प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीवन को अनुभव व अनुभूतियों के साथ प्रस्तुत करती है। पहाड़ी जीवन के रोचक किस्सों से भरपूर इस सीरीज की धुरी ‘ईजा’ हैं। ईजा की आँखों से पहाड़ का वो जीवन कई हिस्सों और किस्सों में अभिव्यक्ति पा रहा है। हमने कोशिश की है उनके इन संस्मरणों को अपनी वेबसाइट के माध्यम से आप लोगों तक पहुंचा सकें. इसी प्रयास के साथ…
ज्योतिष
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—1
- प्रकाश उप्रेती
आज बात- ‘किम्मु’ और अन्य फलों की. पहाड़ में जीवन का अर्थ इस तरह के कई फलों का आपकी दिनचर्या और यादों में शामिल होना है. मैं इन्हें जंगली फल नहीं मानता वो इसलिए क्योंकि ये वो फल हैं जिन्हें हम खाते हुए बड़े हुए. जंगल हमारा घर है. कई बार तो हमने इनसे ही भूख मिटाई है. जंगल आपको भूखा नहीं रहने देते हैं. उसके पास हमेशा ही आपको देने के लिए कुछ न कुछ होता है.
बुरांस
तब हमारा दिन सुबह-सुबह पानी लेने जाने से शुरू हो जाता था. ईजा कहती थीं- “जा ‘नोह’ बे एक भान पाणी ले आ” (एक बर्तन पानी ले आ). जब भी नोह जाते थे तो सीधे हिसाऊ, क़िलमोड और करूँझ पर ‘जै’ लगते थे. एक बार इनको खाने बैठते थे तो फिर समय का पता ही नहीं चलता था. ईजा पानी का इंतजार कर रही होती थीं लेकिन हम नोह में इन्हें खाने में मग्न रहते थे. जब उनके सब्र का बाँध टूटने लगता तो वो घर से ‘धात’ (आवाज़) लगाने लगतीं, ये धात कम और चेतावनी ज्यादा होती थी- ‘घर आंछै कि न’ (घर आ रहा है कि नहीं). ईजा की आवाज सुनते ही हम तुरंत पानी भरकर घर के लिए चल देते थे. उतनी देर में जितना खाया जाए वो खा लेते बाकी जेब में भर लेते थे.
बुरांस
ईजा घर से यह कह कर ही भेजती थीं- “जल्दी आये हां, गध्यर पन किम्मु, आम खाण पे झन रहे” (जल्दी आना वहाँ किम्मु और आम खाने में ही मत लगे रहना). हम हां, हां कहते रहते थे लेकिन आते अपनी मर्जी से सब खाकर ही. इस बात को ईजा भी समझती थी. इसलिए कई बार तो ‘धात’ लगाती थीं. अगर हमने धात नहीं सुनी तो जो भी गध्यर जाते हुए दिखाई देता था, उन्हें कहती थीं- “गध्यर पन हमर नन हनल उनुकें जरा घर हैं पठ्ये दिया हां”
बुरांस
पानी के बाद जब हम घास- लकड़ी लाने के लिए ‘भ्योव’ (जंगल) जाते थे तो घास काटने से पहले एक राउंड किम्मु, तिमिल और बेडू का चलता था. गांव के सभी बच्चे अक्सर वहाँ होते थे. एक साथ बैठकर मन भर खाते फिर घास काटते थे. ऐसे ही लकड़ी तोड़ने से पहले चीड़ के पेड़ से ‘दाम’ खाना नियमित कर्म था. भ्योव जब जाते थे तो ईजा अक्सर कहती थीं- “भ्योव पने झन रहे हां, घर आये जल्दी” (जंगल में ही मत रहना, घर जल्दी आना).
