मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—3
- प्रकाश उप्रेती
आज बात- ‘पाई’ की. पहाड़ के हर घर की शान ‘पाई’ होती थी. पाई के बिना खाना बनने वाले गोठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पाई दरअसल लकड़ी की बनी वह चीज थी जिसमें पिसा हुआ लूण और चटनी रखते थे. मोटी लकड़ी को तराश कर उसको एक या दो खाँचों का बनाया जाता था. इन खाँचों में ही लूण और चटनी रखी जाती थी. इस पूरे ढाँचे को बोला जाता था-पाई.
ईजा हमेशा पाई में लूण और चटनी पीसकर रख देती थीं. हमारे घर में एक बड़ी और दो छोटी पाई थीं. छोटी पाई पर हम बच्चों का अधिकार होता था. हम अपनी-अपनी पाई को छुपाकर रख देते थे. जो बडी पाई थी वह जूठी न हो इसलिए ईजा हमारी पाई में चटनी और नमक अलग से रख देती थीं. ईजा कहती थीं- “ये ले आपणी पाई हां धर ले” (अपनी पाई में (नमक, चटनी) रख ले). हम बड़ी उत्सुकता से रखकर पाई को फिर गोठ में कहीं छुपा देते थे ताकि कोई और न खा ले.
ईजा अक्सर तिल, पुदीना, भाँगुल, और आम की चटनी पीसती थीं. जब भी पाई में लूण व चटनी खत्म होता ईजा पीसकर फिर से भर देती थीं. हम गर्मा-गर्म मंडुवे की रोटी लूण, चटनी और घी के साथ खाते थे. इसलिए पाई गोठ की रसोई का अहम हिस्सा बन गई थी.
एक बार लूण और चटनी पीसने के बाद कई दिनों तक वो पाई में सुरक्षित बची रहती थी. ईजा अक्सर तिल, पुदीना, भाँगुल, और आम की चटनी पीसती थीं. जब भी पाई में लूण व चटनी खत्म होता ईजा पीसकर फिर से भर देती थीं. हम गर्मा-गर्म मंडुवे की रोटी लूण, चटनी और घी के साथ खाते थे. इसलिए पाई गोठ की रसोई का अहम हिस्सा बन गई थी.
‘पाई कें भ्यारपन नि नचन’. फिर भी कभी-कभी हम बाहर ले आते थे परन्तु जैसे ही ईजा को देखते तो तुरंत पाई को वापस गोठ रख देते थे. पाई हो गई और दूध, दही का बर्तन हो गया, इनको ईजा बाहर नहीं ले जाने देती थीं. कहती थीं- ‘हाक लागि जैं’.
ईजा पाई को बाहर नहीं ले जाने देती थीं. कहती थीं- ‘पाई कें भ्यारपन नि नचन’ (पाई को बाहर नहीं नचाते हैं). फिर भी कभी-कभी हम बाहर ले आते थे परन्तु जैसे ही ईजा को देखते तो तुरंत पाई को वापस गोठ रख देते थे. पाई हो गई और दूध, दही का बर्तन हो गया, इनको ईजा बाहर नहीं ले जाने देती थीं. कहती थीं- ‘हाक लागि जैं’ (नज़र लग जाती है). धीरे- धीरे हम भी इस बात को समझने लगे, फिर बार-बार ईजा को टोकने और डांटने की जरूरत नहीं पड़ती थी.
ईजा अमूमन महीने में 3-4 बार पाई को साफ करती थीं. वह भी, ‘खारुण’ (राख) से. ईजा कहती थीं- ‘खारुणेल पाई साफ है जैं’ (राख से पाई साफ हो जाती है). साफ करने के बाद उसे चूल्हे के पास सूखने छोड़ देती थीं. पाई एक विशिष्ट बर्तन था और गोठ के अन्य बर्तनों के मुकाबले उसकी हैसियत ऊंची थी.
पाई अब धीरे-धीरे खत्म हो गई है. पाई बनाने वाले लोग भी नहीं रहे. पाई की जगह प्लास्टिक और सिल्वर के डब्बों ने ले ली है. पाई बीती हुई धरोहर हो गई है. अब उसका खाली होना और गिरना भी किसी को नहीं अखरता है. न अब कोई ये पूछने आता है कि- ‘त्युमर पाई होन लूण छै?’
पाई का हाथ से गिरना और खाली रहना अच्छा नहीं माना जाता था. कभी जब हमारे हाथ से पाई नीचे गिर जाती थी तो ईजा गुस्सा होती थीं-‘ख़्वर लागो रे त्यर’ (सर लग गया तेरा). पाई का खाली रहना असल में घर में सब कुछ खत्म होने का प्रतीक था. अगर किसी ने पिसा लूण माँगा और नहीं हुआ तो वो कहते थे- ‘त्युमर पाई होन लूण ले नि छै’ ( तुम्हारी पाई में नमक भी नहीं है). यह बात अपमान समझी जाती थी इसलिए ईजा पाई को हमेशा भर कर रखती थीं.
ईजा ने एक छोटी सी पाई अब भी रखी है. तमाम टिन, सिल्वर और प्लास्टिक के डिब्बों के बीच में वो पाई, अपने ‘होने’ को खोज रही है. ईजा और पाई बहुत कुछ के बाद भी उदास हैं. ईजा, पाई की तरह अब भी अकेले ही सही, पर जमी हुई हैं, हम तो प्लास्टिक हो गए हैं!
पाई अब धीरे-धीरे खत्म हो गई है. पाई बनाने वाले लोग भी नहीं रहे. पाई की जगह प्लास्टिक और सिल्वर के डब्बों ने ले ली है. पाई बीती हुई धरोहर हो गई है. अब उसका खाली होना और गिरना भी किसी को नहीं अखरता है. न अब कोई ये पूछने आता है कि- ‘त्युमर पाई होन लूण छै?’ (तुम्हारी पाई में नमक है?)
ईजा ने एक छोटी सी पाई अब भी रखी है. तमाम टिन, सिल्वर और प्लास्टिक के डिब्बों के बीच में वो पाई, अपने ‘होने’ को खोज रही है. ईजा और पाई बहुत कुछ के बाद भी उदास हैं. ईजा, पाई की तरह अब भी अकेले ही सही, पर जमी हुई हैं, हम तो प्लास्टिक हो गए हैं!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)