनुरोध स्वीकार किया और उस मास का नाम अपने ही नाम के अनुरूप पुरूषोत्तम मास रख दिया. पुरूषोत्तम, भगवान विष्णु का ही एक नाम है.
चूंकि इस मास के स्वामी स्वयं भगवान विष्णु हैं, इसमें भले ही मांगलिक कार्य (विवाह, यज्ञोपवीत, गृह प्रवेश, नामकरण आदि) न हों लेकिन भगवान विष्णु कहते हैं कि जो व्यक्ति इस माह में जप, तप, दान तथा धार्मिक अनुष्ठान करता है, उसे मैं सामान्यकाल की अपेक्षा दस गुना फल देता हॅू. यहां पर एक प्रश्न यह उभरना भी स्वाभाविक है कि इस वर्ष पुरूषोत्तम मास श्रावण के महीने में पड़ रहा है, पुरूषोत्तम भगवान विष्णु तो हरिशयनी एकादशी से हरिबोधिनी एकादशी तक स्वयं योगनिद्रा में हैं. लेकिन हम यह भी न भूलें कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु की योगनिद्रा की अवधि में वे समस्त सृष्टि का भार भगवान शिव को सौंप देते हैं. तब तो शिव आराधना के लिए इससे उपयुक्त और कोई समय हो ही नहीं सकता.
इस संबंध में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में ज्योतिष विभाग के विभागाध्यक्ष रहे प्रो0 डी0के0त्रिपाठी से जब राय जाननी चाही, तो उनका स्पष्ट मत था कि यह तो सौभाग्य है कि हमें शिव आराधना के लिए पूरे दो माह मिल रहे हैं. उनका कहना था कि जो नियमित रूप से पार्थिव पूजन कर रहे हैं, वे तो पार्थिव पूजन करेंगे ही, लेकिन जो पहली बार पार्थिव पूजन की शुरूआत कर रहे हैं, उन्हें भी पार्थिव पूजन शुरू करने में कोई हर्ज नहीं है. अपनी बात को आगे बढाते हुए वे कहते हैं, कि यदि घर पर शिवलिंग नहीं है, तो ही पार्थिव बनाये जाने चाहिये, यदि मन्दिर में शिवलिंग है,तो पार्थिव बनाकर उनकी प्राण प्रतिष्ठा के बजाय पहले से प्राणप्रतिष्ठित शिवलिंग पर ही शिवपूजन श्रेयस्कर है.
रूद्राभिषेक में रूद्री पाठ पर उनका मत है कि यदि स्वरों के आरोह -अवरोह और शुद्ध उच्चारण के साथ रूद्रीपाठ किया जाय तो ही व फलदाई होगा और इस प्रकार रूद्रीपाठ करने में पूरे 2 घण्टे का समय लगता है, लेकिन आजकल जिस तरह यजमान की पुरोहित के प्रति आस्था रह गयी है, उसी के अनुरूप पुरोहित भी अपना काम कर रहे हैं. उनका यह भी कहना है हरिशयनी के बाद हरिबोधिनी एकादशी पर्यन्त भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं तो भूमिपूजन आदि के बाद योगमाया का पूजन किया जाना चाहिये, जिससे भगवान विष्णु जागृत होंगे, उसके बाद ही नारायण पूजन का विधान है.
“मुण्डे- मण्डे मतिर्भिन्नाः’’ इसे एक सामान्य जानकारी मानते हुए अन्तिम निर्णय लेने से पूर्व ज्योतिष व कर्मकाण्डीय विद्धानों से इस विषय पर शास्त्रसम्मत परामर्श कर सही मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है.
(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों, लोकसंस्कृति, लोकपरम्परा, लोकभाषा तथा अन्य सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के अलावा कविता लेखन में भी रूचि. 24 वर्ष की उम्र में 1978 से आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ, रामपुर तथा अल्मोड़ा केन्द्रों से वार्ताओं तथा कविताओं का प्रसारण.)