बुरांस
दिन का समय गाय-भैंस चराने और ‘गध्यर’ में पानी पिलाने ले जाने का होता था. ईजा घर से यह कह कर ही भेजती थीं- “जल्दी आये हां, गध्यर पन किम्मु, आम खाण पे झन रहे” (जल्दी आना वहाँ किम्मु और आम खाने में ही मत लगे रहना). हम हां, हां कहते रहते थे लेकिन आते अपनी मर्जी से सब खाकर ही. इस बात को ईजा भी समझती थी. इसलिए कई बार तो ‘धात’ लगाती थीं. अगर हमने धात नहीं सुनी तो जो भी गध्यर जाते हुए दिखाई देता था, उन्हें कहती थीं- “गध्यर पन हमर नन हनल उनुकें जरा घर हैं पठ्ये दिया हां” (नीचे मेरे बच्चे होंगे उन्हें घर को भेज देना). ईजा का संदेश वह व्यक्ति हमें देता और हम सरपट घर की तरफ निकल जाते थे. हमको भी समझ आ जाता था कि बहुत देर हो गई है. दूसरा तब तक खाते-खाते पेट भी भर जाता था, दाँत भी खट्टे हो जाते थे.
बुरांस
ईजा कह रही थीं- ‘अब को खाँ इनुके’ (अब इनको कौन खाता है). यही सच है. गाँव खाली हो गए तो खाने वाले ही कहाँ बचे. पेड़, फल, जंगल, ईजा सब वहीं हैं लेकिन बाकी निकल आए हैं.. क्या विडंबना है न..
बुरांस
अभी कुछ समय पहले ईजा ने बताया कि आजकल वो तिमिल, बेडू और किम्मु खा रहे हैं. अभी बहुत समय नहीं बीता है जब ये सब जीवन का हिस्सा थे. अब बस स्मृतियों में हैं. कहीं भी जाते हुए नीयत इन्हीं में डोली रहती थी. ये फल दिखे नहीं कि तुरंत लपक लेते थे, न हाथ धोते थे न इन्हें. तोड़ा और गप्प मुँह में डाला! अब दुनिया बदल रही है. मेरा पहाड़ भी बदल रहा है.
बुरांस
ईजा कह रही थीं- ‘अब को खाँ इनुके’ (अब इनको कौन खाता है). यही सच है. गाँव खाली हो गए तो खाने वाले ही कहाँ बचे. पेड़, फल, जंगल, ईजा सब वहीं हैं लेकिन बाकी निकल आए हैं.. क्या विडंबना है न..
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)
आज भारत दर्शन मे मैच से ठीक पहले यह लिंक देखा सुरक्षित कर अभी पढा। बहुत आत्मीय और लयबद्ध लेख है। पढकर अच्छा लगा। हमें परिचित कराने के लिए आपका आभार।
बेहतरीन!! गाँव की स्मृतियाँ तरोताजा हो गयी
Adbhuttt
वाह, यह लेख बहुत रोचक तरीके से लिखा गया है। बचपन की याद आ गई जब हम सभी बच्चे दिन भर कीमू के पेड़ में चढ़कर एक-एक पके हुए कीमू को खाने के लिए एक टहनी से दूसरी टहनी में फ़र्राटे से चढ़ते और खूब गप्पे मारते। और हाँ एक थैली में जमा करके अपने छोटे भाइयों के लिए भी एक-एक दाना बचाकर लाते थे। वाह क्या दिन थे वो।
लंबे समय बाद गँवीली ख़ुशबू फैली है ,
ज़मीं से लंबवत होती, आकाश की ओर, जैसे पहाड़।
लॉकडाउन में इंटरनेट भी प्रकृति की ओर लौट रहा है।
बधाई,
और कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी..!💐
प्रकाश को बढ़िया लेखन के लिए बधाई। इस ‘किम्मु’ के संस्मरण से बचपन की यादें तरोताज़ा हो जाती हैं। भारत के अधिकांश लोग अपने बचपन में इस तरह के छूट और दर के अनुभावों से गुजरे हैं। प्रकाश ने प्रकृति के गुण को भी रेखांकित किया है ” जंगल आपको भूखा नहीं रहने देते हैं. उसके पास हमेशा ही आपको देने के लिए कुछ न कुछ होता है.” उम्मीद है कि वे अपने भावनात्मक उद्देश्यों में इस पक्ष को हमेशा शामिल रखेंगे। प्रकाश को बधाई ।